बार बार क्यों पलट जाते हैं नीतीश कुमार?
नीतीश कुमार फिर पलट गए। अपने ही बनाए कीर्तिमान को सुधार लिया। नौ अगस्त तक सदन में विपक्ष के नेता रहे तेजस्वी यादव के समर्थन से दस अगस्त को आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री की शपथ ली। भारत की राजनीति में वह सबसे ज्यादा बार मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले मुख्यमंत्री बन गए।
पलटने में नीतीश का परफेक्शन राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए रोचक अध्याय है। इस लिहाज से विपक्ष को साथ लेकर नई सरकार का मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश कुमार का पहला बयान गौर करने वाला है। उन्होंने कहा, इतना तो कर देंगे कि 2014 में जो आए वह 2024 के आगे नहीं रह पाएंगे।
नीतीश कुमार ने पासा पलटने से पहले पार्टी सांसदों की बैठक में मौजूं सवाल किया। उन्होंने कहा, अभी भाजपा के पास 303 सांसद हैं। अगले चुनाव में 40 से 50 सांसद कम हो सकते हैं। भविष्य की इस स्थिति की कल्पना कीजिए और संभावनाओं के साथ काम पर लग जाईए।
पाला बदलने के निर्णय से ऐन पहले नीतीश कुमार ने प्रधानमत्री नरेन्द्र मोदी के दांव से बुरी तरह फंसे कांग्रेस आलाकमान से गंभीर मशविरा किया। बिहार में कांग्रेस का पूर्ण समर्थन हासिल करने के साथ कांग्रेस नेता भक्तचरण दास को दिल्ली से पटना इस संदेश के साथ भेजा गया कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के बाद आगे केंद्र में विपक्ष की राजनीति की धुरी बनाया जाएगा। वो राजी हों, तो उनको यूपीए यानी संयुक्त जनतांत्रिक गठबंधन का संयोजक बनाया जा सकता है।
यह अटल बिहारी वाजपेयी के दिनों के सफल राजनीतिक दांव का दोहराव है। तब बिखरे विपक्ष के गैर भाजपा दलों को भाजपा के हक में एकजुट करने के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए का गठन किया गया। नीतीश कुमार के सियासी गुरु रहे जार्ज फर्नांडिस एनडीए के संयोजक बने।
एनडीए संयोजक जार्ज फर्नांडीस की सधी चाल से बिहार की राजनीति में निर्विकल्प बने लालू प्रसाद यादव के अंगद के पैर को उखाड़ना संभव हुआ। नीतीश कुमार वंशवाद के खिलाफ बिगुल फूंकते हुए भाजपा की मदद से पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बन पाए। बुजुर्ग जार्ज साहब के बीमार पड़ने और दुनिया से जाने के साथ ही एनडीए की गांठ शिथिल पड़ गई।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दौर में एनडीए संयोजक विहीन है। नई भाजपा ने पर्याप्त विस्तार पाने के लिए एनडीए में बाकी दलों के महत्व को गौण कर रखा है। भाजपा का यह कड़क रुख नीतीश कुमार के पलटने की राजनीति में सहुलियत का आधार बना है। बिहार, बंगाल, ओडिशा औऱ कुछ हद तक झारखंड में भाजपा को पैर जमाने में अपने ही आजमाए साथियों से चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह तक पटना पहुंचकर नीतीश कुमार की चाल को भांप नहीं पाए और गच्चा खा गए। पहली अगस्त को पटना में भाजपा के केंद्रीय नेताओं की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खास सिपहसालार अमित शाह ऐलान कर गए कि 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा नीतीश कुमार को ही अपना चेहरा बनाकर चुनाव लड़ेगी।
दरअसल, बिहार में भाजपा आलाकमान से या तो नीतीश कुमार को समझने में लगातार सियासी चूकें होती रही हैं या फिर नीतीश कुमार को केंद्र की राजनीति में सक्रिय होने से रोकने के लिए ही गलतियां की जाती रही हैं। नीतीश कुमार के केंद्र की राजनीति में सक्रिय होने की आशंका को भांपकर ही 2014 में नरेन्द्र मोदी ने पटना से चुनाव लड़ने का इरादा छोड़ बनारस से लोकसभा पहुंचने का फैसला लिया था।
उन दिनों एनडीए में रहे नीतीश कुमार ने प्रतिकार वाली डिनर डिप्लोमेसी से नरेन्द्र मोदी के अभ्युदय में पलीता लगाने की असफल कोशिश की थी। 2002 दंगे का रोना रोते हुए उन्होंने पटना पहुंचे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ रात्रिभोज करने से इंकार कर दिया था। उससे एनडीए के अंदर खलबली मच गई थी।
हालांकि इस सियासी वैमनस्य का नतीजा भयावह रहा। प्रतिद्वंदिता का फायदा पटना में आतंकवादियों ने उठाया। पटना के गांधी मैदान की मोदी रैली में भयानक सीरियल बम विस्फोट हुआ। उसमें मारे गए लोगों के परिजनों को तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी ने निजी तौर पर मदद पहुंचाई और देवदूत की तरह उनके घरों तक पहुंचकर सांत्वना देने का काम किया। उस घटना से इस अटकल पर पूर्ण विराम लग गया कि नरेन्द्र मोदी केंद्रीय राजनीति में खुद को पटना की धरती से लांच करेंगे।
इस समय भारतीय जनता पार्टी की बिहार और ओडिशा की एक जैसी दशा है। पाटलिपुत्र और कलिंग के भाजपा कैडर एक जैसे संत्रास में हैं। दोनों राज्यों की समाजवादी पृष्ठभूमि के समव्यस्क नेता ने भाजपा के अश्वमेधी घोड़े को दो दशकों से बांध रखा है। उनके मुकाबले में भाजपा के किसी नेता का उभरकर निकल पाना मुश्किल हुआ है।
