'चलो दुबई चलें' में भारतीय अब भी सबसे आगे
संयुक्त अरब अमीरात में आने भारतीय मूल के लोगों की संख्या 28 लाख के करीब है.
अभी हाल ही में क़तर और सऊदी अरब में रिश्ते बिगड़ने के कारण हज़ारों भारतीय मज़दूरों को नौकरियां गंवानी पड़ी.
लेकिन संयुक्त अरब अमीरात पर इसका ज़्यादा असर नहीं पड़ा. एक ज़माने में "चलो दुबई चलें" का मतलब होता था - दुबई में नौकरियों की भरमार. लेकिन अब दुबई विकसित है. क्या अब भी यहां नौकरियों के अवसर हैं? इसका पता लगाने हमारे संवाददाता ज़ुबैर अहमद अमीरात गए.
संयुक्त अरब अमीरात में भारत और दूसरे देशों से आए मज़दूर सामूहिक तरीक़े से जिन इमारतों में रहते हैं उन्हें यहां लेबर कैंप कहा जाता है.
पिछले दिनों मैं दुबई के ऐसे ही एक लेबर कैंप में गया. मैंने झोपड़पट्टी जैसी जगह की कल्पना की थी लेकिन बाहर से ये इमारत भारत के किसी मध्यम वर्ग की रिहायशी इमारत से कम नहीं लगी.
साफ़ कमरे, रसोई, ग़ुसलख़ाने
मैं जब अंदर गया तो कमरों और रसोई वगैरह में सफ़ाई देखकर थोड़ा हैरान हुआ. हैरान इसलिए हुआ क्योंकि क़तर में लेबर कैम्पों की ख़राब हालत के बारे में सुन रखा था.
इस चार मंज़िला इमारत में 304 कमरे थे और हर कमरे में तीन से चार मज़दूर एक साथ रह रहे थे.
उनके बिस्तर वैसे ही थे जैसे ट्रेन की बर्थ होती हैं.
ये कमरे छात्रों के हॉस्टल ज़्यादा नज़र आ रहे थे. उनके रसोई घर, शौचालय और ग़ुसलख़ाने सामूहिक इस्तेमाल के लिए थे लेकिन साफ़ थे.
वहां मौजूद मज़दूरों में से कुछ से मुलाक़ात हुई जिनमें से दो बिहार में सीवान ज़िले के मिले.
दोनों ने क़र्ज़ लेकर एजेंटों को पैसे दिए थे. एक से मैंने पूछा कि क्या कर्ज़ लेकर नौकरी हासिल की है तो उसने कहा - हां.
उसने बताया कि उसने 60,000 रुपये क़र्ज़ लिए हैं जिनमें से छह महीने में 10,000 रुपये वापस भी लौटा दिए.
दुबई जा रहे हैं तो ये 10 चीज़ें न करें, वरना..
मज़दूर की तनख़्वाह 36 हज़ार, ड्राइवर की 54 हज़ार
सीवान के दूसरे श्रमिक सोनू यादव ने बताया कि यहां रहने में दिक्कत तो है लेकिन मजबूरी है.
उसने कहा, "एक आदमी को दिक्कत है और 10 लोग सही से रह रहे हैं तो एक आदमी को तकलीफ़ सहनी चाहिए."
दोनों ख़ुश इस बात से हैं कि वो हर महीने अपने परिवार वालों को पैसे भेज रहे हैं.
संयुक्त अरब अमीरात में इस तरह के लेबर कैम्पों की एक अच्छी ख़ासी संख्या है जहां लाखों भारतीय मज़दूर रहते हैं.
सार्वजनिक किए गए आंकड़ों के अनुसार भारतीय मूल के 28 लाख लोग यहां रहते हैं जिनमें से कर्मचारियों की संख्या 20 लाख है. दस लाख के क़रीब लोग तो अकेले केरल से ही यहां आए हुए हैं.
कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले एक मज़दूर को महीने के 2000 दिरहम यानी 36,000 रुपये मिल जाते हैं.
