तेल और गैस की कीमतें घटाने में क्यों नाकाम रहेगा अमेरिका?
दुनिया के सबसे बड़े तेल और गैस उत्पादक देश अमेरिका से जो संकेत मिल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि फिलहाल इसकी बढ़ती कीमतें अभी नहीं थमने वाली.
टेक्सस के तेल-गैस कारोबारी जेसन हेरिक ज़्यादा-से-ज़्यादा पेट्रोल हासिल करने की जुगाड़ में लगे हैं. उन्हें लगता कि जब पेट्रोलियम के दाम चढ़ेंगे तो मुनाफा कमाने का अच्छा मौका हाथ लगेगा. लेकिन तमाम कोशिश के बावजूद उन्हें नहीं लग रहा है इस साल भी उनकी पारिवारिक कंपनी का तेल उत्पादन बढ़ सकेगा. यह लगातार तीसरा साल होगा जब कंपनी के तेल उत्पादन में गिरावट दर्ज होगी.
पिछले कई साल से उनकी कंपनी पेनटेरा एनर्जी ने उत्पादन बढ़ाने के लिए कोई निवेश नहीं किया है. कोविड की वजह से पेट्रोल और गैस की कीमतों में भारी गिरावट आई थी. कोविड के शुरुआती दिनों में तो एनर्जी कीमतें शून्य पर पहुंच गई थी.
वह कहते हैं, '' हमारा काम ज़्यादा-से-ज़्यादा उत्पादन करना है. हम जितना कर सकते हैं कर चुके हैं. लेकिन अभी भी हम इसमें काफी पीछे हैं और लगता नहीं है कि हम उत्पादन में आई कमी की भरपाई कर पाएंगे. ''
ये दुनिया के सबसे बड़े तेल और गैस उत्पादक देश अमेरिका से मिलने वाला एक संकेत है. इसका मतलब महंगे तेल और गैस से परेशान लोगों की दिक्कतें अभी खत्म नहीं होने वाली हैं.
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महंगे तेल से राहत के संकेत नहीं
2021 की शुरुआत से ही दुनिया भर में तेल और गैस के दाम में दोगुना से भी ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है. 2020 में कोविड लॉकडाउन के दौरान इनके दाम जितनी तेज़ी से घटे थे अब उतनी ही तेज़ी से बढ़ गए हैं.
अब जैसे-जैसे तेल के दाम बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे ये अनुमान भी आने लगे हैं कि अमेरिका में तेल और गैस के उत्पादन में इस साल हर दिन दस लाख बैरल की बढ़ोतरी होगी. लेकिन ये कुल उत्पादन के दस फीसदी से भी कम होगा और बढ़ती मांग को पूरा करने में नाकाम साबित होगा.
2014 में जब तेल और गैस के दाम बढ़े तो अमेरिका में इनके उत्पादन में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी और फ्रैकिंग ( एनर्जी उत्पादन की ड्रिलिंग टेक्नोलॉजी) क्रांति भी उफान पर थी.
कंपनियां अगर उत्पादन बढ़ाने के मूड में नहीं दिख रही हैं तो उसकी वजहें हैं. तेल-गैस उत्पादन की बढ़ती लागतें, प्रमुख कच्चे माल और कर्मचारियों की कमी अहम दिक्कतें हैं.
इसके अलावा निवेशक भी ये भी पूछ रहे हैं कि दुनिया में अभी कितने तेल और गैस की ज़रूरत पड़ेगी क्योंकि पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन की चिंता में लोग जीवाश्म ईंधन का कम से कम इस्तेमाल करने पर ज़ोर दे रहे हैं.
तेल उत्खनन कंपनी लोन स्टार प्रोडक्शन के इंजीनियर माइक वेन्ड्ट का कहना है कि उनकी कंपनी के पास नए प्रोजेक्ट हैं, लेकिन इसकी ज़रूरत के हिसाब से स्टील पाइप नहीं मिल पा रहे हैं. इससे उत्पादन में देरी हो रही है और लागत बढ़ रही है.
