यमन के अखाड़े में ईरान और सऊदी का मुक़ाबला
ईरान और सऊदी अरब के बीच तल्ख़ी का ख़ामियाज़ा यमन क्यों भुगत रहा है?
यमन मध्य पूर्व के सबसे ग़रीब देशों में गिना जाता है. यहां सत्ता के लिए जारी संघर्ष में शामिल सशस्त्र गुटों ने एक-एक करके अपने खेमे और दोस्त बदले. इन सबके बीच कथित जिहादी संगठनों को भी यमन में अपना असर बढ़ाने का मौका मिला.
ज़मीन पर मार्च, 2015 से यमन में जो ताक़तें लड़ रही हैं, उनमें राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी की सेना है, हूथी विद्रोहियों के लड़ाके और उनका साथ दे रहे गुट शामिल हैं. राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी की सत्ता को अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल है.
यमन के मोर्चे पर सऊदी अरब के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की सेना भी है जो हूथी विद्रोहियों से मुकाब़ला कर रही है. सऊदी नेतृत्व को ये लगता है कि हूथी विद्रोहियों को ईरान से हथियारों की मदद मिल रही है. इसी हफ़्ते पूर्व राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह ने सऊदी गठबंधन के साथ बातचीत की पेशकश की थी.
सालेह हूथी विद्रोहियों के साथ लड़ रहे थे और उन्हें यमन के संघर्ष की शुरुआत करने वाले लोगों में गिना जाता था. लेकिन बातचीत की उम्मीदें सोमवार को उस वक्त खत्म हो गईं जब सालेह एक भीषण लड़ाई में मारे गए. सालेह की मौत उन्हीं हूथी विद्रोहियों के साथ संघर्ष में हुई जो कल तक उनके साथी रहे थे.
हूथी विद्रोही अब सालेह को एक गद्दार के तौर पर देखने लगे थे. यमन के संघर्ष पर बीबीसी की विशेष पड़ताल.
कैसे शुरू हुई यमन की लड़ाई
यमन के संघर्ष की जड़ें साल 2011 में हुई अरब क्रांति में खोजी जा सकती हैं. इसी अरब क्रांति की लहर में तत्कालीन राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह को सत्ता छोड़नी पड़ी और यमन की कमान उनके उपराष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी के हाथ में आ गई.
शुरू में ये माना गया कि सत्ता में बदलाव से यमन में राजनीतिक स्थिरता बढ़ेगी लेकिन हक़ीकत में ये नाकाम रहा. इसके साथ ही यमन में एक अजीब तरह का सत्ता संघर्ष शुरू हो गया जिसमें एक तरफ़ पूर्व राष्ट्रपति सालेह की फौज थी तो दूसरी तरफ़ मौजूदा राष्ट्रपति हादी की सेना, एक मोर्चा हूथी विद्रोहियों ने भी खोल रखा था.
यमन पर 30 साल तक हुकूमत करने वाले सालेह ने बाद में राष्ट्रपति हादी को यमन की राजधानी सना से खदेड़ने के लिए हूथी विद्रोहियों से हाथ मिला लिया. 2014 से सालेह की फौज और हूथी विद्रोहियों का सना पर नियंत्रण बना हुआ था लेकिन इस साल दिसंबर की शुरुआत में ही ये गठबंधन बिखर गया और इसका नतीज़ हुआ सालेह की मौत.
हूथियों के पास कितनी ताक़त?
हूथी विद्रोही यमन के अल्पसंख्यक शिया ज़ैदी मुसलमानों का नुमाइंदगी करते हैं. साल 2000 के दौरान हूथी विद्रोहियों ने तत्कालीन राष्ट्रपति सालेह की फौज के ख़िलाफ़ कई लड़ाइयां लड़ीं. लेकिन इनमें से ज़्यादातर संघर्ष उत्तरी यमन के पिछड़े सूबे सादा की सरहदों तक ही सीमित रहे.
लेकिन जब हूथियों को सत्ता से बाहर किए गए सालेह की फौज का साथ मिला तो सितंबर, 2014 में राजधानी सना पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया. यहां से वे यमन के दूसरे सबसे बड़े शहर आदेन की तरफ़ आगे बढ़ने लगे.
हूथी विद्रोहियों के बढ़ते असर की वजह से साल 2015 में सऊदी अरब ने राष्ट्रपति हादी की सरकार को ताकत देने के लिए सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी. सऊदी अरब का मानना है कि हूथी विद्रोहियों को क्षेत्र के शिया बहुल देश ईरान से समर्थन मिलता है. ईरान से सऊदी अरब के रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं.
सऊदी गठबंधन ईरान पर हूथियों का साथ देने का आरोप लगाता है और उनका कहना है कि तेहरान ऐसा अरब जगत पर अपना असर बढ़ाने के लिए कर रहा है. इसमें यमन भी एक है और सऊदी अरब की लंबी सीमा यमन से लगती है.
सऊदी अरब के साथ कौन-कौन?
सऊदी नेतृत्व वाले गठबंधन का लक्ष्य यमन में हूथी विद्रोहियों को हराना है. इस गठबंधन में ज्यादातर अरब जगत के सुन्नी बहुल देश हैं. इसमें क़तर, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मिस्र और जोर्डन हैं. इनके अलावा मोरोक्को, सूडान और सेनेगल में इस गठबंधन सेना का हिस्सा हैं.
