गैस त्रासदी की बरसी: हमेशा के लिए खामोश हो गई भोपाल के गैस पीड़ितों की आवाज, अब्दुल जब्बार
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल जब्बार भाई का बीते 14 नवंबर को निधन हो गया. वे भोपाल गैस पीड़ितों का चेहरा थे. 1984 में हुये भोपाल गैस कांड के सभी पीड़ितों के इंसाफ के लिये शुरू हुई उनकी लड़ाई उनके अंतिम दिनों तक निरंतर जारी रही.
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल जब्बार भाई का बीते 14 नवंबर को निधन हो गया. वे भोपाल गैस पीड़ितों का चेहरा थे. 1984 में हुये भोपाल गैस कांड के सभी पीड़ितों के इंसाफ के लिये शुरू हुई उनकी लड़ाई उनके अंतिम दिनों तक निरंतर जारी रही. इस पूरे लड़ाई से उन्होंने अपने निजी हितों को पूरी तरह से दूर रखा और अपने अंतिम समय तक शहर के राजेंद्र नगर स्थित अपने दो कमरों के पुराने मकान में ही बने रहे और दफन भी वही हुये. अपने आखिरी सालों में वे बीमारियों और "खुद्दारी के दुष्प्रभावों" से जूझ रहे थे और शायद बहुत अकेले भी हो गये थे. एक तरह से इन्साफ की इस लड़ाई के वे तनहा लड़ाका बन गये थे. लेकिन वे अपने मिशन के प्रति अंतिम समय तक बरकरार रहे और इन हालातों में भी वे दूसरों के मददगार ही बने रहे. इस दौरान भी उनकी चिंताओं की लिस्ट में भोपाल गैस पीड़ितों का इन्साफ, यादगारे-ए-शाहजहानी पार्क की हिफाज़त और देश के मौजूदा हालात ही सबसे ऊपर बने रहे.
गैस पीड़ितों की लड़ाई में तो वे अकेले पड़ ही गये थे साथ ही जब वे गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे तो लगभग आखिरी क्षणों में भी चुनिन्दा हाथ ही उनकी मदद के लिये आगे बढ़े. जिस शख्स ने अपनी पूरी जिंदगी अपने जैसे लाखों गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ते हुए बिता दी और जिसके संघर्षों के बदौलत भोपाल के गैस पीड़ितों को मुआवजा और स्वास्थ्य सुविधाएं मिली उसके जनाजे और श्रद्धांजलि सभा में शामिल होने के लिये उम्मीद से बहुत कम लोग समय निकाल सके. जिस भोपाल के लिये उन्होंने अपनी जिंदगी के करीब 35 साल संघर्ष करते हुये बिता दिये अंत में वही शहर उनके प्रति एहसान फरामोश साबित हुआ.
