शेख़ हसीना का भारत दौरा: क्या है भारत-बांग्लादेश रिश्तों की दुखती रग?
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना अगले सप्ताह भारत दौरे पर आ रही हैं.. भारत और बांग्लादेश के बीच बीते दशक में संबंध सुधरे हैं पर अब भी कुछ ऐसे मसले हैं जो अपने हल की राह देख रहे हैं.
बांग्लादेश के गठन में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका के बाद तर्कसंगत तो यही था कि नए राष्ट्र बांग्लादेश और भारत के बीच दोस्ती गहरी होती. लेकिन बीते पचास से अधिक वर्षों के इतिहास ने इन रिश्तों में कई उतार चढ़ाव देखे हैं.
बांग्लादेश की स्वाधीनता के नायक और पहले राष्ट्रपति शेख़ मुजीबुर रहमान के कार्यकाल के दौरान दोनों देशों के बीच दोस्ती की गर्मजोशी, उनकी हत्या के बाद से धीरे-धीरे ठंडी पड़ती गई है. लेकिन शेख़ मुजीब की बेटी, शेख़ हसीना वाजिद पहली बार 1996 में जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं तो भारत-बांग्लादेश संबंध बेहतर होने लगे थे.
साल 2009 में दोबारा शेख़ हसीना प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठीं और बांग्लादेश की राजनीति और विदेश नीति को नये आयाम देने शुरू हुए.
अगले सप्ताह बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत के दौरे पर आ रही हैं और एक बार फिर से दोनों देशों के बीच कई परस्पर सहयोग के रिश्तों पर बातचीत होगी.
कुछ जानकारों का मानना है कि शेख़ हसीना की यात्रा के दौरान, आतंकवाद और सुरक्षा जैसे अहम विषय पर कुछ ठोस प्रगति दिख सकती है. जानकारों का कहना है कि इसके लिए अगर भारत को कुछ छोटे-मोटे समझौते करने भी पड़ें तो कर लेना चाहिए.
पिछले साल बांग्लादेश में फ़ेनी नदी पर बने मैत्री सेतु के उदघाटन के बाद भारत-बांग्लादेश संबंधों में एक गर्मजोशी सी है. पुल के शुरू हो जाने के बाद त्रिपुरा के सबरूम से चटगांव बंदरगाह की दूरी सिर्फ़ 80 किलोमीटर ही रह जाएगी, जिससे कारोबार और लोगों को आने-जाने में काफ़ी सहूलियत होगी.
मज़बूत धागों में बुनी विरासत
बांग्लादेश दिसंबर 1971 तक पाकिस्तान का हिस्सा था और इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था.
शेख़ मुजीबुर रहमान की अगुवाई में पूर्व पाकिस्तान में विद्रोह हुआ और एक ख़ूनी संघर्ष के बाद, बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क़ के रूप में अस्तित्व में आया. भारत बांग्लादेश को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने वाला पहला देश था.
बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत का रोल कोई छिपी बात नहीं है. पूरे संघर्ष में भारतीय योगदान ने एक निर्णायक भूमिका निभाई थी.
दोनों देशों के बीच संबंध किन्हीं आम पड़ोसियों सरीखे न होकर भाषा, संस्कृति, संगीत, साहित्य, इतिहास और कला के मज़बूत धागों में बुने हुए हैं. ये कहना ग़लत न होगा कि भारत के पूर्वी पड़ोसी के साथ सहयोग के विस्तार में दोनों ही देशों का हित जुड़ा है और दोनों ही के लिए एक फ़ायदे का सौदा है.
ये तो आदर्श स्थिति है पर हक़ीक़त में भारत-बांग्लादेश संबंध कभी उन ऊँचाइयों को नहीं छू पाए हैं जिनके शायद वो हक़दार हैं.
क्या हैं विवाद?
