जापान ने आज तक सुरक्षित रखी है नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थियां, जानिए क्यों नहीं लाया गया भारत?
गोपनीय दस्तावेजों में कहा गया है कि, भारत की कई सरकारों ने, जिसमें भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार भी शामिल थी, उसने अवशेषों को जापान से वापस लाने की कोशिश की, लेकिन वो कोशिश अधूरी थीं...
टोक्यों, अगस्त 18: भारत के महान क्रांतिकारी और जीनियस नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज पुण्यतिथी है और आज उनकी मत्यु के आज 77 साल पूरे हो रहे हैं। 18 अगस्त 1945 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हुई थी, लेकिन आज तक उनके अवशेष भारत वापस नहीं लाए गए। जिस देश के लिए सुभाष चंद्र बोस ने अपने प्राणों की आहूति दे दी, जिस देश के लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया, वो देश उनकी अस्थियां आज तक नहीं ला पाया है। नेताजी की पुण्यतिथि से कुछ दिन पहले, उनकी बेटी अनीता बोस ने कहा था, कि उनके अवशेषों को भारत वापस लाने का समय आ गया है और उन्होंने सुझाव दिया था, कि डीएनए टेस्ट उन लोगों को जवाब दे सकता है जिन्हें अभी भी उनकी मृत्यु के बारे में संदेह है।
नेताजी की मृत्यु पर अभी भी सस्पेंस
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, जर्मनी में रहने वाली उनकी बेटी अनीता बोस ने कहा कि, उनके पिता स्वतंत्रता मिलने की खुशी का अनुभव नहीं कर सके, लेकिन अब वक्त आ गया है, कि कम से कम उनका अवशेष भारतीय धरती पर लौट सके। ऐसा माना जाता है, कि ताइवान में एक विमान दुर्घटना में स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई थी। लेकिन, नेताजी की मृत्यु कैसे हुई, इस बाबत अभी भी रहस्य बरकरार है और अभी भी भारत सरकार ने नेताजी से संबंधित सभी गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया है। वहीं, 30 मई 2017 को सूचना के अधिकार के आवेदन के जवाब में भारतीय गृह मंत्रालय ने कहा था, कि "शाह नवाज समिति, न्यायमूर्ति जीडी खोसला आयोग और न्यायमूर्ति मुखर्जी जांच आयोग की रिपोर्टों पर विचार करने के बाद भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि 18.8.1945 को विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हो गई थी।"
कहां है नेताजी की अस्थियां?
1956 में जमा की एक विस्तृत जांच रिपोर्ट मं कहा गया कि, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को आखिरी बार जापानी लोगों के साथ देखा गया था और उस फाइल को 2016 में सार्वजनिक किया गया था। उस जांच रिपोर्ट में लिखा गया था, कि भारतीय नेता नेताजी सुभाष चंद्र बोस का ताइवान के ताइहोकू प्रान्त (वर्तमान ताइपे में) में अंतिम संस्कार किया गया था। उनके अवशेष उनके विश्वासपात्र एसए अय्यर और उनके लेख टोक्यो इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के राम मूर्ति को 8 सितंबर 1945 को टोक्यो में इंपीरियल मुख्यालय में सौंपे गए थे।
रेनकोजी मंदिर में हैं अस्थियां!
रिपोर्ट में कहा गया है कि, 14 सितंबर 1945 को नेताजी के अवशेषों को टोक्यो के पास रेनकोजी मंदिर में रखा गया था और वे आज तक वहीं रखी हैं। उनकी अस्थियों का कलश को मंदिर के पुजारी रेवरेंड क्योई मोचिज़ुकी ने प्राप्त किया था, जिन्होंने उन अस्थियों को भारत ले जाने तक राख की देखभाल करने की कसम खाई थी। हर साल, नेताजी की पुण्यतिथि पर मंदिर में इसके मुख्य पुजारी द्वारा एक स्मारक सेवा आयोजित की जाती है। इसमें दूतावास के अधिकारियों सहित प्रमुख जापानी और भारतीय नागरिक शामिल होते हैं। 2016 में भारत सरकार ने जिन गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक किया था, उसमें दर्ज रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सरकार की तरफ से रेंकोजी मंदिर में नेताजी के अवशेषों के रखरखाव के लिए भुगतान किया जाता रहा है। साल 1967 से साल 2005 के बीच भारत ने मंदिर को 52,66,278 रुपये का भुगतान किया।
क्या भारत ने अस्थियों को लाने की कोशिश नहीं की?
