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पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई कैसे काम करती है?

पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के बारे में ऐसा क्या है कि इसे लेकर पाकिस्तान के भीतर और बाहर दोनों जगह सवाल उठाए जाते हैं?

By BBC News हिन्दी
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1 मार्च 2003 को पाकिस्तान की पहली ख़ुफ़िया एजेंसी, इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) के दो दर्जन सदस्यों ने ख़ालिद शेख़ मोहम्मद को छावनी वाले शहर रावलपिंडी में एक घर से गिरफ़्तार किया था. ख़ालिद शेख़ मोहम्मद पर 9/11 (11 सितंबर 2001) को अमेरिकी शहरों में हुए हमलों का मास्टर माइंड होने का आरोप था.

उसी शाम आईएसआई ने पाकिस्तानी और विदेशी पत्रकारों के एक समूह को इस्लामाबाद में अपने मुख्यालय में आमंत्रित किया, ताकि इस ऑपरेशन में की गई गिरफ़्तारी के बारे में उन्हें जानकारी दी जा सके.

ऐसा कम ही हुआ है जब किसी आईएसआई अधिकारी ने अपने विशेष ऑपरेशन के बारे में विदेशी पत्रकारों को इस तरह से ब्रीफ़िंग दी हो. लेकिन यह घटना भी असामान्य थी, जिससे आईएसआई के बारे में एक बार फिर नए सिरे से बहस छिड़ गई.

ब्रीफिंग में मौजूद ज़्यादातर पत्रकारों को ख़ालिद शेख़ मोहम्मद की गिरफ़्तारी के बारे में पहले से ही जानकारी थी कि उन्हें रावलपिंडी के एक घर से गिरफ़्तार किया गया था. यह घर जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान से नज़दीकी संबंध रखने वाले एक मशहूर धार्मिक परिवार का था. उनके मेज़बान अहमद अब्दुल क़ुद्दूस थे, जिनकी माँ जमात-ए-इस्लामी की एक सक्रिय नेता थीं.

ब्रीफ़िंग के दौरान पत्रकारों ने आईएसआई के उप महानिदेशक से जमात-ए-इस्लामी और अल-क़ायदा या अन्य आतंकवादी समूहों से संभावित संबंधों के बारे में सवाल पूछने शुरू कर दिए.

आईएसआई के उप महानिदेशक, जो एक नौसेना अधिकारी थे, उन्होंने उस दिन ब्रीफ़िंग रूम में संवाददाताओं को बताया कि "एक पार्टी के रूप में, जमात-ए-इस्लामी का अल-क़ायदा या किसी अन्य आतंकवादी समूह से कोई लेना-देना नहीं है."

इस ऑपरेशन के बाद एक तरफ़ पाकिस्तान के भीतर अमेरिकी एजेंसियों सीआईए और एफ़बीआई के साथ दर्जनों संयुक्त अभियान किए गए जबकि दूसरी तरफ़ पाकिस्तान के अंदर धार्मिक लॉबी (समूहों) के साथ क़रीबी संबंध बनाए रखे.

कई सैन्य विश्लेषकों का कहना है कि 'आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई' (वॉर अगेंस्ट टेरर) के दिनों में, यह एक सैन्य नहीं बल्कि ख़ुफ़िया जानकारी की जंग हो गई थी.

इससे पता चलता है कि अमेरिका और पाकिस्तान के बीच इंटेलिजेंस सहयोग ने आतंकवाद विरोधी अभियानों के सफल होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

पाकिस्तान और अमेरिका के बीच 'इंटेलिजेंस सहयोग' समझौता 9/11 के चरमपंथी हमलों के तुरंत बाद हुआ था और इसे कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया था. यह समझौता ऐसे समय में लागू हुआ जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन के समाप्त होने के बाद, अल-क़ायदा से जुड़े तत्व अफ़ग़ानिस्तान से भाग कर पड़ोसी देशों में शरण लेने के लिए कोशिश कर रहे थे.