साल 2009 के बाद से दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग की कई मिसालें बनी हैं. पूर्वोत्तर भारत में चरमपंथी गतिविधियों पर लगाम लगाने में बांग्लादेश ने कई बार सहयोग किया है. एक ज़माने में असम में सक्रिय अलगाववादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ़्रंट ऑफ़ असम (ULFA) के बांग्लादेश के भीतर कई ठिकाने हुए करते थे.
शेख़ हसीना के पीएम बनने के बाद इन संगठनों के ख़िलाफ़ बांग्लादेश ने कार्रवाई की है और कई चरमपंथियों को भारत के हवाले भी किया है.
लेकिन अब भी कुछ विषय हैं जिनपर दोनों देश चाहकर भी कुछ विशेष प्रगति नहीं कर पा रहे हैं. इन्हीं में सबसे अहम और हाई प्रोफ़ाइल मुद्दा है तीस्ता नदी के पानी का बँटवारा.
दोनों देशों में सचिव स्तर पर इस बंटवारे को मुहर लग गई थी लेकिन बाद में बात अटक गई. साल 2011 से ये मसला लंबित है. उस वर्ष भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ढाका में तीस्ता नदी जल संधि पार हस्ताक्षर करने वाले थे लेकिन ममता बनर्जी इसपर सहमत नहीं हुई थीं.
दूसरा विषय है कि बांग्लादेश, भूटान और नेपाल के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए भारत से ट्रांज़िट रूट चाहता है. नेपाल और भूटान ऐसे देश हैं जिनका कोई हिस्सा समुद्र तट से नहीं मिलता. बांग्लादेश इन देशों को अपनी बंदरगाहों से जोड़कर, आर्थिक लाभ उठाना चाहता है.
बांग्लादेश दुनिया में पटसन का सबसे बड़ा उत्पादक है. लेकिन भारत ने पटसन पर कुछ टैरिफ़ बैरियर (शुल्क) लगा रखे हैं जिन पर बांग्लादेश को आपत्ति है.
वरिष्ठ पत्रकार गौतम लाहिड़ी कहते हैं, "भारत का तर्क है कि अगर दोनों देशों के बीच नया फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट हो जाए तो एंटी डंपिंग टैरिफ़ बेमानी हो जाएंगे. इस फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट को कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप कहा जा रहा है. तो इसका समाधान संभव है."
लेकिन जिन मुद्दों पर कोई अंतिम हल नहीं निकल पाया है उनमें प्रमुख है तीस्ता नदी के पानी का बँटवारा.
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तीस्ता पर विवाद
हिमालय के करीब सात हज़ार मीटर ऊँचे पाहुनरी ग्लेशियर से निकलने वाली 414 किलोमीटर लंबी तीस्ता नदी सिक्किम से भारत में प्रवेश करती है.
उसके बाद ये पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में दाख़िल होती है. बांग्लादेश में ये ब्रह्मपुत्र नदी से मिल जाती है, ब्रह्मपुत्र आगे जाकर पद्मा नदी से मिलती है.
गंगा नदी को बांग्लादेश में पद्मा कहते हैं. पद्मा आगे जाकर मेघना नदी से मिलती है, और मेघना नदी बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है.
केंद्र सरकार चाहती है कि भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता नदी के बँटबारे पर एक समझौता हो. इस बंटवारे के समझौते का मसौदा भी तैयार है. नौकरशाहों के स्तर पर इसे मंज़ूर भी कर लिया गया था लेकिन पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार, इसके विरोध में है.
भारत एक संघीय ढांचे वाला देश है जिसमें नदियों पर राज्यों का अधिकार है. राज्यों की सहमति के बिना केंद्र सरकार, किसी अन्य देश से कोई भी संधि नहीं कर सकती. तीस्ता नदी के पानी को बांग्लादेश के साथ साझा करने का मुद्दा काफ़ी संवेदनशील है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सार्वजनिक तौर इसका विरोध कर चुकी हैं.
साल 2017 में उत्तरी बंगाल के कूचबिहार में हुई एक जनसभा में उन्होंने कहा था, "आमि बांग्लादेश के भालोबाशि, किंतु बांग्ला तो आगे... यानी मैं बांग्लादेश से प्यार करती हूँ, पर पश्चिम बंगाल तो उनसे पहले है."
