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क्या ट्रंप की वजह से अमरीका में नस्लभेद बढ़ रहा है?

अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पर नस्लभेदी टिप्पणी करने का आरोप लगा है. लेकिन अमरीका में हालात क्या हैं?

By BBC News हिन्दी
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मार्टिन लूथर किंग जूनियर
Getty Images/AFP
मार्टिन लूथर किंग जूनियर

28 अगस्त 1963 को अफ्रीकी-अमरीकियों के नागरिक अधिकारों के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने ऐतिहासिक 'आई हैव अ ड्रीम' भाषण दिया था. इस भाषण में उन्होंने कहा था कि वह ऐसे अमरीका का सपना देखते हैं, जिसमें इंसान-इंसान में भेद न किया जाए.

मार्टिन लूथर किंग जूनियर - अफ्रीकी-अमरीकियों के साथ नस्ल के आधार पर होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व करने वाली इस शख़्सियत के जन्मदिन पर अमरीका में हर साल 15 जनवरी को 'मार्टिन लूथर किंग जूनियर डे' मनाया जाता है.

मगर इस साल इस अहम दिन से ठीक पहले अमरीका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप नस्लभेदी टिप्पणियां करने के आरोप में घिर गए. उन्हें सफ़ाई देकर कहना पड़ा कि मैं नस्लभेदी नहीं हूं. पिछले हफ्ते एक बैठक में अल सल्वाडोर और हैती को लेकर कथित तौर पर उन्होंने 'शिटहोल' शब्द इस्तेमाल किया था, जिसका मतलब गंदी और बदबूदार जगह से होता है.

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डोनल्ड ट्रंप
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डोनल्ड ट्रंप

पूरी दुनिया में इस बयान को लेकर चर्चा है. मगर बात इतनी ही नहीं है. ऐसा भी कहा जा रहा है कि जबसे ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं, अमरीका में नस्लभेदी भावनाओं में उबाल देखने को मिल रहा है. क्या वाकई अमरीका में लोगों के बीच नस्ल के आधार पर खाई बढ़ रही है?

'गहरी हैं नस्लभेद की जड़ें'

अमरीका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान वहां के हालात के बारे में कहते हैं कि अमरीका में सांस्कृतिक, आर्थिक और बुनियादी तौर पर नस्लभेद नज़र आ जाता है.

वह कहते हैं, "अफ्रीकी-अमरीकी समुदाय में अपराध ज़्यादा है और पुलिस इनके ख़िलाफ़ सख़्ती से कार्रवाई करती है. बच्चों के पास बंदूक के खिलौने होने पर गोली चला दी जाती है. पुलिस की फ़ायरिंग में सबसे ज़्यादा अफ़्रीकी-अमरीकी ही मरते हैं."

"कोर्ट केसों में भी दिखता है कि जब कम उम्र का अफ्रीकी-अमरीकी बच्चा कोई अपराध करता है तो उसे सख़्त सज़ा दी जाती है. और अगर गोरा ऐसा अपराध करे तो पहली-दूसरी बार उसे माफ़ी दे दी जाती है."

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न्यू यॉर्क में हो रहे एक प्रदर्शन की तस्वीर
Getty Images
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एक उदाहरण देते हुए वह समझाते हैं, "मैंने हाल ही में एक गोरे शख्स का भाषण सुना जिसमें उसने कहा कि अमरीका सबसे ज़्यादा रविवार को बंटा हुआ होता है. यहां ब्लैक और व्हाइट चर्च अलग होते हैं. जिन्हें अफ़्रीका से उठाकर लाया गया, वे ईसाई भी बन गए, मगर उन्हें बराबर नहीं समझा जाता."

प्रभावशाली होने पर 'गोरे' हो जाते हैं लोग

प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "यहां जो एशियाई आए हैं, चीन या भारत से, उनके ख़िलाफ़ इतना ज़्यादा नस्लभेद नहीं है. गोरों के साथ वे शादी कर रहे हैं."

वह कहते हैं कि अगर अमरीका में कोई आर्थिक और राजनीतिक आधार पर प्रभावशाली हो जाता है तो वह 'गोरा हो जाता है.'

"निकी हेली के माता-पिता अंबाला के पास से हैं मगर चुनाव पत्र में उन्होंने अपनी रेस 'व्हाइट' लिखी. इसी तरह बॉबी जिंदल ख़ुद को व्हाइट बताते हैं. यहां उत्तर भारत के लोग भी ख़ुद को रेस के आधार पर व्हाइट कहने लगे हैं कि हम आर्यन नस्ल से आए हैं."

