अमेरिका को 'हराने' से लेकर अफगानिस्तान 'जीत' तक...जानिए तालिबान के प्रमुख नेता कौन-कौन हैं?
2001 में अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान की सत्ता से तालिबान को हटा जरूर दिया था, लेकिन अफगानिस्तान की जमीन से तालिबान को उखाड़ नहीं पाया।
काबुल, अगस्त 13: अफगानिस्तान से हारकर अमेरिका भाग चुका है और अब राजधानी काबुल में चंद अमेरिकी सेना के जवान बचे हैं, जिन्हें 31 अगस्त कर अफगानिस्तान की जमीन को खाली करना है। इस साल अप्रैल महीने के बाद अमेरिकी फौज ने अफगानिस्तान से निकलना शुरू किया था और सिर्फ 4 महीने में तालिबान ने 65 प्रतिशत से ज्यादा अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है, जिसके बाद सवाल उठ रहे हैं कि आखिर अमेरिका अफगानिस्तान में इतनी बुरी तरह से कैसे हारा? अमेरिका की नाक के नीचे तालिबान अपने नेटवर्क में विस्तार कैसे करता रहा ? आखिर तालिबान इतनी शक्तिशाली कैसे बन गया कि उसने सिर्फ 4 महीने के अंदर काबुल की जमीन को हिला दिया है? ये तमाम सवाल अमेरिका की नाकामयाबी का ढोल पीटने के लिए काफी हैं, लेकिन आईये जानते हैं तालिबान के उन नेताओं के बारे में, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि आने वाले वक्त में अफगानिस्तान की डोर उन्हीं के हाथों में होगी।
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तालिबान को हरा नहीं पाया अमेरिका
2001 में अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान की सत्ता से तालिबान को हटा जरूर दिया था, लेकिन अफगानिस्तान की जमीन से तालिबान को उखाड़ नहीं पाया। 2001 से ही तालिबान अमेरिका द्वारा काबुल में बनाए गये सरकार से लड़ रहा है और इसकी मूल में है इस्लामिक चरपंथ और मुजाहिदीन की भावना, जिसने तालिबान को रक्तबीज बना दिया है। अमेरिका के समर्थन से ही 1980 के दशक में तालिबान ने अफगानिस्तान से रूस को खदेड़ दिया था और अब इस तालिबान ने अकेले ही अफगानिस्तान से अमेरिका को खदेड़ दिया है। 1994 में तालिबान ने अफगानिस्तान में गृहयुद्ध की आग लगाई थी और 1996 में तालिबान ने ज्यादातर अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था। जहां जहां भी तालिबान का कब्जा हुआ, उन इलाकों में शरिया कानून और इस्लामी कानून को लागू कर दिया। तालिबान ने अपने एक एक विरोधियों का गला काट दिया। धार्मिक अल्पसंख्यकों को या तो मुसलमान बना दिया गया, या फिर खत्म तक दिया गया। तालिबान ने हर वो क्रूरता का काम किया, जिसे इस्लाम में हराम कहा गया है।
मुल्लाह उमर ने की थी स्थापना
जिस वक्त अफगानिस्तान में रूस ने हमला किया था, उस वक्त मुल्ला मोहम्मद उमर कॉलेज का छात्र था और उसने अमेरिका की मदद से रूस को देश से भगाने के लिए तालिबान की स्थापना की थी। अमेरिका ने मुल्ला उमर को काफी ज्यादा मदद किया। पैसे और हथियार दिए। अमेरिका से मिले पैसों और हथियार की बदलौत तालिबान का विस्तार होता गया। जो अमेरिका ईरान में आधुनिकता की वकालत कर रहा था, वही अमेरिका अफगानिस्तान में मजहब के नाम पर मुसलमानों को भड़का रहा था। अमेरिका तालिबान के जरिए कहता था कि रूस अफगानिस्तान में इस्लाम खत्म करने आया है।
अमेरिका ने घोला कट्टरता का जहर
अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस द्वारा समर्थित सरकार को तालिबान की मदद से खत्म करवा दिया और एक ऐसे समाज का निर्माण कर दिया, जिसकी रग-रग में कट्टरता उबल रही थी। अमेरिका को एक वक्त तालिबान बहुत प्यारा लग रहा था, लेकिन 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमेरिका द्वारा ही बनाए गये सऊदी अरब के आतंकी ओसामा बिन लादेन को जब मुल्ला उमर ने अमेरिका के हवाले करने से मना कर दिया, तो बौखलाया हुए अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। अमेरिकी हमले के बाद तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर छिप गया था। मुल्ला उमर का ठिकाना कितना गोपनीय था, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 2013 में मुल्ला उमर के मारे जाने के दो साल बाद उसकी मौत की पुष्टि उसके बेटे ने की थी। लेकिन, अब तालिबान फिर से अफगानिस्तान को हथियाने के कगार पर है। अब तक तालिबान अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से 11 की राजधानियों को नियंत्रित स्थापित कर चुका है।
हैबतुल्लाह अखुनज़ादा
