उत्तर प्रदेश चुनाव 2017: सांप्रदायिक आधार पर वोट बांटने की होगी सभी दलों की कोशिश
उत्तर प्रदेश चुनाव में इस बार के इलेक्शन में किन मुद्दों का जोर रहेगा इस पर कई तरह की राय सामने आ रही हैं लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इन चुनावों में जोरो पर रहेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
नई दिल्ली। पांच राज्यों के साथ उत्तर प्रदेश में भी 11 मार्च को नई सरकार का ऐलान हो जाएगा। यानि गेंहू की नई फसल के आने से पहले ही नई सरकार यूपी में आ जाएगी। चुनाव आयोग ने घोषणा कर दी है। उत्तर प्रदेश में फरवरी में सात चरणों में चुनाव होंगे। हालांकि यूपी के साथ चार और राज्यों में भी चुनाव हैं लेकिन पूरे देश की निगाहें किसी प्रदेश की राजनीतिक हलचल पर टिकी हैं, तो वे यूपी है। इसकी वजह यूपी का केंद्र की राजनीति में असर भी है। उत्तर प्रदेश चुनाव में अलग-अलग पार्टी और नेता कई मुद्दों पर बात करते दिख रहे हैं लेकिन ध्रुवीकरण का दांव सभी आजमाते दिख रहे हैं।
उत्तर प्रदेश चुनाव में रहेगा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर जोर
अपने बयानों के लिए चर्चा में रहने वाले भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी हाल के दिनों में अपने कई इंटरव्यू में कह चुके हैं कि विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीते जाते अगर भाजपा को आने वाले वक्त में चुनाव जीतना है तो हिन्दुत्व के मुद्दे को भी पकड़ के रखना होगा। उनका कहना साफ है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण चुनाव जिताने के लिए जरूरी है
उत्तर प्रदेश चुनाव में मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव विकास के मुद्दे पर चुनाव में जाने की बात कह रहे हैं तो बसपा का निशाना सपा सरकार में कमजोर कानून-व्यवस्था पर रहा है। वहीं भाजपा कभी विकास, कभी सर्जिकल स्ट्राइक तो कभी हिंदुत्व, राम मंदिर या फिर गाय और लव जिहाद जैसे मुद्दे को लेकर सामने आती रही है।
उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनाव में नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक और विकास मुद्दा रहे या ना रहे लेकिन एक बात साफ लगती है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नुस्खा इस चुनाव में सौ फीसदी अपनाया जाएगा। ऐसा कहने की कई माकूल वजह भी हैं।
उत्तर प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के बाद चरम पर रहा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सपा और बसपा के उभार के साथ कम होता गया और भाजपा उत्तर प्रदेश में तीसरे नबंर की पार्टी बनकर रह गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का चमत्कारिक उभार हुआ और इसमें बड़ा हाथ यूपी का रहा।
नरेंद्र मोदी की भाषण शैली और शख्सियत के साथ-साथ जिस सीढ़ी पर कदम रखकर भाजपा ने लोकसभा चुनाव में जीत के झंडे गाड़े उनमें मुजफ्फरनगर के दंगो के बाद यूपी-बिहार में हुआ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी शामिल है।
सांप्रदायिक ध्रवीकरण का दांव भाजपा के लिए कारगर!