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नस्लभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष का लंबा इतिहास

अफ़्रीका से बंधक बनाकर जहाज़ पर चढ़ाए गए लोग
Getty Images/Hulton Archive
अफ़्रीका से बंधक बनाकर जहाज़ पर चढ़ाए गए लोग

अमरीका में नस्लवाद की शुरुआत औपनिवेशिक दौर से हुई थी. गोरे अमरीकियों के अलावा सभी के साथ भेदभाव होता रहा. 17वीं सदी की शुरुआत में अफ़्रीका से लोगों को ग़ुलाम बनाकर अमरीका लाने का सिलसिला शुरू हुआ और अगले लगभग दो सौ सालों तक वस्तुओं की तरह उनकी खरीद-फरोख्त हुई.

19वीं सदी के मध्य तक हवा बदलने लगी और गोरे लोग भी बड़ी संख्या में दास प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज उठाने लगे. 1861 में गृहयुद्ध छिड़ने की यह भी वजह थी. 1865 में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने युद्ध के दौरान ही दास प्रथा को ख़त्म किया.

इसके बाद फिर लगातार संविधान में संशोधन होते रहे और धीरे-धीरे अफ्रीकी-अमरीकियों को उनके अधिकार दिए गए, लेकिन 20वीं सदी तक संविधान के प्रावधानों की अनदेखी होती रही. मगर अफ्रीकी-अमरीकियों का संघर्ष भी जारी रहा.

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Getty Images/Hulton Archive
अब्राहम लिंकन

1954 में नागरिक अधिकारों की मांग को लेकर आंदोलन तेज़ हुआ. भेदभाव के ख़िलाफ़ समाज के कई हिस्सों के लोग आगे आए.

अमरीका के लिए ओलिंपिक मे गोल्ड जीतने वाले कैसियस क्ले धर्म और नाम बदलकर मोहम्मद अली हो गए. यह आंदोलन सिविल राइट्स एक्ट 1968 बनने तक जारी रहा, जिसमें नस्ल, रंग, धर्म, लिंग और मूल राष्ट्र के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को ग़ैरकानूनी करार दे दिया गया था.

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ओबामा के राष्ट्रपति बनने से क्या बदला?

सिविल राइट्स मूवमेंट ख़त्म होने के 40 साल बाद 2008 में जब बराक ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति पद पर पहुंचने वाले पहले अफ्रीकी-अमरीकी बने, तब उम्मीद जताई जाने लगी थी कि अब नस्लवाद शायद खत्म हो जाएगा. मगर क्या ऐसा हो पाया?

वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं कि ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर उम्मीद की जा रही थी कि चीज़ें बदलेंगी, मगर ऐसा नहीं हुआ. उनका कहना है कि ट्रंप के आने के बाद तो हालात और भी ख़राब हो गए हैं.

वह कहते हैं, "पूरी दुनिया में इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गई है कि क्या अमरीका में नस्लवाद बढ़ रहा है. अगर अमरीकी राष्ट्रपति अफ्रीकी और कैरेबियाई देशों को शिटहोल कहे तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है."

प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान मानते हैं कि जब बराक ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति बने थे, गोरे लोगों का वर्चस्व चाहने वालों को यह डर सताने लगा था कि अमरीका उनके हाथ से निकल जाएगा.

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बराक ओबामा
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वह कहते हैं, "जब बराक ओबामा जीते थे तो विचार आया था कि अब रेसिज़्म खत्म हो गया. मगर उनके जीतने पर यह नारा चलने लगा - डूड, व्हेयर इज़ माइ कंट्री. यानी मेरा देश कहां है, मेरा देश मुझे वापस दो."

"ओबामा के चुनाव जीतने के बाद पहले अटॉर्नी जनरल एरिक होल्डर ब्लैक थे, कॉलिन पावल से लेकर कोंडोलीज़ा राइस तक ब्लैक थे. इससे अमरीका में कम पढ़े-लिखे गोरे डर गए कि उनके हाथ से देश निकल रहा है. "

डॉनल्ड ट्रंप इस बहस में कहां हैं?

वॉइस ऑफ अमरीका को पुलिस से मिले आंकड़े बताते हैं कि 2017 में लगातार तीसरे साल अमरीका के बड़े शहरों में यहूदियों, मुसलमानों, काले लोगों और एलजीबीटी समुदाय के लोगों पर हमले बढ़े हैं.