शुरुआती वर्षों में, अल-क़ायदा के ज़्यादातर नेताओं को पाकिस्तान के प्रमुख शहरी केंद्रों से गिरफ़्तार किया गया था. 9/11 के हमलों से जुड़े आरोपी ख़ालिद शैख़ मोहम्मद को रावलपिंडी से, जबकि रमज़ी बिन-अल-शीबा को कराची से गिरफ़्तार किया गया था.

विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तान और अमेरिका के बीच इंटेलिजेंस सहयोग समझौते पर सफलता के साथ अमल उस समय हुआ, जब दोनों देश पाकिस्तान के शहरी केंद्रों में अल-क़ायदा से जुड़े तत्वों का पीछा कर रहे थे.

प्रमुख पाकिस्तानी केंद्रों से अल-क़ायदा के मशहूर नामों की गिरफ़्तारी से यही ज़ाहिर होता है कि इंटेलिजेंस शेयरिंग सिस्टम मुश्किलें नहीं बढ़ा रहा था, क्योंकि बिना किसी ख़ास प्रतिरोध के अल-क़ायदा से जुड़े लोगों को गिरफ़्तार किया जा रहा था.

पाकिस्तान की कथिक दोहरे मापदंड की आलोचना

हालांकि, जैसे ही चरमपंथ विरोधी अभियान क़बायली क्षेत्रों पर केंद्रित हुए, तो पाकिस्तान और अमेरिका के बीच ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने में व्यावहारिक और राजनीतिक कठिनाइयां आने लगी. व्यावहारिक कठिनाइयों का सबसे अच्छा उदाहरण पाकिस्तान सरकार और चरमपंथियों के बीच क़बायली इलाक़ों में होने वाले शांति समझौते थे.

इस समझौते से क्षेत्र में छिपे अल-क़ायदा के चरमपंथियों और स्थानीय लोगों के बीच विभाजन पैदा हो गया था. व्यवहारिक स्तर पर, अमेरिकी सेना पाकिस्तानी अधिकारियों से सहमत नहीं थी. यह बात पाकिस्तान के कथित 'दोहरे मापदंड' की नीति पर अमेरिकी आलोचना से ज़ाहिर हुई.

वाशिंगटन आईएसआई की कथित दोहरी नीति और क्षेत्र में अमेरिकी उपस्थिति का विरोध करने वाली धार्मिक ताक़तों के साथ उसके संपर्कों से नाख़ुश था. ये कथित संपर्क उस समय भी जारी थे जब वाशिंगटन ने तालिबान के साथ बातचीत शुरू की और वहां से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के समझौते पर हस्ताक्षर किए.

इस बीच, देश के अंदर विपक्ष ने आईएसआई और उसके नेतृत्व पर राजनीतिक इंजीनियरिंग (जोड़-तोड़) का आरोप लगाया और अपना कार्यकाल पूरा करने वाले डीजी आईएसआई पर 2018 के संसदीय चुनावों में इमरान ख़ान की जीत के पीछे असल योजनाकार होने का आरोप लगाया गया था.

इस एजेंसी के बारे में ऐसा क्या है जो इसे पाकिस्तान के अंदर और बाहर आलोचना का सामना करना पड़ता है? ऐसा क्यों है कि राजनीतिक संदर्भ में किसी भी अपहरण, हत्या, धमकी के लिए आईएसआई को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है?

इन सवालों का जवाब देना आसान नहीं है, लेकिन आईएसआई के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि आईएसआई पाकिस्तान की "प्रमुख" ख़ुफ़िया एजेंसी है जिसे क्षेत्र में हो रही हर गतिविधि की ख़बर रहती है.

उन्होंने कहा कि "अफ़ग़ानिस्तान में शांति वार्ता होती है, तो पाकिस्तान उसमें मौजूद होता है. अगर तालिबान काबुल में सरकार बनाता है, तो भी दुनिया हमारी तरफ़ देखती है. अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिमी राजनयिकों के निकालने का मामला हो, तो हमारी मदद की ज़रूरत होती है. आप किसी भी मामलें को देखें, उसमें हमारी अहमियत दिखाई देगी."

