क्या ओवैसी इस बार उत्तर प्रदेश चुनाव में असर डाल पाएंगे ?
लखनऊ, 19 अक्टूबर। उत्तर प्रदेश में करीब 19 फीसदी वोटों के कितने तलबगार ? सपा, बसपा, कांग्रेस के बाद अब असदुद्दीन ओवैसी भी इस फेहरिस्त में शामिल हैं। ओवैसी खुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा बता रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चूंकि मुसलमानों की आबादी अधिक है इसलिए ओवैसी ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत इसी इलाके से की।
रविवार को उन्होंने गाजियाबाद के मसूरी में चुनावी सभा को संबोधित किया। इसके बाद वे 23 अक्टूबर को मेरठ के किठौर, 27 अक्टूबर को मुजफ्फरनगर में और 31 अक्टूबर को सहारनपुर में जनसभा करने वाले हैं। उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से 125 पर मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं। ओवैसी इस तथ्य को बड़े मौके के रूप में भुनाना चाहते हैं।
मुसलमानों का असली हिमायती कौन ?
"इस बार मुस्लिम भाइयों को भटकने की जरूरत नहीं है। आपके वोट की कीमत केवल मेरी पार्टी ही चुका सकेगी। पहले मुस्लिम भाइयों के पास वोट करने का विकल्प नहीं था। इस बार मेरी पार्टी है। मेरी पार्टी को अब यूपी में कोई रोकने वाला कोई नहीं है।" हैदराबाद के सांसद और एआइएमआइएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने गाजियाबाद की चुनावी सभा में उपर्युक्त बातें कहीं। ओवैसी मुसलमानों से खुल्मखुल्ला कह रहे हैं वे सिर्फ एआइएमआइएम को ही वोट करें। वह इसलिए क्यों कि यही एक पार्टी है जो सिर्फ मुसलमानों के हक की बात करती है। ओवैसी मुसलमानों को इस बात के लिए भी अगाह करते हैं कि वे दूसरी पार्टियों (सपा, बसपा, कांग्रेस) की तरफ मत भटकें। मतों के बंटवारा होने की वजह से ही कोई इनकी फिक्र नहीं करता। जाहिर है ओवैसी धार्मिक आधार पर मतों का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं। उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक-एक विधानसभा सीटों की वोटिंग ट्रेंड पर पूरा होमवर्क कर रखा है।
2017 में एक भी सीट नहीं जीत पाये थे ओवैसी
ऐसा नहीं है कि ओवैसी पहली बार उत्तर प्रदेश में मुस्लिम कार्ड खेल रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने 38 उम्मीदवार उतारे थे लेकिन एक भी जीत नहीं पाया था। ओवैसी ने उस समय भी मुसलिम भावनाओं को उभारने की भरपूर कोशिश की थी। उस समय अखिलेश यादव की सरकार थी। तब ओवैसी ने कहा था, यूपी के चुनावी इतिहास में पहली बार 69 मुस्लिम विधायक चुने गये। लेकिन जब दंगे हो रहे थे तब इनमें से किसी मुस्लिम विधायक ने सरकार पर इसे रोकने के लिए दबाव नहीं बनाया। जब हिफाजत का मसला ही हल नहीं होगा तो फिर मुस्लिम विधायकों की संख्या का क्या मतलब रह जाएगा ? लेकिन मुस्लिम वोटरों ने ओवैसी के भड़काऊ बयानों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उत्तर प्रदेश की 44 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोटरों की आबादी 40 से 49 फीसदी है। 11 विधानसभा सीटों पर इनकी आबादी करीब 50 से 65 फीसदी तक है। फिर भी ओवैसी एक सीट भी नहीं जीत पाये थे।
बंटते रहे हैं मुस्लिम वोट
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटिज के एक सर्वे के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा को 70 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे। लेकिन अन्य समुदायों के अपेक्षित वोट नहीं मिले जिससे उनका चुनावी प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा। बसपा को 10 तो सपा को केवल पांच सीटें ही मिल पायीं। बसपा के 10 सांसदों में तीन मुस्लिम ( हाजी फजलुर्रहमान, दानिश अली और अफजल अंसारी ) चुने गये थे। जाहिर है मुस्लिम वोटर अभी भी सपा और बसपा की ओर ही अधिक झुके हुए हैं। 30 अक्टूबर 1990 तो जब तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया था उससे उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फिजां बिल्कुल बदल गयी थी। मुस्लिम समुदाय मुलायम सिंह पर आंख मूंद कर भरोसा करने लगा। 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद मुस्लिम वोटर सपा के साथ और मजबूती से जुड़ गये। फिर मुस्लिम वोटरों का एक हिस्सा मायावती की तरफ झुक गया। 2007 में बसपा के 29 विधायक मुस्लिम समुदाय से थे। मायावती की प्रचंड जीत इसलिए भी मुमकिन हो सकी थी। लेकिन बसपा के साथ इनके जुड़ाव में उतार-चढ़ाव की स्थिति रही। 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 97 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। लेकिन जीत मिली थी सिर्फ चार को। जब कि दूसरी तरफ सपा के 67 मुस्लिम उम्मीदवारों में से 17 जीतने में कामयाब रहे थे। बसपा के अगर तीन मुस्लिम सांसदों को छोड़ दिया तो पार्टी में अब इस समुदाय के बड़े नेताओं का टोटा है।
फिर भी क्यों जोर लगाये हुए हैं ओवैसी
असदुद्दीन ओवैसी की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा ये है कि वे कैसे भारत के सबसे बड़े मुस्लिम नेता बन जाएं। इसलिए वे हैदराबाद से निकल कर अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने के लिए कूद पड़ते हैं। उनका मानना है कि हार से ही जीत की राह तैयार होती है। 2014 में ओवैसी ने महाराष्ट्र में 25 सीटों पर चुनाव लड़ कर 2 सीटें जीतीं थीं। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने पांच सीटें जीत कर सभी को चौंका दिया था। 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। हार और जीत की चिंता से मुक्त ओवैसी भविष्य की राजनीति गढ़ना चाहते हैं। लेकिन उनकी इस कोशिश को गैरभाजपा दल एक अलग ही चश्मे से देखते हैं। कांग्रेस, सपा, राजद और तृणमूल जैसे दल ये आरोप लगाते रहे हैं कि असदुद्दीन ओवैसी भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए उन राज्यों में भी चुनाव लड़ने आ पहुंचते हैं जहां उनका कोई आधार नहीं। इस आरोप के जवाब में ओवैसी के समर्थकों का कहना है, "अगर तथाकतित धर्मनिरपेक्ष दल वोट लेकर भी मुसलमानों को धोखा देते रहेंगे तो क्या नया अल्टनेटिव नहीं बनाया जाना चाहिए ? 2014 के लोकसभा चुनाव में तो मैं नहीं लड़ने आया था उत्तर प्रदेश ? तब फिर सपा 5 और कांग्रेस 2 पर क्यों लुढ़क गयी ? बसपा का तो खाता तक नहीं खुला था ? क्या हुआ था इनके वोट बैंक का ? क्या मुझे अपने दल के विस्तार का अधिकार नहीं ? आज नहीं तो कल लोग मेरी समझेंगे, हारजीत तो लगी रहती है।