ऐसे में सवाल उठता है कि अमरीका में डॉनल्ड ट्रंप के अभियान की वजह से नस्लभेदी भावनाएं बढ़ीं हैं या फिर इन भावनाओं के बढ़ने के कारण ही ट्रंप की राष्ट्रपति चुनाव में जीत हुई है. प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं इस सवाल का जवाब ढूंढना उतना ही आसान है, जितना यह तय करना ही पहले मुर्गी आई या अंडा.

वो कहते हैं, "चुनाव प्रचार के दौरान अपने पहले भाषण में ही ट्रंप ने मेक्सिकन समुदाय पर निशाना साधा. अमरीका में 13 प्रतिशत लोग स्पैनिश बोलते हैं. उन सभी को उन्होंने रेपिस्ट तक कहा. फिर कहा कि मुसलमानों को अमरीका से बैन कर दिया जाएगा. फिर राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने उन अफ़्रीकी-अमरीकी फ़ुटबॉल खिलाड़ियों के लिए गंदी गाली इस्तेमाल की जो पुलिस क्रूरता का विरोध कर रहे थे. वो अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वग्रहों से भरी बातें करते हैं."

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डोनल्ड ट्रंप
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डोनल्ड ट्रंप

प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि भारतीय समुदाय से मदद पाने के बावजूद ट्रंप ने एक भारतीय पर हुए नस्लभेदी हमले की निंदा नहीं की थी.

"भारतीय समुदाय ने ट्रंप को बहुत पैसे दिए. हिंदू समुदाय से ट्रंप को पैसे भी मिले और करीब 80-85 फ़ीसदी वोट भी मिले. मगर उनके चुने जाने के बाद गोरे लोगों का वर्चस्व चाहने वालों ने पहला हेट क्राइम किया तो भारतीय कंप्यूटर साइंटिस्ट को मारा. इसके बाद छह हफ़्तों तक भारतीय लॉबी और मीडिया के बार-बार कहने के बावजूद ट्रंप ने गोरे नस्लवादियों की हरकत की निंदा नहीं की."

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क्या ट्रंप की ख़ामोशी नस्लभेद को बढ़ावा देती है?

नफ़रत भरे अपराधों और हरकतों पर ट्रंप का ख़ामोश रहना क्या नस्लवादी विचारधारा रखने वालों को उकसा रहा है? क्या इस तरह की चुप्पी ख़तरनाक होती है? आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं कि भारत का उदाहरण लेकर इस बात को समझा जा सकता है.

वो कहते हैं, "भारत के संविधान में चीजें बराबर हैं मगर भेदभाव, जातिवाद, रंगभेद... ये सब हमारी सोच में रच-बस गए हैं. बहुत कोशिश करने पर ही यह सोच दूर होती हैं. लेकिन जब देश में इस सोच के अनुकूल माहौल मिल जाता है तो ये सारी प्रवृतियां उभरकर सामने आ जाती हैं."

व्हाइट सुप्रीमेसिस्ट रैली
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व्हाइट सुप्रीमेसिस्ट रैली

आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं "जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने सांप्रदायिकता, भेदभाव, अंधविश्वास को बढ़ावा देना शुरू किया तो मीडिया का एक हिस्सा उसी के साथ चला गया और लोगों के अंदर वही प्रवृतियां उभरने लगीं. इंसान के अंदर प्रवृतियां दोनों अंदर होती हैं, उनसे लड़ना पड़ता है. जैसे ही किसी प्रवृति के लिए सही जलवायु मिलती है, अगर सत्ता उसके लिए उपयुक्त आबो-हवा मुहैया करवाती है, वे उभर आती हैं. यही स्थिति अमरीका में हो दिख रही है."

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अमरीका में नस्लभेद उभरने के कारण क्या हैं?

क्या अमरीका में भी नस्लभेदी सोच को मौजूदा प्रशासन से हवा मिल रही है? क्या कारण हैं कि वहां पर हेट क्राइम बढ़ रहे हैं? प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं ट्रंप प्रशासन में कुछ लोग ऐसे हैं जिनका संबंध वाइट नैशनलिज़्म से है. साथ ही अमरीका में नस्लीय अनुपात तेज़ी से बदलने के कारण गोरे समुदाय में अपना वर्चस्व खोने का डर भी देखा जा रहा है.

वह कहते हैं, "उनके प्रशासन में अभी स्टीवन मिलर हैं और पहले स्टीव बैनन थे, इनका संबंध वाइट नैशनलिज़्म से है. दूसरी बात यह है कि अमरीका में नस्लीय अनुपात तेजी से बदल रहा है. अंदाज़ा लगाया गया है कि 2050 तक गोरा समुदाय अल्पसंख्यक बन जाएगा, जो अभी 60 प्रतिशत है. इसलिए वो लोग डर रहे हैं कि हमारी ताकत और आर्थिक प्रभाव ख़त्म हो जाएगा."