जब्बर भाई के फटे जूते और बीमारियां
जब्बार भाई के मौत से चंद दिनों पहले तक उनके अधिकतर जानने वालों को यह अंदाजा ही नहीं था कि उनके स्वास्थ्य की स्थिति इतनी गंभीर है. हालांकि पिछले कुछ सालों से वे लगातार बीमार चल रहे थे लेकिन फिर भी वे पूरी तरह से सक्रिय थे, इस दौरान इलाज के लिये उन्हें लगातार अस्पतालों की दौड़-भाग करनी पड़ रही थी. पिछले कुछ महीनों से वे अपने बायें पैर में हुये गैंग्रीन से परेशान थे. इसके इलाज के सिलसिले में उन्हें एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में भटकना पड़ रहा था और ठीक इलाज ना हो पाने के कारण उनकी यह समस्या बढ़ती ही जा रही थी. सबसे पहले वे कमला नेहरू अस्पपताल में भर्ती हुये. कुछ दिन यहां इलाज के बाद वे डिस्चार्ज हो गये थे, लेकिन कुछ दिनों बाद ही स्वास्थ्य की स्थिति बिगड़ने के बाद वे भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र (बीएमएचआरसी) में भर्ती हो गए, जहां डॉक्टरों की कमी और पर्याप्त सुविधाएँ ना होने के कारण उनकी स्थिति बिगड़ती गयी. अंत में हालात बदतर होने के बाद 11 नवंबर को उन्हें चिरायु अस्पताल में भर्ती कराया गया जो कि एक निजी अस्पताल है, 14 नवंबर की रात को वहीँ इलाज के दौरान उनका देहांत हो गया. बीते 25 सितम्बर को उनसे मेरी फोन पर बात हुई थी जिसमें उन्होंने खुद को गैंगरीन होने के जो कारण बताये थे उसे सुनकर हरिशंकर परसाई द्वारा 'प्रेमचंद के फटे जूते' शीर्षक से लिखे एक व्यंग्य की याद आ गयी थी. जब्बार भाई ने बताया था कि इस बार बरसात में उनके पैर में चोट लग गयी थी, इस दौरान बारिश में भी फटे जूते पहने होने कारण यह चोट घाव बन गया और अंततः गैंगरीन की नौबत बन गयी. लेकिन गैंगरीन ही उनकी अकेली समस्या नहीं थी, वे एक साथ कई गंभीर बीमीरियों से जूझ रहे थे. उन्हें दिल की बीमारी से लेकर गंभीर डायबिटीज की समस्या थी. 2017 में एंजियोग्राफ़ी से पता चला था कि उनके तीनों धमनियों में ब्लॉकेज है जिसके बाद वे बीएमएचआरसी में बाईपास सर्जरी के लिये भरती हुये थे, उस दौरान उन्होंने फेसबुक अकाउंट पर लिखा था "मुझसे यह बडी हिमाकत हुई है कि मैंने अपने बायपास के संबंध में फेसबुक पर लिखा. दोस्तों को जानकारी देने का सिर्फ इरादा भर रखता था लेकिन मैंने महसूस किया कि दोस्त बहुत दुखी हुये हैं लेकिन उनकी टिप्पणियों से मुझे बहुत हौसला अफजाई हुई है. कई दोस्तों ने तो ब्लड देने अथवा आर्थिक सहायता की भी पेशकश की है. मैं उन सब का शुक्रगुजार हूं ..मैं बताना चाहूंगा कि बीएमएचआरसी गैस प्रभावितों का ही अस्पताल है. वहां किसी भी तरह का मेरा पैसा खर्च नहीं होगा, हां ब्लड जरूर लगेगा जो आप बीएमएचआरसी ब्लड बैंक में जाकर मेरे नाम से दे सकते है." लेकिन शुगर अधिक होने के कारण उनका आपरेशन नहीं हो पाया था. बीते 13 नवम्बर की रात जब्बार भाई के मौत से एक दिन पहले चिरायु हॉस्पिटल के संचालक डाक्टर अजय गोयनका ने जब्बार भाई के स्वास्थ्य की गंभीरता बताते हुये कहा था वे एक तरह से बम पर लेटे हुये हैं जो कभी भी फट सकता है. डाक्टर गोयनका ने बताया था कि उनका डायबिटीज अपने चरम स्तर पर पहुंच गया है, उनके हृदय की तीन धमनिया पूरी तरह से ब्लाक हो चुकी थी जबकि एक धमनी मात्र दस प्रतिशत ही काम कर रही थी. पैर में गैंगरीन समस्या तो बनी ही हुई थी. उनके अंतिम दिनों में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा इलाज के लिये उन्हें मुम्बई के एशियन हार्ट इंस्टीट्यूट भेजने की तैयारी की जा रही थी.15 नवंबर की सुबह उन्हें एयर एम्बुलेंस से मुबई अस्पताल भेजने का इंतजाम किया जा रहा था लेकिन इससे पहले ही 14 नवम्बर की रात करीब 10:15 बजे उनका निधन हो गया.
