क्या बतौर अध्यक्ष राहुल ने सबसे कठिन चुनौतियों का सामना किया?
नई दिल्ली। करीब एक महीने से ज्यादा वक्त तक चले लंबे ऊहापोह के बाद आखिर राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से न केवल औपचारिक इस्तीफा दे दिया बल्कि एक लंबा पत्र भी ट्वीट कर अपनी स्थिति भी स्पष्ट कर दी। हालांकि अभी भी इस तरह की बातें की जा रही हैं कि जब तक अध्यक्ष का औपचारिक चुनाव नहीं हो जाता, राहुल ही अध्यक्ष रहेंगे। फिलहाल यह अलग बात है कि कांग्रेस संगठन जिसने राहुल के इस्तीफे की पेशकश ठुकरा दी थी, वह इस औपचारिक इस्तीफे को किस रूप में लेता है। लेकिन इस इस्तीफे के बाद जो बातें देखने की हैं उनमें यह भी एक है कि उनका अध्यक्ष का कार्यकाल कैसा रहा और इस्तीफे के बाद कांग्रेस कैसी होगी। क्या उन सवालों का जवाब मिल सकेगा जिनका उल्लेख राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद जिम्मेदारी लेते हुए किया था और जिनका अब पत्र में जिक्र किया है।
क्या इससे यह नहीं लगता कि वह कितनी चुनौतियों भरा समय था जब राहुल को अध्यक्ष पद सौंपा गया था और क्या वाकई बतौर संगठन कांग्रेस और उसके नेताओं ने भी उन चुनौतियों को स्वीकार किया जिसके लिए राहुल के ही शब्दों में अकेले उन्हें चौतरफा लड़ना पड़ा। कहा जा सकता है कि यह किसी पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसा संगठन खड़ा करे और ऐसा नेतृत्व प्रदान करे कि पार्टी मजबूत हो, लेकिन क्या यह कहने जैसा आसान हो सकता है।
राहुल के सामने कैसी मुश्किलें थी इस चुनाव में?
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी रही है जिसने देश पर लंबे समय तक शासन किया। अपने बुरे समय में भी वह बार-बार नए सिरे से खड़ी होती और सत्ता में आती रही है। लेकिन बीते दो लोकसभा चुनावों में उसकी हालत बहुत कमजोर हो गई। यहां तक कि खुद राहुल गांधी अपनी और कांग्रेस की परंपरागत सीट अमेठी से हार गए। यह अलग बात है कि 2014 के चुनाव में मिली सीटों से 2019 के चुनाव में सीटों की संख्या बढ़ गई, लेकिन यह इतनी नाकाफी रही कि सामान्यतया इसमें राहुल गांधी का कोई योगदान माना गया। हालिया लोकसभा चुनाव में करारी हार की समीक्षा के दौरान इस तथ्य को नजरंदाज किया गया कि जब भाजपा को चुनावों में लगातार जीत मिल रही थी, उसी बीच तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को न केवल जीत मिली बल्कि तीनों राज्यों में सरकारें भी बनीं। इन तीनों राज्यों में जीत से यह अनुमान लगाया ही जा सकता है कि कुछ तो राहुल के नेतृत्व में किया गया था जिसकी वजह से यह विजय मिली थी भले ही यह पूरे देश के पैमाने पर नहीं किया जा सका। इसके अलावा, इसे भी नजरंदाज किया जाता रहा कि यह केवल राहुल गांधी थे जो भाजपा के खिलाफ एकतरफा और पूरी मजबूती के साथ लड़ते नजर आ रहे थे, भले ही उसका परिणाम उस रूप में न आ पाया हो। उनके समक्ष जिस तरह की चुनौतियां संघ, भाजपा और उसकी सरकार की ओर से थीं, वैसी शायद ही पूर्व के किसी कांग्रेस के नेतृत्व के समक्ष रही हों।
पत्र में राहुल गाँधी ने क्या कहा है?
इस सबका अंदाजा उनके पत्र से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने विस्तार से इनका जिक्र किया है और जिसमें वह बहुत बेबाकी से यह भी कहते हैं कि अगर पार्टी के दूसरे बड़े नेता उनके साथ खड़े होते, तो शायद हालात कुछ भिन्न जरूर होते। इसीलिए उनका सर्वाधिक जोर जवाबदेही पर रहा जिसे सबसे पहले राहुल गांधी ने ही स्वीकार किया और चुनाव परिणाम आने के साथ ही इस्तीफे की पेशकश कर दी। इस पत्र में वह कहते भी हैं कि यह भारत में एक आदत है कि कोई भी शक्तिशाली सत्ता से चिपका रहता है, सत्ता का बलिदान नहीं करता। लेकिन हम एक गहरी वैचारिक लड़ाई और सत्ता की इच्छा का त्याग किए बिना अपने विरोधियों को परास्त नहीं कर पाएंगे और एक तरह की सत्ता अध्यक्ष पद का त्याग कर दिया जो आम तौर पर अन्य पार्टियों और नेताओं में करीब-करीब नहीं दिखता। अगर राहुल चाहते तो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष बने रह सकते थे जैसा कि आदतन कांग्रेसी चाहते भी हैं। कहा जाता है कि वह यह काम भी उसी तरह कर सकते थे जैसे यूपीए के दोनों कार्यकाल में कभी भी प्रधानमंत्री भी बन सकते थे। हालांकि यह अलग मुद्दा है कि यह काम कितना आसान होता। लेकिन फिलहाल तो कोई उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाने की सोच भी नहीं सकता था। उन्होंने खुद के लिए जवाबदेही तय की और हटने की घोषणा कर दी। वर्तमान राजनीतिक हालात में यह अपने आप में कम बड़ी चुनौती का मामला नहीं है।
क्यों कठिन रहा राहुल के लिए अध्यक्ष पद?