2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उत्तर प्रदेश में सपा सरकार की ओर से इस पर अपनी तरह से फायदा लेने की कोशिश की तो भाजपा नेताओं ने इसे बहू-बेटी की इज्जत से जोड़कर खूब भुनाया और इसमें सबसे ज्यादा कामयाब भी रहे।
मुजफ्फरनगर दंगे को पश्चिमी यूपी के भाजपा नेताओं ने जमकर भुनाया। ये प्रयोग 2014 में कामयाब रहा तो इसे बाद में भी कई बार आजमाया गया। यूपी में भाजपा विधानसभा चुनाव किस मुद्दे पर लड़ेगी, इसकी एक झलक विधानसभा के उपचुनावों में दिख चुकी है।
एक साल पहले मुजफ्फरनगर सदर सीट के लिए हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार के पोस्टर काफी चर्चा में रहे थे। इसमें मुस्लिम मुहल्लों का जिक्र कर वहां हिन्दू बहू-बेटियों के साथ छेड़छाड़ की बात लिखी गई थी और चुनाव को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की पुरजोर कोशिश की गई थी।
उत्तर प्रदेश में 400 से ज्यादा छोटी-बड़ी सांप्रदायिक विवाद की घटनाएं सपा सरकार में हुई हैं। सभी घटनाएं मीडिया में भले ही सुर्खियां ना बनी हों लेकिन स्थानीय लोग उनको नहीं भूले हैं। मुजफ्फरनगर के बाद मुरादाबाद के कांठ का मामला, बिजनौर में एक ही परिवार के चार मुस्लिम युवकों की हत्या, दादरी का अखलाक हत्याकांड और कैराना पलायन ऐसे मामले रहे हैं जिनको राजनीतिक पार्टियों ने जमकर अपने-अपने ढंग से भुनाने की कोशिश की है।
पूर्वी यूपी में भी दिख रहा है धर्म के नाम पर बंटवारा
ना सिर्फ पश्चिम यूपी बल्कि पूरब भी इस आंच से अछूता नहीं रहा है। राम मंदिर का मामला बीच-बीच में सामने आता रहता है। इलाहाबाद और आस-पास के इलाकों में भी कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनको जबरदस्ती सांप्रदायिक रंग दिया गया। इसके अलावा योगी आदित्यनाथ का प्रभाव और छवि (खासतौर से तब जब भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के तौर भी कुछ लोग उनका नाम पेश कर रहे हैं) भी गोरखपुर के आस-पास सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाएगा ही।
भाजपा चाहेगी कि चुनाव में सांप्रदायिकता एक मुद्दा रहे क्योंकि केंद्र की सरकार के पास ढाई साल में कोई ऐसी उपलब्धि नजर नहीं आ रही है जिसपर चुनाव लड़ा जा सके। वहीं उल्टा नोटबंदी ने उनकी जमकर भद्द पिटवा दी है, खुद पार्टी के सांसदों ने अमित शाह से इस बाबत अपनी पीड़ा जाहिर की है।
बसपा अध्यक्ष भी मुस्लिमों को दिखा रहीं मोदी का डर
बसपा अध्यक्ष लगातार मुस्लिमों से किसी के बहकावे में ना आने और भाजपा को रोकने के लिए बसपा वोट देने की बात कह रही हैं। इस बार उन्होंने 2012 के मुकाबले मुसलमानों को टिकट भी ज्यादा दिए हैं। साफ है वो भी चाहती हैं कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो और मुसलमान को भाजपा से डराकर वोट लिया जा सके। जिससे उनका दलित-मुस्लिम समीकरण मजबूत हो।
सपा अभी परिवार के झगड़े में फंसी है लेकिन उसका यादव-मुस्लिम समीकरण काफी पुराना रहा है और वो इसे फिर से ही आजमाना चाहेंगे। सपा मुस्लिमों और यादवों की लुभाने की कोशिश लगातार करती भी रही है। कांग्रेस एक बार फिर चौथे नबंर की ही पार्टी बनी रहेगी, इसकी पूरी संभावना नजर आ रही है। हालांकि कांग्रेस के लंबे वक्त से सत्ता से बाहर होने के चलते प्रदेश में उनको लेकर कोई नाराजगी नहीं दिखती लेकिन कोई उम्मीद भी पार्टी से अवाम को नजर नहीं आती।
पश्चिम में नहीं दिख रहा चरण सिंह के नाम का जादू
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह के बेटे अजित सिंह का जाटों, किसानों और मुस्लिमों पर एक अच्छा प्रभाव रहा है लेकिन उनका ये गठजोड़ मुजफ्फरनगर दंगे के बाद टूट गया है। आने वाले विधानसभा चुनाव में भी इस गठजोड़ के बनने के आसार नजर नहीं आ रहे। वो तो अभी तक अपने लिए गठबंधन का साथी ही नहीं तलाश पाए हैं।