उन्होंने कहा, ''हम जितनी जल्दी हो सके ड्रिलिंग करना चाहते हैं लेकिन हमारे पास सामान की कमी है. इस तरह की दिक्कतें तेल मार्केट का गला घोंटने जैसा है. ''
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जलवायु परिवर्तन का मुद्दा एक बड़ी दिक्कत
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में ऑयल एंड गैस एनालिस्ट ट्रे कोवन का कहना है कि उत्तरी अमेरिका में तेल कंपनियां अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना कर रही हैं.
माइक वेन्डेट् की कंपनी जैसी कोई छोटी प्राइवेट कंपनियां अभी भी उत्पादन बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. बड़ी कंपनियां तो कीमतें बढ़ने से पहले तक तो अपनी निवेश योजनाओं को ही मजबूत बनाने में अटकी हुई थीं. अतिरिक्त उत्पादन बढ़ाने की तुलना में वे अब तक के हुए ज़बरदस्त मुनाफे को शेयरहोल्डरों को ही देने में व्यस्त थीं.
ये कंपनियों के रुख़ में एक बड़े बदलाव का संकेत है. इसमें वॉल स्ट्रीट का दबाव झलकता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में एनर्जी सेक्टर का नज़रिया बदल रहा है.
एसएंडपी ग्लोबल के वाइस प्रेसिडेंट राउल ला ब्लांक का कहना है कि निवेशक कंपनियों पर लंबी अवधि के निवेश की तुलना में उनसे मुनाफा साझा करने का दबाव डाल रहे हैं. निवेशकों के इस बदले रुख की वजह है दुनिया में जीवाश्म ईंधन के प्रति लोगों का बदलता नज़रिया. जलवायु परिवर्तन के दबाव की वजह से दुनिया भर में ज़्यादा-से-ज़्यादा क्लीन एनर्जी के इस्तेमाल पर ज़ोर बढ़ रहा है.
वह कहते हैं, '' बाजार को लग रहा है कि भविष्य में पारंपरिक पेट्रोल-गैस जैसे ईंधन की मांग नहीं होगी और ये कंपनियां ऐसी ही खड़ी रहेंगी. निवेशकों को लग रहा है कि लंबी अवधि में अगर उनके शेयरों की कीमत नहीं होगी. तो इसका मतलब है कि कंपनियों को निवेशकों को अभी ही भारी डिविडेंड देना होगा. ''
ला ब्लांक का मानना है कि पेट्रोल-गैस की कीमतें अभी ऊंची बनी रहेंगी लिहाजा कंपनियां निवेश में थोड़ा-बहुत इज़ाफ़ा कर सकती हैं.
वह कहते हैं, '' जीवाश्म ईंधन के लिए पहले जैसा शानदार दौर तो नहीं होगा लेकिन फिलहाल यूक्रेन युद्ध ने तो ये साबित कर दिया है हमारी इस ईंधन में अभी भी काफी निर्भरता बनी हुई है. जीवाश्म ईंधन के बजाय दूसरे वैकल्पिक ईंधन अपनाने की बात को अभी सिरे से खारिज तो नहीं किया गया है. लेकिन इस बदलाव के लिए अब संतुलन बनाने की बात हो रही है. यानी छोटी अवधि और मझोली अवधि के लिए रणनीति बनाने पर चर्चा हो रही है.
जलवायु परिवर्तन से जुड़े वादों को पूरा करने में हिचकिचाहट?
राजनीतिक हलकों में इस पुनर्संतुलन ने तेल-गैस उद्योग में एक डर पैदा किया है. उद्योग को लग रहा है कि राष्ट्रपति जो बाइडन ने जलवायु परिवर्तन को अपने चुनाव परिवर्तन में एक अहम मुद्दा बनाया था. लिहाजा वो उत्सर्जन कम करने वाले कानूनों को लागू करने पर ज़ोर देंगे और रीन्युएबल एनर्जी का एजेंडा भी तेजी से आगे बढ़ाएंगे. हालांकि इसके लिए उनके अहम प्रस्ताव अभी अभी अटके हुए हैं और उनमें सफलता मिलने की संभावना भी कम ही दिख रही है.
रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक तेल और गैस की बढ़ती कीमतों के लिए बाइडन के पर्यावरण को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. इसके साथ उनकी अप्रूवल रैंकिंग भी गिरती जा रही है. उन्होंने अमेरिका से नैचुरल गैस निर्यात बढ़ाने, राष्ट्रीय तेल रिजर्व को रिलीज करने और एनर्जी ड्रिलिंग के सैकड़ों परमिट की मंज़ूरी देने से जुड़े सौदों पर दस्तख्त किए हैं.
ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर में रिसर्च एनालिस्ट रॉबर्ट रोज़ेंस्की कहते हैं, '' हम देख रहे हैं बाइडन प्रशासन पर्यावरण संरक्षण से जुड़े अपने पुराने वादों को पूरा करने में हिचकिचाहट दिखा रहा है ''
लेकिन पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन को लेकर सिर्फ अमेरिका के रुख में बदलाव अनोखी बात नहीं है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिसन जॉनसन समेत पश्चिमी देशों के कई नेताओं ने तेल और गैस के लिए सऊदी अरब और दूसरे तेल उत्पादक देशों से मदद मांगी है. विश्लेषकों का मानना है कि उसके पास बगैर निवश के उत्पादन बढ़ाने की क्षमता है.
अमेरिका, सऊदी अरब और रूस के बाद कनाडा चौथा बड़ा तेल उत्पादक देश है. इसने भी अपने लंबित तेल और गैस परियोजनाओं को पूरा करने के लिए बातचीत फिर शुरू कर दी है. मसलन यूरोप तक गैस पहुंचाने की परियोजनाओं पर काम शुरू करने की बात हो रही है.
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राजनीतिक पेंच
लेकिन सवाल ये है कि राजनीतिक हवा के बदलने से क्या तेल मार्केट के संदेह दूर होंगे. खास कर नए तेल-गैस टर्मिनल और पाइपलाइन जैसे एनर्जी इन्फ्रास्ट्रक्चर के खिलाफ लोगों का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उससे परियोजनाओं में वर्षों की देरी हो सकती है.
पियरेडि एनर्जी की सीईओ अल्फ्रेड सोरेनसन का कहना है कि यह पहले की मानसिकता में पूरी तरह बदलाव का संकेत है. निवेशक न मिलने की वजह से इस कंपनी ने नोवा स्कोटिया में अपने एलएनजी टर्मिनल बनाने की अपनी योजना रोक दी थी. लेकिन सरकार की ओर से और समर्थन मिलने के संकेत के बाद उसे ये फिर से शुरू कर सकती है.
पियरेडी प्रोजेक्ट के कुछ पहलुओं के खिलाफ मुकदमा करने वाले संगठन ईको जस्टिस के वकील गनवेल्डेन क्लासेन का कहना है, '' राजनीतिक नेता और उद्योग फिलहाल इस विचार को हवा दे रहे हैं कि यूरोप को तेल और गैस ही बची सकती और उन्हें ऐसा ही करना चाहिए, ''
उनका कहना है, '' हम अभी भी 20वीं सदी का समाधान लागू कर रहे हैं लेकिन हम जानते हैं कि यह कारगर साबित नहीं होने वाला है. ''
उदाहरण के लिए पियरेडी नैचुरल गैस टर्मिनल से 2027 से पहले तक गैस निर्यात नहीं की जा सकती. इसलिए मौजूदा संकट के समाधान में इसका कोई हाथ नहीं होगा.
वह कहते हैं, '' यूरोप, कनाडा और अमेरिका में ऊर्जा सुरक्षा के लिए सतत ऊर्जा स्त्रोतों को विकसित करना ही एक तरीका है. यह किया जा सकता है और इसे करना भी ज़रूरी है. ''
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