इस नदी के पानी के बंटबारे का विवाद, सिर्फ़ दो देशों के बीच विदेश नीति का ही विषय नहीं रह गया है. पश्चिम बंगाल में जब से ममत बनर्जी सत्ता में आई हैं वो इस समझौते को स्वीकार करने से इंकार करती हैं. उनके पुरज़ोर विरोध के कारण ही अब तक ये समझौता नहीं हो पाया है.
पत्रकार गौतम लाहिड़ी थोड़ा अतीत में जाकर दोनों देशों के बीच पानियों के बंटवारे पर कुछ यूँ रोशनी डालते हैं, "जब पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की सरकार थी तो उन्होंने इसपर हामी भरी थी. उन्हीं की पहल की वजह से 1996 में गंगा के पानी का बंटवारा हो गया था. लेकिन तीस्ता पर अब भी कोई सहमति नहीं बन रही है."
तीस्ता का पानी बांग्लादेश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. उसके उत्तरी इलाक़ों में पानी की किल्लत है और इसे सिक्किम के रास्ते उत्तरी बंगाल से होते हुए बांग्लादेश में प्रवेश करने वाली तीस्ता नदी ही पूरा कर सकती है. उन इलाक़ों में गर्मियों के दिनों में खेती बाड़ी के लिए पानी पूरा नहीं हो पाता है.
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पश्चिम बंगाल के विरोध की वजह
लेकिन ममता बनर्जी के मुख्यंत्री बनने के बाद पानी के बंटवारे का मुद्दा अटक गया है.
जादवपुर यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेंशन विभाग में पढ़ाने वाले शुभोजित नस्कर कहते हैं, "तीस्ता नदी संधि में दोनों देशों के अवाम को कितना फ़ायदा होगा या कितना नुकसान, इसपर विवाद है. ये सिर्फ़ दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों का मामला नहीं हो सकता है. इसमें आम लोगों की राय लेना भी ज़रूरी है. अगर आम लोगों को साथ नहीं लिया गया तो हल निकलना मुश्किल है. पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से के किसानों में ऐसे किसी समझौता का निगेटिव असर हो सकता है."
ममता बनर्जी के नज़रिए के बारे में गौतम लाहिड़ी बताते हैं, "ममता बनर्जी की राय है कि तीस्ता के पानी की उत्तरी बंगाल के किसानों को अधिक ज़रूरत है इसलिए वो कोई ऐसा कोई समझौता नहीं कर सकतीं कि सूखे के मौसम में पानी बांग्लादेश को दे दिया जाए."
अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक भी बांग्लादेश का तीस्ता के जल पर अधिकार है लेकिन भारत में राजनीति कारणों से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है. एक ज़माने में उत्तरी बंगाल के बीजेपी नेता भी तीस्ता जल संधि का विरोध करते थे.
केंद्र और राज्य में अलग-अलग राजनीतिक पार्टी के सत्तारूढ़ होने से भी इस समस्या का हल निलकता नज़र नहीं आ रहा है.
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तीस्ता के अलावा और भी नदियाँ
तीस्ता के अलावा 54 और नदियाँ हैं जो भारत से बांग्लादेश में दाख़िल होती हैं. हाल में हुई बैठकों में सात नदियों के पानी पर सहमति बनी है और आठ अन्य नदियों के बारे में डेटा इकट्ठा करने पर सहमति हुई है.
तो शायद कुल 15 नदियों पर कोई समझौता भविष्य में हो ही जाए.
लेकिन गौतम लाहिड़ी कहते हैं कि तीस्ता के जल का बंटवारा एक जज़्बाती मुद्दा बन गया है और अगर इसका हल निकलता है तो दोनों देशों के बीच 'पीपल टू पीपल' संबंधों में काफ़ी सुधार आएगा.
वो कहते हैं कि अगर दोनों देशों के लोगों में आपस में भरोसा बढ़ा तो ये भारत के हित में ही होगा.
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