उत्तर प्रदेश में करीब 19 फीसदी मुस्लिम आबादी है। जाहिर है ये आबादी अगर किसी एक पार्टी को वोट दे तो उसकी नैया पार लग सकती है। हालांकि मुस्लिम भी जाति और वर्गों में बटें हैं लेकिन सांप्रदायिक ध्रवीकरण में मुसलमान वोटर दूसरी बातें भूल भाजपा को हराने के लिए वोट करता रहा है।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इसलिए भी होता दिख रहा है क्योंकि नरेंद्र मोदी ने भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह मुसलमानों को विश्वास में लेने की कोशिश नहीं की है। वो टोपी पहनने से इंकार करते हैं, वो तीन तलाक पर जिस तरह से बात करते हैं उससे वो खुद कहीं ना कहीं अपनी पुरानी कट्टर हिन्दू नेता की छवि को ही गढ़े रहने की कोशिश करते दिखते हैं।
एक और बड़ी वजह जो यूपी चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की लगती है, वो भाजपा का मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चेहरा। ऐसी उम्मीद कम ही नजर आती है कि भाजपा किसी को अपनी सीएम कैंडिडेट बनाएगी। ऐसे में पीएम के नाम पर ही चुनाव होगा और बड़े मंच से भले विकास की बात हो लेकिन पीएम की जो गुजरात के सीएम के तौर पर छवि है, उसे भी भाजपा नेता खूब भुनाएंगे।
ओवैसी अकेले ही चुनाव को सांप्रदायिक बनाने को काफी
इन सबके साथ एक और जो बड़ी वजह यूपी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बन सकते हैं वो हैं एआईएमआईएम के असदुद्दीन औवेसी। औवेसी किसी इलेक्शन को सांप्रदायिक कर देने में उस्ताद हैं। उन्होंने हाल ही में नोटबंदी तक को हिन्दू-मुसलमान में बांट दिया तो जाहिर है यूपी इलेक्शन को भी वैसे ही बांट सकते हैं। ओवैसी कितनी सीटों पर लडे़ंगे, ये उन्होंने अभी साफ नहीं किया है लेकिन वो यूपी के इलेक्शन में अपनी आमद दर्ज कराने के लिए कमर कस चुके हैं।
ओवैसी अकेले दम पर इलेक्शन को सांप्रदायिक कर देने की ताकत रखते हैं, इसकी कई वजह हैं। वो बड़ी खूबसूरती से मुसलमानों को मोदी का डर दिखा देते हैं, ये डर इसलिए भी बनता है क्योंकि भाजपा और मोदी भी उसे निकलना नहीं चाहते है और गैरजाहिरा तौर पर ओवैसी का साथ देते दिखते हैं। दूसर बात जो औवेसी के हक में जाती है वो ये कि इससे पहले यूपी में मुसलमानों को लेकर राजनीति करने वाले मुख्तार अंसारी या पीस पार्टी के डॉ. अय्यूब सर्जन जैसे नेताओं के मुकाबले वो ज्यादा होशियार नजर आते हैं।
ओवैसी लगातार मीडिया में रहना और अपने भाषणों के जरिए लोगों के दिलों में उतरना मोदी से भी बेहतर जानते हैं। इसके साथ वो बैरिस्टर हैं और अपने कानून के ज्ञान का राजनीति में बखूबी इस्तेमाल करते हैं और काफी बेहतर तर्कों के साथ अपनी बात रखते हैं।
सोशल मीडिया पर फैल रहा जहर अपना रंग दिखाएगा ही
इन सबके अलावा सोशल मीडिया अपना काम कर ही रही है। जिस तरह से सांप्रदायिक जहर फैलाने के लिए व्हाट्सएप, फेसबुक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है। वो चुनावों में और जोर पकड़ेगा जैसा कि 2014 के लोकसभा में भी देखा गया था। और सोशल मीडिया शहरी क्षेत्रों में इलेक्शन पर तगड़ा प्रभाव डालेगा। खासकर अपुष्ट और झूठे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर भावनाएं भड़काने के लिए सोशल मीडिया आज के समय में एक बड़ा खतरा बनकर उभरा है।
कह सकते हैं कि सपा की कानून व्यवस्था पर ढीली पकड़, बसपा का मजबूती से ना उभर पाना, भाजपा नेताओं और औवेसी की बयानबाजी, कमजोर कांग्रेस और दुनियाभर में जोर पकड़ा मुस्लिम फोबिया, ये सब अगर एक बार फिर यूपी चुनाव में प्रदेशवासियों को 90 के दशक के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की याद दिला दें तो कोई हैरत की बात नहीं होगी।