इनमें से कुछ देश केवल हवाई हमलों में हिस्सा लेते हैं लेकिन कुछ देशों ने ज़मीनी मोर्चे पर भी लड़ने के लिए अपनी फौज भेजी है. सऊदी अरब के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय गठबंधन सेना को अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस से भी इंटेलिजेंस और अन्य सैनिक सहायता मिलती है.
अमरीका सेना भी यमन में अल-कायदा और खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले चरमपंथी संगठन के ठिकानों पर नियमित रूप से हवाई हमले करती रही है. इस साल की शुरुआत में अमरीकी सरकार ने यमन में स्पेशल फोर्सेज की एक छोटी टुकड़ी तैनात करने की बात स्वीकार की थी.
हालांकि ईरान अपनी तरफ़ हूथी विद्रोहियों को किसी तरह की मदद देने की बात से इनकार करता है लेकिन साल 2016 में अमरीकी सेना ने बताया कि ईरान से यमन भेजे गए हथियारों का बेड़ा दो महीने में तीसरी बार पकड़ा गया है. ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि ईरान ने हूथी विद्रोहियों को मदद देने के लिए अपने सैनिक सलाहकार यमन भेजे हैं.
यमन के अखाड़े में ईरान और सऊदी का मुक़ाबला
अब तक क्या हुआ?
जनवरी, 2015 में हूथियों ने सना पर अपना कंट्रोल और मजबूत कर लिया. उन्होंने राष्ट्रपति भवन और दूसरे प्रमुख केंद्रों की घेराबंदी कर दी. हालात ऐसे बन गए कि राष्ट्रपति हादी घर में नज़रबंद हो गए. एक महीने बाद राष्ट्रपति हादी आदेन भाग गए और हूथी और सालेह की फौज पूरे देश पर नियंत्रण के लिए लड़ रहे थे.
हादी 2015 में यमन छोड़कर चले गए. सऊदी अरब के सैनिक हस्तक्षेप करने ढ़ाई साल के बाद दोनों पक्ष मोर्चे पर डटे हुए हैं. इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने भी यमन में स्थिरता बहाली के लिए कोशिशें शुरू कीं लेकिन इनका कोई सार्थक नतीज़ा नहीं निकला.
हाल के महीनों में हादी समर्थक फौज़ कबायली लड़ाकों और सुन्नी अलगाववादियों के साथ आदेन में हूथी विद्रोहियों को आगे बढ़ने से रोके हुए हैं. अगस्त में सऊदी अरब के नेतृत्व वाली सेना आदेन पर नियंत्रण हासिल कर लिया और इसके साथ ही यमन के दक्षिणी इलाकों से हूथी विद्रोहियों को खदेड़ दिया गया.
इस बीच अल-कायदा के चरमपंथियों ने यमन में जारी संघर्ष के बीच हालात का फायदा उठाने का मौका मिल गया. उन्होंने भी हादी समर्थक सेना के ख़िलाफ़ अपने हमले जारी रखे हुए हैं. लेकिन हूथियों का सना और दक्षिणी शहर ताइज़ पर नियंत्रण बरकरार है और वे वहां से सऊदी अरब की सीमा पर मिसाइल और रॉकेट हमले कर रहे हैं.
हूथियों और सालेह के बीच दूरियां कैसे बढ़ीं
बीते कुछ महीनों से हूथियों और सालेह समर्थकों के नाजुक गठबंधन के बीच दूरियां बढ़ने की कई रिपोर्ट्स आई हैं.
दिसंबर महीने की शुरुआत से साना में हिंसा की घटनाएं हुईं.
दो दिसंबर को सालेह टीवी पर सऊदी गठबंधन का ऐलान करने के लिए दिखाई दिए. उन्होंने संदेश दिया कि वो दोनों के बीच बातचीत शुरू करने और नई शुरुआत करने के पक्ष में हैं.
इस प्रस्ताव को सऊदी की तरफ से सकरात्मक रूप से लिया गया लेकिन सालेह पर गद्दारी का आरोप लगाने वाले हूथियों को ये नागवार गुज़रा. हूथियों ने सऊदी अरब के नेतृत्व वाले इस गठबंधन के ख़िलाफ लड़ाई जारी रखने का फ़ैसला किया.
बीबीसी अरबी सेवा के पत्रकार एडगार्ड जल्लाड बताते हैं, ''ये हैरानी भरा नहीं है. सालेह का इतिहास रहा है कि वहां के नेता कुछ सेंकेंड्स में अपने हितों को देखते हुए पाला बदलने में देर नहीं लगाते हैं.''
वो बताते हैं, ''गठबंधन की शुरुआत में सालेह और हूथियों का गठबंधन काफी नाजुक था. यहां ये बात भी ध्यान रखने वाली है कि अतीत में सऊदी का दोस्त भी रहा है.''
जानकारों का मानना है कि सालेह की मौत के बाद इस क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा और संकट को खत्म करने की गुंजाइश कम होंगी.
इस संघर्ष में सबसे ज्यादा नुकसान में नागरिक रहे हैं. यहां हुई बमबारी में अब तक 8600 लोगों की जान जा चुकी है.