इंडिया गेट से: नीतीश कुमार की मोदी को चुनौती के मायने
नीतीश कुमार ने आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी है कि वह 2024 का लोकसभा चुनाव जीत कर दिखाएं। यह एक बड़ी रणनीति की ओर इशारा है। भले ही नीतीश कुमार से खार खाए बैठे प्रशांत किशोर को कोई रणनीति दिखाई नहीं देती। लेकिन वह राजनीति के इतने बड़े पंडित भी नहीं हैं कि भविष्य की राजनीति पर सटीक भविष्यवाणी कर सकें। यह तो नई राजनीति की शुरुआत है।
आगे जा कर यह राजनीति क्या मोड़ लेगी, कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता, भविष्यवाणी करना तो दूर की बात है। बिहार राजनीति में नए रास्ते दिखाता रहा है। चंपारण सत्याग्रह के बाद ही महात्मा गांधी राष्ट्रव्यापी नेता बने थे।1974 का छात्र आन्दोलन भले ही गुजरात से शुरू हुआ था, लेकिन जब वह बिहार में पहुंचा और जय प्रकाश नारायण ने बागडोर संभाली तो उस आन्दोलन ने देश की दिशा ही बदल दी थी।
नीतीश कुमार भी लालू यादव और शरद यादव की तरह जेपी आन्दोलन की ही उपज हैं। पिछले चार दशक से बिहार की राजनीति लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के इर्दगिर्द ही घूम रही है। देश भर में भारतीय जनता पार्टी का बेतहाशा विस्तार हुआ, लेकिन बिहार में अपने दम पर सत्ता में आना तो दूर अभी तक एक नंबर की पार्टी भी नहीं बन पाई है।
2015 में जब पूरे देश में मोदी लहर थी, तब लालू यादव और नीतीश कुमार ने मिल कर भाजपा को पटखनी दे दी थी। इसलिए अब जब नीतीश कुमार ने एक बार फिर लालू यादव से हाथ मिलाया है, तो मोदी को दी गई उनकी चुनौती को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
2014 की मोदी लहर में बिहार में भाजपा की सीटें 12 से बढ़ कर 22 हुई थीं । जब उस के सहयोगी एलजेपी को 6 और आरएलएसपी को तीन सीटें मिलीं थी। इस तरह एनडीए को 31 सीटें मिलीं थीं। लेकिन 2019 में जब भाजपा का नीतीश कुमार से दुबारा गठबंधन हो गया था, तो एनडीए को 40 में से 39 सीटें मिल गईं थीं। हालांकि भाजपा की सीटें घट कर 17 हो गईं थी, लेकिन जदयू 16 और एलजेपी 6 सीटें जीत गई थीं।
2020 के विधानसभा चुनाव में मोदी - नीतीश साथ थे, इसके बावजूद लालू यादव की आरजेडी सर्वाधिक 75 सीटें जीतने में कामयाब रही। इसलिए लालू - नीतीश का फिर से हुआ गठबंधन बिहार की ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी बदल सकता है। दोनों दल मिल कर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे तो भाजपा को पुरानी 12 सीटों से नीचे ला सकते हैं।
दो दशक से बिहार की राजनीति लालू और नीतीश के इर्दगिर्द घूम रही है। कुछ लोग विश्लेषण कर रहे हैं कि नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने से भाजपा के लिए बिहार में अपनी जड़ें मजबूत करने का मौक़ा है। जब किसान आन्दोलन में अकाली दल ने एनडीए छोड़ा था तो यही बात पंजाब के बारे में कही गई थी। लेकिन पंजाब के चुनाव नतीजे बताते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन के बावजूद भाजपा के सिर्फ दो विधायक जीते औए 54 उम्मीदवारों की तो जमानत जब्त हुई।
सवाल यह है कि नीतीश कुमार के इस दावे का क्या आधार है कि मोदी 2024 में सत्ता से बाहर हो जाएंगे। इस का आधार यह है कि विपक्ष की राजनीति में जो स्वीकार्यता ममता बनर्जी की नहीं हो पा रही थी, वह अब नीतीश कुमार की हो सकती है। नीतीश कुमार विपक्षी एकजुटता की धुरी बन सकते हैं। मैंने अपने पिछले लेख में भी लिखा था कि नीतीश कुमार भाजपा का दामन इस लिए छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि उन के सामने क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय गठबंधन का संयोजक बन कर राजनीति की दिशा बदलने का सपना है।
नीतीश पहले परिस्थितियों के CM थे, अब मजबूरियों के CM हैं
अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा बिहार में ही नहीं, बंगाल में भी कमजोर होगी, क्योंकि बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा के कई वरिष्ट नेता भाजपा छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए हैं। नीतीश कुमार ने हवा के विपरीत चल कर हवा का रूख बदलने का संकल्प लिया है। इसलिए वह क्षेत्रीय दलों का नया गठबंधन बनाने में कामयाब हो सकते हैं। अगर नीतीश कुमार विपक्षी एकता की धुरी बनते हैं, बिहार बंगाल के अलावा भाजपा को कई अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)