वो 15,000 से 20,000 रुपये घर भेज सकता है. इसी तरह एक ड्राइवर की तनख़्वाह 3,000 दिरहम यानी 54,000 रुपये.
क्या दुबई को भारतीयों ने बनाया?
मध्यम वर्ग की नौकरियों की मांग बढ़ी
लेकिन अब मध्यम वर्ग की नौकरियों का चलन बढ़ा है.
कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले केवल मज़दूर ही नहीं बल्कि इंजीनियर भी हैं.
विशेषज्ञ कहते हैं कि 10,000 दिरहम (180,000) प्रति माह की नौकरी मध्यम वर्ग के लोगों में अच्छी नौकरी मानी जाती है.
मगर यहां ये बताना ज़रूरी है कि किराए के घर काफ़ी महंगे हैं. कई बार पगार का आधा हिस्सा किराए में ही खर्च हो सकता है
दुबई में वीडियो ब्लॉगिंग करके नौकरियों के बारे में जानकारी देने वाले अज़हर नवीद आवान के अनुसार दुनिया भर की क्रेनों में से 30 प्रतिशत दुबई में है.
इसका मतलब ये हुआ कि इंजीनियर और सिविल इंजीनियरों की यहां बहुत खपत है.
लोग हवा में उड़कर पहुंचेंगे दफ़्तर!
बायोडेटा बनाने पर ध्यान देने की सलाह
नवीद कहते हैं, "मेरे पास जो लोग आते हैं उनमें बहुमत सिविल इंजीनियरों का है. भारत से भारी संख्या में आते हैं. आप एमार जैसी कंस्ट्रक्शन कंपनियों में जाएं तो ऊपर से लेकर नीचे तक आपको भारतीय मिलेंगे".
भारत से नौकरी हासिल करने वाले लोगों को नवीद की सलाह ये है कि वो अपने सीवी पर अधिक ध्यान दें. "कई लोग सीवी पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते जिसकी वजह से उन्हें नौकरी नहीं मिलती.
दुबई की दौलत का एक अनदेखा रास्ता - BBC हिंदी
महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल
उनकी सहयोगी फ़ातिमा कहती हैं कि भारत से आने वालों में महिलाओं की संख्या ज़्यादा है. "महिलाओं के लिए दुबई सबसे सुरक्षित देशों में से एक है".
उनके अनुसार दुबई में अकेली महिलाएं भी आती हैं.
अमीरात में काफ़ी तरक्की हुई है, लेकिन आज भी नई इमारतें हर जगह बनती नज़र आती हैं.
दुबई में मैं एक जगह गया जहां एक नई इमारत खड़ी करने में दर्जनों भारतीय मज़दूर ज़ोर-शोर से काम कर रहे हैं.
संयुक्त अरब अमीरात में इस तरह का मंज़र आम है. यहां पिछले 20 साल में काफ़ी विकास हुआ है. इसमें अब और तेज़ी आई है.
दुबई की कामकाजी औरतें और बराबरी का हक़ - BBC हिंदी
बनी हुई है भारतीयों की मांग
दुबई में सिटी टावर्स कंपनी के अध्यक्ष तौसीफ़ ख़ान कहते हैं कि भारतीयों के लिए यहां नौकरी के अवसर बढ़े हैं, "भारत में रोज़गार के काफ़ी मौक़े हैं. लेकिन जीएसटी और नोटबंदी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी है. यहां अमीरात में नौकरियों के काफ़ी अवसर हैं और यहां नौकरियां सुरक्षित हैं. जब तक वो यहां काम कर कर रहे हैं, उनकी नौकरी पक्की है, पगार सुरक्षित है."
उनका कहना था कि दुबई में नए इलाक़ों का विकास हो रहा है जहां कंस्ट्रक्शन का काम तेज़ी से हो रहा है. इसका मतलब साफ़ है कि आने वाले कई सालों तक भारतीयों की ज़रूरत बनी रहेगी.