यह ध्यान में रखने की बात है कि राहुल गांधी तब कांग्रेस का अध्यक्ष बने थे जब 2014 में कांग्रेस चुनाव हार गई थी और सत्ता से बाहर हो गई थी। इस चुनाव में भाजपा न केवल सत्ता में आ चुकी थी बल्कि आम जनता के बीच भी उसकी गहरी पैठ बन चुकी थी। इसके विपरीत कांग्रेस संगठन की हालत लगातार कमजोर होती जा रही थी। आम जनता से उसका संबंध न के बराबर रह गया था, उसका सारा वोट बैंक खिसक चुका था और पूरा नेतृत्व दिल्ली तक सिमट गया था। स्वाभाविक रूप से ऐसे माहौल में किसी भी अध्यक्ष के लिए यह काम बहुत आसान नहीं था। इसके बावजूद उन तमाम चुनौतियों को कबूल किया और पार्टी चुनावों में गई जिसमें उसे हार का सामना करना पड़ा। इस पराजय बोध ने राहुल गांधी के समक्ष जवाबदेही के सवाल को सबसे प्रमुख बना दिया।
राहुल ने किन चुनौतियों का जिक्र किया है?
राहुल
ने
अपने
पत्र
में
उन
चुनौतियों
का
भी
विस्तार
से
जिक्र
भी
किया
है
जिनसे
उनके
विरोधियों
की
असहमति
हो
सकती
है।
लेकिन
कम
से
उससे
कम
वह
एकदम
साफ
होता
है
कि
देश
के
समक्ष
कितनी
बड़ी
चुनौतियां
हैं।
अपने
पत्र
में
राहुल
इसे
इस
रूप
में
कहते
हैं
कि
‘हमारा
लोकतंत्र
बुनियादी
रूप
से
कमजोर
हुआ
है।
एक
वास्तविक
खतरा
यह
है
कि
अब
से,
चुनाव
भारत
के
भविष्य
को
तय
करने
के
बजाय
औपचारिकता
मात्र
रह
जाएंगे।
सत्ता
पर
कब्जा
करने
से
भारत
के
लिए
अकल्पनीय
स्तर
की
हिंसा
और
दर्द
होगा।
किसानों,
बेरोजगार
युवाओं,
महिलाओं,
आदिवासियों,
दलितों
और
अल्पसंख्यकों
को
सबसे
ज्यादा
नुकसान
उठाना
पड़
रहा
है।
हमारी
अर्थव्यवस्था
और
राष्ट्र
की
प्रतिष्ठा
पर
प्रभाव
विनाशकारी
होगा।'
राहुल
अपने
पत्र
में
यह
भी
कहते
हैं
कि
‘भारतीय
राष्ट्र
को
अपनी
संस्थाओं
को
पुनः
प्राप्त
करने
और
पुनर्जीवित
करने
के
लिए
एकजुट
होना
चाहिए।
इस
पुनर्जीवन
का
माध्यम
कांग्रेस
पार्टी
होगी।
इस
महत्वपूर्ण
लक्ष्य
को
प्राप्त
करने
के
लिए,
कांग्रेस
पार्टी
को
खुद
को
मौलिक
रूप
से
बदलना
होगा।'
क्या राहुल को पहले से सब पता था?
यहां तक तो सब कुछ ठीक कहा जा सकता है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी को पहले से यह सब पता नहीं था कि देश और उनकी पार्टी की क्या स्थिति है और चुनावों में क्या हो सकता है। जाहिर है राहुल गांधी को पहले से सब कुछ पता रहा होगा और अगर ऐसा मान लिया जाए, तो क्या उनकी यह पहली जिम्मेदारी नहीं थी कि वे सबसे पहले संगठन पर ध्यान देते, अपने नेताओं की जवाबदेही तय करते और ऐसा न करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करते। कहा जा सकता है कि यह काम इतना आसान नहीं था, लेकिन इसकी शुरुआत तो की ही जा सकती थी। जहां तक नुकसान की आशंका का सवाल है, वह तो पहले से ही हो रहा था और लगातार पार्टी को हार का सामना करना पड़ रहा था। राहुल गांधी को यह भी पता रहा होगा कि कैसे उनके नेतागण अपने बेटों को टिकट दिलाने और जिताने में लगे हैं। यह भी जानकारी में था उनकी पार्टी की कार्यसमिति में ऐसे नेताओं का जमावड़ा है जिन्होंने न केवल लंबे समय से चुनाव नहीं लड़ा है बल्कि काफी उम्रदराज हैं और खुद को दिल्ली में ही समेटे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार से लेकर तमाम राज्यों में संगठन नाम की कोई चीज नहीं बची है और नेतागण आपसी सिर फुटौवल में लगे रहते हैं। निश्चित रूप से यह सारा काम एक से दो साल में नहीं किया जा सकता था, लेकिन कम से कम शुरुआत तो की ही जा सकती थी। तब कम से कम कोई यह नहीं कह सकता था कि संगठन को मजबूत बनाने के लिए कुछ नहीं किया गया जिसकी अब बात की जा रही है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या नया अध्यक्ष यह सब कुछ कर सकेगा और जवाबदेही तय होने लगेगी।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)