पूर्व डीजी आईएसआई ने अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़ा करने के बाद से, अब तक दो बार काबुल का दौरा किया है, जहां उन्होंने तालिबान के वरिष्ठ नेताओं से मुलाक़ात की है. उसी समय अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर ध्यान केंद्रित करते हुए पाकिस्तान अमेरिका के साथ वाशिंगटन में बातचीत कर रहा था.

1979 से 2021 तक, आईएसआई अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति और पाकिस्तान पर पड़ने वाले इसके प्रभाव से निपटने में व्यस्त थी. आईएसआई के एक पूर्व उप महानिदेशक ने नाम न छापने की शर्त पर बीबीसी को बताया, कि " बेशक यह आईएसआई की बहुत बड़ी कामयाबी है कि हमने पाकिस्तान को बड़े नुक़सान या अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति की वजह से पड़ने वाले बड़े नकारात्मक प्रभाव से बचाया और पिछले 40 वर्षों में क्षेत्र में अपने सुरक्षा लक्ष्यों को हासिल किया है."

आईएसआई की संगठनात्मक संरचना

आईएसआई की प्राथमिक ज़िम्मेदारी देश के सशस्त्र बलों की व्यावहारिक और वैचारिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है, जैसा कि इसके नाम, इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस से पता चलता है. सिविलियन भी आईएसआई में उच्च पदों पर हैं, लेकिन इस एजेंसी के संगठनात्मक ढांचे में उनके पास ज़्यादा ताक़त नहीं हैं.

लेखक डॉक्टर हेन एच. केसलिंग ने अपनी पुस्तक 'आईएसआई ऑफ़ पाकिस्तान' में इस एजेंसी के 'ऑर्गेनाइज़ेशनल चार्ट' को शामिल किया है.

जर्मन राजनीतिक विशेषज्ञ डॉक्टर केसलिंग की किताब के मुताबिक़, वह 1989 से 2002 तक पाकिस्तान में रहे हैं. वह अपनी किताब में बताते हैं कि यह एक आधुनिक संगठन है जिसकी तवज्जो ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने पर है. उनके अनुसार, किसी भी आधुनिक ख़ुफ़िया एजेंसी की तरह आईएसआई में भी सात निदेशालयों और विभागों की कई परतों के अलावा, 'विंग' (संबद्ध विभाग) हैं.

आईएसआई के संगठनात्मक ढांचे पर सेना का दबदबा ज़्यादा है, हालांकि नौसेना और वायु सेना के अधिकारी भी संगठन का हिस्सा हैं.

डीजी आईएसआई विदेशी ख़ुफ़िया एजेंसियों और इस्लामाबाद में स्थित विदेशी दूतावासों में तैनात सैन्य अटैचमेंट के लिए एक संपर्क केंद्र की भूमिका निभाता है. इसी तरह, पर्दे के पीछे, वह ख़ुफ़िया मामलों पर प्रधानमंत्री के मुख्य सलाहकार के रूप में कार्य करता है.

एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने बीबीसी को बताया कि सशस्त्र सैन्य बलों, आर्मी, एयर फ़ोर्स और नेवी में एक अलग इंटेलिजेंस एजेंसी होती है. जिसमे मिल्ट्री इंटेलिजेंस, एयर इंटेलिजेंस और नेवल इंटेलिजेंस शामिल हैं, जो अपनी-अपनी संबंधित सेनाओं के लिए आवश्यक जानकारी इकट्ठा करती है और कर्तव्यों का पालन करती है.