बिहार में पांच साल बाद नीतीश कुमार के एनडीए से पाला झाड़ने के बाद भाजपा के कैडरों के लिए जिन मुश्किलों से सामना की शुरुआत फिर से हुई है, उसे ओडिशा भाजपा कैडर बीते दो दशकों से निरंतर झेल रहे हैं। नीतीश कुमार और नवीन पटनायक दोनों ही भाजपा आलाकमान की मजबूरी बने हैं। उनके नीचे से कोई सुबेंदु अधिकारी या हेमंत विस्व सरमा निकलकर नहीं आ पा रहा।
यह तो संयोग है कि ओडिशा भाजपा की नेत्री रही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को समय रहते राज्यपाल बनाकर राज्य से बाहर रखकर सक्रिय बनाए रखा गया। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से वैमनस्य की गुंजाईश नहीं बनी। लिहाजा, जब राष्ट्रपति बनने की बारी आई, तो नवीन पटनायक और नीतीश कुमार दोनों ने ही मिलकर भाजपा उम्मीदवार का बेड़ा पार लगाया।
अब जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार विपक्ष की धुरी के केंद्र में पहुंच रहे हैं। उन्होंने बिहार में महागठबंधन का मुख्यमंत्री बनने साथ ही केंद्र की राजनीति में सक्रिय होने का खुला ऐलान किया है। नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल को सुशासनपूर्ण चलाने में उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का बड़ा हाथ रहा। उनको पीछे कर भाजपा ने कुल्हाड़ी खुद के पैर पर मार ली है। पांच साल बाद फिर से संघर्ष के दिन लौटे हैं पर बिहार में संघर्ष को परवान चढाने वाला खेवनहार फिलहाल नजर नहीं आ रहा।
राज्यसभा सांसद सुशील मोदी का कारोबार पांच साल से महज ट्विटर पर सिमट कर रह गया है। अपनी राजनीतिक उपयोगिता साबित रखने की चाहत में लालू परिवार के भ्रष्टाचार पर हमलावर रहा करते हैं। 2017 की एक रात जब नीतीश कुमार दोबारा एनडीए के साथ आए थे, तब उम्मीद थी कि सुशासन देने के लिए वह अपने साथी सुशील मोदी का साथ मांगेंगे। पर यह हुआ नहीं।
दो साल पहले 2020 में जब बिहार की जनता ने एनडीए को सरकार चलाने के लिए स्पष्ट बहुमत से चुनाव जिताया तब भाजपा के सधे दांव से सहयोगी नीतीश कुमार बुरी तरह घायल थे। जेडीयू के महज 44 विधायक जीत पाए नीतीश कुमार की हालत पतली हो रखी थी। मायूसी ने उनमें संन्यास भाव भर दिया। मुख्यमंत्री नहीं बनने तक की ख्वाहिश जता दी।
उनके इंकार ने भाजपा को जनता के बीच बड़प्पन का भाव प्रदर्शित करने का मौका दिया। सबसे बड़ी पार्टी ने मानमनौव्वल कर नीतीश कुमार को फिर मुख्यमंत्री की शपथ दिलवा दिया। मगर उनके साथ जातीय समीकरण के नाम पर भाजपा के जो दो उपमुख्यमंत्री लगाए गए वह बिहार के विकास में चौपटकाल की शुरुआत बनी। ऐसा भाजपा समर्थक भी दबी जुबान के कहते है। उनके मुताबिक बीते सरकार के दोनों उपमुख्यमंत्री जैसे पचासों उपमुख्यमंत्री मिल जाएं तो भी सुशील मोदी का पसगा नहीं बन सकते।
इतना ही नहीं भाजपा ने बीते विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के कद की काट छांट और एनडीए में भाजपा के मोल भाव को बढाने में रात दिन सक्रिय रहे चिराग पासवान तक से कन्नीकाट ली। बाद में चिराग को इसकी भारी कीमत पारिवारिक कलह में हुई बड़ी हार से चुकानी पड़ी। पासवान की पार्टी दो फाड़ हो गई। सारे सांसद उसे छोड़कर नीतीश कुमार की शरण में पहुंच गए।
मौजूदा जनता दल यू अध्यक्ष राजीव रंजन ऊर्फ ललन सिंह की शह पर चिराग की जगह उनके चाचा पशुपतिनाथ पारस को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। ललन सिंह की खुद की तमन्ना केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पाने की थी लेकिन तत्कालीन जनता दल यू के अध्यक्ष आरसीपी सिंह से शह मात के खेल में वह चूक गए। इसका बदला आरसीपी सिंह से जनता दल यू अध्यक्ष पद छीनकर और केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर निकलवाकर चुकाया। नीतीश के पलटने की इस बार की वजह पूर्व नौकरशाह रहे यही आरसीपी सिंह बने हैं।
जनता दल यू से जुड़े एक बड़े नेता का दावा है कि नीतीश कुमार के बारबार पलटने के पीछे ठोस वजहें हैं। मसलन वह तब उखड़े थे जब उनके बनाए मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को भाजपा ने शह देकर भड़काने का काम किया था। वह तब उखड़े थे जब बिहार में उनकी लवकुश की जोड़ी को तोड़ उपेन्द्र कुशवाहा को शह देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पहले मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री बनाकर रखा गया था। आज भाजपा की शह पर सार्वजनिक तौर पर धोखा देने वाले जीतनराम मांझी औऱ उपेन्द्र कुशवाहा उनके साथ हैं। उनके आंकलन से संभव है कि आरसीपी सिंह भी देर सवेर नीतीश कुमार की शरण में लौट आएं।
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