ट्रंप की टिप्पणियों के खिलाफ प्रदर्शनों का दौर जारी है
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ट्रंप की टिप्पणियों के खिलाफ प्रदर्शनों का दौर जारी है

"अमरीका में धार्मिक समुदायों में देखें तो सबसे अमीर और पढ़ा-लिखा समुदाय हिंदू समुदाय है. राष्ट्रीयता के आधार पर भारतीय इस मामले में आगे हैं, फिर चीनी. गोरा समुदाय ना तो सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा है और ना ही सबसे अमीर है. उनके पास जो संपत्ति है, वह सिर्फ़ विरासत में मिली संपत्ति है. ऐसे में गोरा समुदाय डर रहा है."

गोरे समुदाय में बढ़ती असुरक्षा की भावना

प्रोफ़ेसर मुक्तर ख़ान बताते हैं कि अमरीका में अंदर भी आबादी इधर से उधर हो रही है. गोरे लोग शहरों से उपनगरीय इलाकों की तरफ जा रहे हैं वहीं अफ्रीकी-अमरीकी और अन्य आर्थिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक शहरों का रुख कर रहे हैं. इसी तरह से गोरे लोग कैलिफ़ोर्निया से अन्य राज्यों में जा रहे हैं.

वह बताते हैं, "कैलिफोर्निया अमरीका का सबसे बड़ा राज्य है और यहां गोरे अल्पसंख्यक हो गए हैं."

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भविष्य क्या है?

गोरे अतिवादियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
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गोरे अतिवादियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन

प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं कि अमरीका आने वाले 10-15 साल में 'आइडेंटिटी क्राइसिस' महसूस करेगा. यह मुल्क पूरी तरह पहला वास्तविक बहुसांस्कृतिक राष्ट्र बन जाएगा और इसमें सबसे संभ्रांत समुदाय में गोरे नहीं होंगे.

वह कहते हैं, "गोरे लोग अल्पसंख्यक हो जाएंगे और उन्हें इस मुल्क में ख़ुद को ढालना होगा. यह उनके लिए मुश्किल होगा, मगर राष्ट्र के तौर पर अमरीका के लिए मुश्किल नहीं होगा. अमरीका की अर्थव्यवस्था फलती-फूलती रहेगी क्योंकि विभिन्न प्रवासी इसे और समृद्ध बनाएंगे. देखना है अमरीका का लोकतंत्र इस चुनौती को किस तरह से झेल पाता है. "

अमरीका में अगर नस्लभेद का लंबा इतिहास रहा है तो इसके खिलाफ़ लड़ाई का भी लंबा इतिहास है. अमरीका में हर समुदाय के लोगों ने नस्लभेद के ख़िलाफ़ समय-समय लड़ाई लड़ी है. आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं, नस्लभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष की विरासत का ही नतीजा है कि आज ट्रंप के बयानों का विरोध हो रहा है.

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आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं, "जो लोग राष्ट्रपति चुनाव के समय ट्रंप के समर्थक थे, वो भी आज उनका विरोध कर रहे हैं. नस्लभेद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने से लोगों के अंदर नस्लभेद विरोधी मानसिकता तो बनी है. उसी का नतीजा है कि आज ट्रंप को थोड़ा बैकफ़ुट पर जाना पड़ा है."

"ट्रंप को कहना पड़ा है कि मैं रेसिस्ट नहीं हूं. यह नस्लभेद के ख़िलाफ़ चली लड़ाई का ही तो नतीजा है कि इस तरह की सोच बनी है. अगर कोई अंदर से नस्लभेदी हो, तो भी वह आज ख़ुद को नस्लभेदी नहीं कहलाना चाहेगा."

नस्लवाद यानी अपनी नस्ल या जाति को किसी दूसरी से बेहतर समझना. यही सोच पूर्वग्रहों और भेदभाव यानी नस्लभेद को जन्म देती है.

इंसान-इंसान के बीच फ़र्क पैदा करने वाली इस सोच के आरोप आज अमरीकी राष्ट्रपति पर लग रहे हैं, मगर असल में यह सोच पूरी दुनिया में अलग-अलग रूपों मे मौजूद है. और इसे ख़त्म करने के लिए अभी बहुत प्रयास करने होंगे.

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English summary
Is racialism increasing in the United States due to trump
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