कभी-कभी आईएसआई और इन सेनाओं से संबंधित ख़ुफ़िया एजेंसियों के द्वारा एक ही तरह की जानकारी भी इकट्ठी कर ली जाती है, क्योंकि ये सभी सैन्य गतिविधियों पर नज़र रखते हैं और दुश्मन की चालों की निगरानी करते हैं. लेकिन अन्य ख़ुफ़िया एजेंसियों की तुलना में आईएसआई को सैन्य ढांचे में सबसे बड़ी, सबसे प्रभावी और शक्तिशाली ख़ुफ़िया एजेंसी मानी जाती है.

आईएसआई को देश सबसे बड़ी और सबसे व्यापक ख़ुफ़िया एजेंसी समझी जाती है, लेकिन स्थानीय मीडिया या गैर-सरकारी क्षेत्र में इसकी जनशक्ति के बारे में कोई अनुमान नहीं है. आईएसआई के बजट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन वॉशिंगटन स्थित फ़ेडरेशन ऑफ़ अमेरिकन साइंटिस्ट्स द्वारा कई साल पहले किए गए एक अध्ययन के अनुसार, आईएसआई में 10 हज़ार अधिकारी और स्टाफ़ सदस्य हैं, जिनमे मुख़बिर और सूचना देने वाले लोग शामिल नहीं हैं, सूचनाओं के अनुसार ये छह से आठ डिवीज़नों पर आधारित हैं."

'काउंटर इंटेलिजेंस ऑपरेशन'

सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि आईएसआई का "ऑर्गनाइज़ेशनल डिज़ाइन" मुख्य रूप से इसे "काउंटर-इंटेलिजेंस ऑपरेशन" पर केंद्रित एक ख़ुफ़िया एजेंसी बनाता है. लेकिन इसका क्या कारण है?

ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) फ़िरोज़ एच ख़ान वह अधिकारी थे, जिन्होंने पाकिस्तान के सिकयुरिटी एस्टेब्लिशमेंट में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया और 'ईटिंग ग्रास' नामक किताब लिखी है.

ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) फ़िरोज़ एच ख़ान ने अपनी किताब में लिखा है कि "पाकिस्तान के तीसरे सैन्य शासक जनरल ज़िया-उल-हक़ अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप से परेशान थे. इस परेशानी का मुख्य कारण निस्संदेह यही सच्चाई थी कि सत्ता के नशे में चूर विश्व शक्ति हमारे देश के दरवाज़े पर थी. ऐसी स्थिति में कार्टर प्रशासन की तरफ़ से दी जाने वाली सैन्य और वित्तीय सहायता इत्मीनान का जरिया थी, लेकिन सैन्य तानाशाह को अमेरिकी प्रस्ताव एक दूसरी चिंता की वजह था. अमेरिकी सहायता पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करेगी और सैन्य क्षमताओं को बढ़ाएगी, लेकिन दूसरी तरफ़ अमेरिका के साथ इंटेलिजेंस सहयोग के लिए ज़्यादा जानकारी और पाकिस्तान के अंदर निगरानी की गतिविधियों की ज़रुरत होगी, जिससे पाकिस्तान के राष्ट्रीय रहस्यों को सुरक्षित रखना मुश्किल हो सकता है.

ब्रिगेडियर फ़िरोज़ लिखते हैं कि जनरल ज़िया ने पाकिस्तान में अमेरिका की ख़ुफ़िया जानकारी जमा करने के अभियान को "न्यूट्रलाइज़" (बेअसर) करने और काउंटर-इंटेलिजेंस के क्षेत्र में पाकिस्तान की ख़ुफ़िया सेवाओं की क्षमताओं को बढ़ाने और उन्हें विकसित करने का फ़ैसला किया.

उन्होंने लिखा है कि "इसका मतलब इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) के काउंटर-इंटेलिजेंस विंग के लिए बड़ा बजट मुहैया कराना था."