हैबतुल्लाह अखुनज़ादा अभी तालिबान के सबसे बड़े नेताओं में से एक माना जाता है। उसे "वफादारों के नेता" के तौर पर भी तालिबान के लोग पुकारते हैं। इस वक्त हैबतुल्लाह अखुनज़ादा ही तालिबान का सबसे बड़ा नेता है और उसे इस्लाम का कानून जानकार माना जाता है, जो तालिबान के हर फैसले पर अंतिम अधिकार रखता है। अलजजीरा की रिपोर्ट के मुताबिक हैबतुल्लाह अखुनज़ादा के हाथ में ही तालिबान के राजनीति, धार्मिक और दूसरे मामलों पर अंतिम फैसला लेने का अधिकार है। अखुनजादा ने तालिबान के सर्वोच्च नेता का पदभार तब संभाला था, जब उसके पूर्ववर्ती अख्तर मंसूर को अमेरिका ने 2016 में अफगान-पाकिस्तान सीमा के पास ड्रोन से उड़ा दिया था। समाचार एजेंसी रॉयटर्स की खबर के मुताबिक हैबतुल्लाह अखुनज़ादा की उम्र करीब 60 साल है। रॉयटर्स को हैबतुल्लाह अखुनज़ादा के कुछ करीबियों ने बताया कि मई 2016 से पहले तक हैबतुल्लाह अखुनज़ादा दक्षिण-पश्चिमी पाकिस्तान के एक कस्बे कुचलक के एक मस्जिद में पढ़ाया करता था और धार्मिक उपदेश दिया करता था। हालांकि, अखुनज़ादा का ठिकाना कहां है, तालिबान के टॉप लीडर्स के अलावा किसी को नहीं पता है।
मुल्ला मोहम्मद याकूब
मुल्ला मोहम्मद याकूब, तालिबान की स्थापना करने वाले मुल्लाह मोहम्मद उमर का बेटा है और तालिबान में दूसरे नंबर की हैसियत पर है। अलग अलग खुफिया रिपोर्ट्स में कहा गया है कि मुल्ला मोहम्मद याकूब ही अफगानिस्तान में तालिबान के हर ऑपरेशन को अंजाम देता है और उसी की इजाजत से तालिबान हर कदम उठाता है। रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान पर मुल्ला मोहम्मद याकूब का पूरा कंट्रोल है और 2016 में मुल्ला मोहम्मद याकूब की जगह अखुनज़ादा को सिर्फ इसलिए चुना गया था, क्योंकि मुल्ला मोहम्मद याकूब के पास उस वक्त अनुभव की कमी थी। बताया जा रहा है कि अभी मुल्ला मोहम्मद याकूब की उम्र करीब 35 साल है और वही तालिबान का असली उत्तराधिकारी है।
सिराजुद्दीन हक्कानी
तालिबान के प्रमुख मुजाबिदीन कमांडर जलालुद्दीन हक्कानी का बेटा सिराजुद्दीन हक्कानी तालिबान के शीर्ष नेताओं में से एक है। ये हक्कानी नेटवर्क को भी संचालित करता है, जो तालिबान का सहयोगी संगठन है। ये संगठन पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर तालिबान की वित्तीय और सैन्य संपत्ति की देखरेख करता है। हक्कानी नेटवर्क को भी तालिबान की तरह ही पाकिस्तान से समर्थन प्राप्त है। इतना ही नहीं, हक्कानी नेटवर्क के आतंकियों को ट्रेनिंग देने का आरोप भी पाकिस्तान की सेना पर है। सिराजुद्दीन हक्कानी कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इसके ऊपर एक करोड़ अमेरिकी डॉलर यानि करीब 70 करोड़ रुपये का इनाम रखा गया है। (ऑरिजन तस्वीर नहीं)
आत्मघाती बम विस्फोट की शुरूआत
कुछ विशेषज्ञों द्वारा माना जाता है कि हक्कानी नेटवर्क ने ही अफगानिस्तान में आत्मघाती बमबारी की शुरुआत की थी और अफगानिस्तान में कई हाई-प्रोफाइल हमलों के लिए हक्कानी नेटवर्क को ही दोषी ठहराया गया है। जिसमें काबुल के शीर्ष होटल में भीषण बम विस्फोट, पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई की हत्या की कोशिश के तहत एक आत्मघाती बम धमाका, अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास के बाहर बम धमाकों में भी हक्कानी नेटवर्क का ही हाथ रहा है। माना जाता है कि सिराजुद्दीन हक्कानी की उम्र करीब 40 से 50 साल के बीच होगी।
मुल्ला अब्दुल गनी बरादर
तालिबान के सह-संस्थापकों में से एक नाम है मुल्ला अब्दुल गनी बरादर का। बरादर अब तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख है और उस शांति वार्ता दल का हिस्सा है, जिसे तालिबान ने दोहा में राजनीतिक समझौते की कोशिश करने के लिए भेजा था। आज भी तालिबान की तरफ से हर राजनीतिक बातचीत में मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ही हिस्सा लेता है। पिछले महीने भी ये चीन गया था, जहां इसने चीन के विदेश मंत्री के साथ साथ कई बड़े नेताओं के साथ मुलाकात की थी। तालिबान की राजनीति रणनीति क्या होगी, उसका फैसला मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ही करता है। हालांकि, अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया की कोशिश पूरी तरह से फेल रही है।
शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजिक
2001 में तालिबान के शासनकाल में शेर मोहम्मद अब्बास उपमंत्री हुआ करता था, लेकिन अमेरिकी हमले के बाद ये दोहा चला गया था, जहां ये करीब 10 सालों तक रहा था। 2015 में शेर मोहम्मद अब्बास को तालिबान के राजनीतिक कार्यालय ना प्रमुख बना दिया गया। शेर मोहम्मद अब्बास शांति प्रक्रिया में हिस्सा लेता है और कई देशों की राजनीतिक यात्राओं में तालिबान का प्रतिनिधिव्त करता है।
अब्दुल हकीम हक्कानी
अब्दुल हकीम हक्कानी तालिबान के वार्ता दल का प्रमुख है। ये तालिबान का पूर्व शेडो चीफ रहा चुका है। वहीं ये तालिबान की अदालत का प्रमुख भी है। रिपोर्ट के मुताबिक अब्दुल हकीम हक्कानी तालिबान प्रमुख अखुनजादा का काफी करीबी है।