भोपाल गैस पीड़ितों के संघर्ष का चेहरा
जब्बार भाई पिछले 35 सालों से भोपाल गैस पीड़ितों के लड़ाई को पूरे जूनून के साथ लड़ते आ रहे थे. वे कोई प्रशिक्षत या प्रोफेशनल सामाजिक कार्यकर्ता नहीं थे. यह उनके लिये प्रोफेशन नहीं बल्कि जीवन भर का मिशन था. वे खुद गैस पीड़ित थे. उन्होंने अपने माता-पिता और बड़े भाई को भोपाल गैस त्रासदी में खो दिया था. गैस का असर खुद उनकी आंखों और फेफड़ों पर भी हुआ था. उन्होंने अपने इस निजी क्षति के खिलाफ सामूहिक संघर्ष का रास्ता चुना और वे भोपाल गैस पीड़ितों के संघर्ष का चेहरा बन गये. वे अपने अंतिम समय तक गैस पीड़ितों के मुआवजे, पुनर्वास और चिकित्सकीय सुविधाओं के लिये मुसलसल लड़ते रहे. अभी अप्रैल 2019 में ही उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गैस पीड़ितों के लंबित पड़े मामलों पर सुनवाई के लिये मुख्य न्यायधीश के नाम 5000 से अधिक पोस्ट कार्ड भेजे थे. अपने इस संघर्ष के बूते ही वे करीब पौने 6 लाख गैस पीड़ितों को मुआवजा और यूनियन काबाईड के मालिकों के खिलाफ कोर्ट में मामला दर्ज कराने में कामयाब रहे.
स्वाभिमान का संघर्ष
जब्बार भाई के इस संघर्ष में दो बातें बहुत ख़ास थीं, बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी और इसे स्वाभिमान की लड़ाई बनाना. अपने इस संघर्ष को उन्होंने "ख़ैरात नहीं रोजगार चाहिये" का नारा दिया और संगठन का नाम रखा भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन. उनके आन्दोलन और बैठकों में मुख्य रूप से महिलाओं की ही भागीदारी होती थी और जब्बार भाई के साथ हमीदा बी,शांति देवी, रईसा बी जैसी महिलायें ही संगठन का चेहरा होती थीं. संघर्ष के साथ उन्होंने गैस पीड़ित महिलाओं के स्वरोजगार के लिये सेंटर की स्थापना की थी जिसे "स्वाभिमान" केंद्र का नाम दिया गया. वे स्वाभाविक रूप से सत्ता विरोधी थे और गैस काण्ड के बाद हर मुख्यमंत्री से उसी शिद्दत के साथ लड़े फिर वो चाहे कांग्रेस का हो या भाजपा का. वे खुद भी कहा करते थे "मैं अपने सार्वजनिक जीवन के आरम्भ से ही व्यवस्था विरोधी रहा हूँ." मध्यप्रदेश में पंद्रह सालों के बाद कांग्रेस की सरकार आने के बाद उनका यह रवैया बना रहा. सरकार गठन के कुछ महीने इन्तेजार के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ के नाम अपनी चिट्टी में वे लिखते हैं "प्रिय कमलनाथ जी आपको मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बने 6 माह से अधिक का समय बीत गया है किन्तु आपने भोपाल गैस त्रासदी पर कभी भी चर्चा नहीं की...यूनियन कार्बाइड कैंपस और उसके पीछे पड़े लगभग 2000 मेट्रिक टन घटक रसायनों को त्रासदी के 34 वर्ष बाद भी क्लीन उप नहीं किया गया है, भोपाल के रहवासियों की आपसे बहुत अपेक्षाए है कृपया इन सवालो पर गौर कीजिये".