गोपनीय दस्तावेजों में कहा गया है कि, भारत की कई सरकारों ने, जिसमें भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार भी शामिल थी, उसने अवशेषों को जापान से वापस लाने की कोशिश की है, लेकिन सफल नहीं हुए हैं। नेताजी की फाइलें बताती हैं कि नेहरू सरकार ने 1950 के दशक की शुरुआत में बोस की अस्थियों को अपने कब्जे में ले लिया था, लेकिन उन्हें घर लाने के लिए सरकार की कोशिश फेल हो हई थी, क्योंकि नेताजी के परिवार ने उनकी मृत्यु को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद,जापानी सरकार द्वारा नई दिल्ली से संपर्क करने के लिए कई प्रयास किए गए, लेकिन उसके बाद केंद्र में ज्यादातर वक्त रही कांग्रेस की सरकार की तरफ से जापानी सरकार को कोई जवाब ही नहीं दिया गया। साल 1979 में जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे, उस वक्त एक जापानी सैन्य खुफिया अधिकारी, जिसका सुभाष चंद्र बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के साथ घनिष्ठ संबंध था, उन्होंने भारत से उनके अवशेष लेने का आग्रह किया था और भारत सरकार की तरफ से उन्हें आश्वासन दिया गया, कि एक या दो साल में इस मुद्दे पर ध्यान दिया जाएगा। लेकिन, इंडिया टूडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उसी दौरान मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई और वो अपना वादा पूरा नहीं कर पाए।
अस्थियां लाने में क्यों फेल गई सरकारें?
मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद इंदिरा गांधी फिर से भारत की प्रधानमंत्री बनीं और इस दौरान जापानी सेना के पूर्व अधिकारियों ने उन्हें सूचित किया था, कि जापान शिपबिल्डिंग इंडस्ट्री एसोसिएशन के अध्यक्ष रयोइची ससागावा ने बोस के अवशेषों को "स्थायी रूप से उनकी मातृभूमि में ले जाने" के लिए सभी खर्चों को वहन करने की पेशकश की थी। लेकिन, इंदिरा गांधी ने मामले को आगे बढ़ाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। वहीं, साल 1997 में नेताजी की जन्मशती मनाने के लिए रेनकोजी से अस्थियां वापस लाने की पीवी नरसिम्हा राव सरकार को भी खत लिखा था, लेकिन उन्होंने भी योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। उस समय उनकी बेटी अनीता बोस फाफ ने जर्मनी में तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी से मुलाकात की थी और उन्होंने कहा था कि उन्हें परिवार से परामर्श करने की जरूरत है। उन्होंने कथित तौर पर सुझाव दिया था, कि अगर बोस का परिवार और भारत में राजनीतिक दल आम सहमति तक नहीं पहुंचते हैं तो अवशेषों को जर्मनी ले जाएं। हालांकि, यह नई दिल्ली और टोक्यो दोनों को स्वीकार्य नहीं था।
गुजराल और मनमोहन सिंह ने भी किया निराश
जनवरी 1998 में आईके गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बने और उस वक्त भी सुभाष चंद्र बोस की बेटी अनीता बोस ने उन्हें एक पत्र लिखा था, जिसमें भारत सरकार से नेताजी की अस्थियों को भारत लाने का अनुरोध किया गया था। इंडिया टूडे की रिपोर्ट के मुताबिक, अनीता बोस ने जो चिट्ठी लिखी थी, उसमें भारत सरकार से गुजारिश की गई थी, कि नेताजी की अस्थियों को भारत की विभिन्न नदियों में विसर्जित कर दिया जाए और कुथ राख को देश के खेतों में मिला दिया जाए। लेकिन, गुजराल की सरकार ने उस चिट्ठी पर कोई ध्यान नहीं दिया और एक महीने बाद ही उनकी सरकार भी गिर गई। वहीं, साल 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तत्कालीन जापानी प्रधानमंत्री योशिरो मोरी के साथ नेताजी के अवशेषों को भारत में स्थानांतरित करने के संबंध में पत्रों का आदान-प्रदान किया। लेकिन उसमें से कुछ नहीं निकला।
क्या कह रहा है नेताजी का परिवार?
