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गिद्धों की तरह शिकार करती मीडियाः वुसअत का ब्लॉग

हुए बोले, ''बेटी, इस वक़्त आप कैसा महसूस कर रही हैं?"

इस वक़्त ये सब लिखते हुए मैं कैसा महसूस कर रहा हूं शायद न बता सकूं.

काश ऐसे लोगों के लिए मैं वो तमाम बुरे अल्फ़ाज़ और गालियां भी लिख सकूं जो इस वक़्त मेरे मन को छेद रहे हैं.

यक़ीन कीजिए इस दुनिया में अगर कोई चीज़ सबसे ज़्यादा महंगी और नायाब है तो वो सोना या हीरा नहीं 'कॉमन-सेंस' है.

By BBC News हिन्दी
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पाकिस्तानी मीडिया
Getty Images
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दो रोज़ पहले पाकिस्तानी पंजाब के शहर साहिवाल के क़रीब हाईवे पर एक गाड़ी में सवार सात में से चार यानी मां-बाप-बेटी और गाड़ी ड्राइव करने वाला फ़ैमिली फ़्रेंड पुलिस ने चरमपंथी होने के शक में गिरफ़्तार करने की बजाय उन्हें मार डाला.

सरकार ने जैसे कि रिवाज है तुरंत एक जांच कमेटी बना दी. अब एक और रिपोर्ट आएगी. कुछ पुलिसवाले सस्पेंड होंगे और चंद दिनों में यह मामला भी ऐसे पिछले कई मामलों की तरह इधर-उधर हो जाएगा.

मगर ऐसे मामलों में मीडिया खोज लगाने की होड़ में जिस बुरी तरह से एक्सपोज़ होती है वह भी किसी एनकाउंटर से कम नहीं.

इस ख़ानदान का एक दस साल का बच्चा और दो छोटी बहनें मरने से बच गईं. मगर मीडिया इन ज़िंदा लाशों को भी भंगोड़ने से बाज़ नहीं आई.

इन बच्चों के बड़े और समझदार रिश्तेदारों की बजाय बच्चों से पूछा जा रहा था कि

आपके मम्मी-पापा कैसे मरे...

इस वक़्त आप क्या सोच रहे हैं...

मम्पी-पापा और बहन में से कौन ज़्यादा याद आता है...

टीआरपी की दौड़

चार-पांच साल की दो छोटी-छोटी बच्चियां अस्पताल की इमरजेंसी की बेंच पर गुमसुम बैठीं थीं, उनमें से एक का हाथ गोली छू जाने से ज़ख़्मी हो गया था.

एक रिपोर्टर उसके हाथ में बंधी पट्टी छूकर कह रहा था, ''नहीं बेटा घबराने की कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा.''

क़रीब ही स्ट्रेचर पर इन बच्चियों का 10-11 साल का घायल भाई दर्द के मारे रो रहा था और पत्रकार के रूप में एक रोबोट उससे पूछ रहा था, ''बेटा क्या हुआ, आपके मम्मी-पापा को जिन लोगों ने मारा वो पुलिसवाले थे या कोई और लोग?

और वो मासूम रोते हुए बता रहा था कि किसने कैसे मारा.

लो जी उस रिपोर्टर का काम तो हो गया. उसके पास सबसे अलग फ़ुटेज आ गया अब ये बच्चे मरें या जिएं उसकी बला से, उसके चैनल को तो टीआरपी मिल ही जाएगी.

ये हटा तो कोई और माइक लेकर आ गया, वो हटा तो कोई और.

सब एक साथ सवाल पूछ रहे हैं जैसे एक साथ बहुत से गिद्ध उस शव को अपनी तेज़ चोचों से फाड़ते हैं कि जिसमें अभी कुछ जान बाक़ी है.

ये माइक्रोफ़ोन नहीं मीडिया के गिद्धों के तेज़ पंजे हैं, इन्हें कोई नहीं रोक सकता.

मीडिया
AFP
मीडिया

कॉमनसेंस की कमी

डॉक्टर या कोई नर्स या कोई गार्ड रोके तो ये ख़बर तैयार कि मीडिया के साथ अस्पताल वालों की बदतमीज़ी, मीडिया को काम करने से रोका जा रहा है.

कोई माई का लाल इनसे नहीं पूछ सकता कि ये तुम काम कर रहे हो या अपने पेशे के साथ नाइंसाफ़ी कर रहे हो.

और मीडिया का क्या रोना रोएं यहां तो हमारे दिग्गज नेता भी नहीं जानते कि दुख बांटना तो रहा एक तरफ़, दुख महसूस कैसे किया जाता है.

मुझे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री का वीडियो फ़ुटेज याद आ रहा है जो बलात्कार की शिकार एक महिला से हमदर्दी जताने बीसियों गाड़ियों और दर्जनों कैमरों के साथ इस महिला के गांव पहुंचे और उसके सिर पर बहुत हमदर्दी से हाथ रखते हुए बोले, ''बेटी, इस वक़्त आप कैसा महसूस कर रही हैं?"

इस वक़्त ये सब लिखते हुए मैं कैसा महसूस कर रहा हूं शायद न बता सकूं.

काश ऐसे लोगों के लिए मैं वो तमाम बुरे अल्फ़ाज़ और गालियां भी लिख सकूं जो इस वक़्त मेरे मन को छेद रहे हैं.

यक़ीन कीजिए इस दुनिया में अगर कोई चीज़ सबसे ज़्यादा महंगी और नायाब है तो वो सोना या हीरा नहीं 'कॉमन-सेंस' है.

वुसत के पिछले ब्लॉग पढ़िएः

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