सोच और काम का व्यापक दायरा
जब्बर भाई के संघर्ष और सरोकार का दायरा व्यापक था. उनकी चिंताओं में पर्यावरण की सुरक्षा, साम्प्रदायिक सद्भाव जैसे मसले बहुत गहराई से शामिल थे. एक तरह से भोपाल में वे जनसंघर्षों के अगुआ थे. भोपाल के पेड़ों,तालाबों और सामाजिक ताने-बाने को लेकर वे चिंतित रहते थे. भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद उन्होंने कहा था कि "भोपाल की गंगा जमुनी तहजीब के लिए सुश्री प्रज्ञा ठाकुर एक चुनौती बन गयी हैं, यह चुनाव इस बात की कसौटी पर भी लड़ा जा रहा है कि आखिर इस शहर का हिन्दू मुस्लिम एका बना रहता है या प्रज्ञा ठाकुर जैसे चरम पंथियों को वोट देकर छिन्न भिन्न हो जाता है." जैसा कि हम सब जानते हैं भोपाल इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा था और यह बात जब्बार भाई को अंदर से चुभ गयी थी.
2018 में हम लोगों द्वारा सतना जिले में हुई लिंचिंग की फैक्ट फाइंडिंग की गयी थी. जिसके बारे में पता चलने पर उन्होंने मुझे फोन करके इस रिपोर्ट को मंगावाया और इस रिपोर्ट को कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह को भेजते हुये लिखा था कि "मुख्य विपक्ष होने के नाते कांग्रेस पार्टी को इस और तत्काल ध्यान देना चाहिए. माननीय श्री अजय सिंह भी एक यात्रा सतना के आसपास के जिले में कर रहे हैं क्या उनका दायित्व नहीं बनता कि वह इस समस्या पर पहल करें. मैं नहीं जानता की आपकी पार्टी की क्या नीति है लेकिन मैं इतना जानता हूँ इस तरह की घटनाओं पर आप काफी गंभीर रहें हैं. कृपया देखिये कैसे विश्वास के वातावरण के लिए आप पहल कर सकते हैं."
अपने आखिरी महीनों में जब वे गंभीर रूप से बीमार थे तो उनकी पहली चिंता अपनी बीमारी नहीं बल्कि भोपाल के तारीखी पार्क "यादगारे शाहजहांनी पार्क" बचाने की थी जिसके अतिक्रमण के खिलाफ उन्होंने मोर्चा खोल दिया था और इसमें वे सफल भी रहे.
उन्हें बारीकी से जानने वाले इस बात को महसूस कर सकते थे कि कैसे उनकी चिंताओं में खुद से ज्यादा दूसरे होते थे. पिछले दो सालों से उनकी तरफ से महीने में कम से कम दो बार फोन आ ही जाता था. मुझे याद नहीं है कि एक भी बार किसी फोन में उन्होंने अपनी बीमारियीं या व्यक्तिगत समस्याओं के बारे में ज्यादा चर्चा की हो. सेहत के बहुत ज्यादा पूछने पर वे इसे टालने की हर मुमकिन कोशिश करते थे. फोन पर उनकी चिंताओं में मेरे बीमार पिता की सेहत, गैस पीड़ित और शहर, देश- समाज से जुड़े सरोकार ही शामिल होते थे. गैस पीड़ितों की लड़ाई उन्होंने किस निस्वार्थ तरीके से लड़ी है इसका अंदाजा उनके इलाज, घर और परिवार की स्थिति को देख कर लगाया जा सकता है. एक समाज के तौर पर हम सब के लिये यह शर्मनाक है कि लाखों लोगों के हक की लड़ाई लड़ने वाला अपने आखिरी और सबसे मुश्किल समय में अकेला था. बहरहाल जब्बार भाई का जाना भोपाल गैस पीड़ितों के संघर्ष को एक ऐसी क्षति है जिससे उबरना बहुत मुश्किल होगा. जैसा कि भोपाल के वरिष्ठ नागरिक और पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया कहते हैं "अब्दुल जब्बार के जाने से भोपाल गैस पीड़ित एक बार फिर अनाथ हो गये हैं."
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)