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, सुभाष चंद्र बोस के छोटे भाई शैलेश बोस ने 1982 में इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर अवशेषों को भारत न लाने का आदेश पारित करने की अपील की थी, क्योंकि उनका मानना था कि इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है कि अवशेष असली हैं। इसी तरह का एक पत्र तत्कालीन पीएम वीपी सिंह को नेताजी के भतीजों अशोक नाथ बोस, अमिय नाथ बोस और सुब्रत बोस ने मई 1990 में भेजा था। बोस परिवार के अधिकांश सदस्यों को विश्वास नहीं था कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में हुई थी। वहीं, नेताजी की बेटी ने 16 जुलाई 2007 को रेंकोजी मंदिर के पुजारी को भी एक चिट्ठी लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, कि "मैं अपने पिता सुभाष चंद्र बोस के अवशेषों का प्रभार लेने के लिए तैयार हूं, जिसे आपने और आपके दिवंगत पिता ने इतने अनुकरणीय अंदाज में सहेज कर पिछले कई वर्षों से रखा है। इस कार्य के प्रति आपके समर्पण के लिए मैं आपको और आपके परिवार के प्रति बहुत सम्मान और आभार व्यक्त करती हूं।" अनीता ने यह भी कहा कि वह पिता के अवशेषों पर डीएनए परीक्षण करने के लिए तैयार थी, जिसे उन्होंने पहले अनावश्यक समझा था। लेकिन, चूंकी ये मामला दो सरकारों के बीच का हो गया था, इसीलिए उन्हें अस्थियां नहीं दी गई।
किसी भी सरकार ने नहीं की कोशिश
साल 2018 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पोते और लेखक आशीष रे ने कहा कि, किसी भी सरकार ने अवशेषों को वापस लाने का प्रयास नहीं किया। अपनी पुस्तक, "लेड टू रेस्ट: द कॉन्ट्रोवर्सी ओवर सुभाष चंद्र बोस डेथ" में, उन्होंने 11 अलग-अलग जांचों के निष्कर्षों का मिलान किया और निष्कर्ष निकाला कि ताइपे में विमान दुर्घटना में स्वतंत्रता सेनानी की मृत्यु हो गई थी। साल 2018 में नेताजी के पोते ने पीटीआई से कहा था, कि "नेहरू सरकार से लेकर मोदी सरकार तक, हर एक भारतीय प्रशासन सच्चाई के प्रति आश्वस्त रहा है, लेकिन अवशेषों को भारत लाने के लिए किसी भी सरकार ने कोशिश नहीं की।"
क्या मोदी सरकार ने कुछ किया?
अब नेताजी की बेटी ने एक बार फिर दोहराया है कि, उनकी अस्थियों को भारत लाया जाए और कहा कि डीएनए टेस्ट कराया जाए। वहीं, प्रधानमंत्री बनने से पहले, पीएम मोदी ने सत्ता में आने पर नेताजी के अवशेषों को भारत वापस लाने का वादा किया था। मई 2015 की रिपोर्टों के अनुसार, पीएम मोदी अवशेषों के डीएनए परीक्षण के पक्ष में थे। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 2000 में अस्थियों को वापस लाने की इच्छा जताई थी। लेकिन, उसके बाद भी पीएम मोदी उनकी अस्थियों को भारत नहीं ला पाई, जबकि पीएम मोदी नेताजी को हर साल श्रद्धांजलि देते हैं।
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