उन दिनों अमेरिकी ख़ुफ़िया अभियान ज़्यादातर पाकिस्तान के ख़ुफ़िया परमाणु कार्यक्रम के बारे में थे. दूसरी ओर, अफ़ग़ान युद्ध की वजह से, बड़ी संख्या में पश्चिमी इंटेलिजेंस कर्मी स्थायी तौर पर इस्लामाबाद में सेटल हो गए थे. तत्कालीन सैन्य सरकार ने, परिस्थितियों के अनुसार, पाकिस्तान की इंटेलिजेंस सर्विस का गठन इस तरह से किया कि उसका ध्यान 'काउंटर-इंटेलिजेंस' ऑपरेशन पर केंद्रित था.

सैन्य शब्दावली की डिक्शनरी में "काउंटर इंटेलिजेंस" को कुछ इस तरह से परिभाषित किया गया है: काउंटर इंटेलिजेंस जानकारी प्राप्त करने और विदेशी सरकारों, विदेशी संगठनों, विदेशी व्यक्तियों या अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों या उनके एजेंटों की तरफ़ से की जाने वाली जासूसी, अन्य ख़ुफ़िया एजेंसियों की गतिविधियां, सबोताज़ या हत्या करने की कार्रवाइयों से बचने के लिए की जाने वाली गतिविधियां."

फ़िरोज़ एच ख़ान के अनुसार, जनरल ज़िया-उल-हक़ पाकिस्तान की ख़ुफ़िया सेवा आईएसआई के निर्माता थे. वह काउंटर-इंटेलिजेंस को इस तरह से चलाना चाहते थे, जो दूसरी सभी ख़ुफ़िया एजेंसियों से बढ़ कर हो या ये दूसरो से उच्च स्तर की हो. इसलिए, पाकिस्तान इंटेलिजेंस सर्विसेज़ की संरचना का डिज़ाइन बनाया गया, ताकि यह पारदर्शी तरीक़े से विकसित हो कर, आगे बढ़ सके और इसका अतिरिक्त ध्यान देश के अंदर और बाहर काउंटर-इंटेलिजेंस पर केंद्रित हो.

ब्रिगेडियर ख़ान ने लिखा है कि "ज़िया-उल-हक़ के पास आगे बढ़ने के लिए बहुत कम रास्ता था, लेकिन उन्हें रिस्क लेना था. परमाणु मुद्दे को कूटनीति से कम किया जा सकता था और अमेरिकी इंटेलिजेंस के ज़रिये जानकारी हासिल करने में ख़तरा था. इस मुद्दे को बेहतर काउंटर-इंटेलिजेंस से हल किया जा सकता था."

1 मार्च 2003 को दो दर्जन आईएसआई कर्मियों ने ख़ालिद शैख़ मोहम्मद को रावलपिंडी के एक घर से गिरफ़्तार किया था
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1 मार्च 2003 को दो दर्जन आईएसआई कर्मियों ने ख़ालिद शैख़ मोहम्मद को रावलपिंडी के एक घर से गिरफ़्तार किया था

'जॉइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो'

आईएसआई के अंदर आज तक डाइरेक्टोरेट्स काउंटर-इंटेलिजेंस है, जिसे 'ज्वाइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो' (संयुक्त जवाबी ख़ुफ़िया कार्रवाइयों के ब्यूरो) का नाम दिया गया है, जो सबसे बड़ा डायरेक्ट्रेट है.

जर्मन राजनीतिक वैज्ञानिक डॉक्टर हेन जी. केसलिंग ने अपनी किताब में लिखा है कि उप महानिदेशक 'एक्सटर्नल' जेसीआईबी को कंट्रोल करते हैं. उनके अनुसार, "विदेशों में तैनात पाकिस्तानी राजनयिकों की निगरानी करना, इसके साथ-साथ मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, पूर्व सोवियत संघ और मध्य एशिया के नौ स्वतंत्र राज्यों में ख़ुफ़िया अभियान चलाना इसकी ज़िम्मेदारी है."

जॉइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो (जेसीआईबी) में चार डायरेक्टोरेट हैं, जिनमें से प्रत्येक की एक अलग ज़िम्मेदारी है:

  • एक डायरेक्टर विदेशी राजनयिकों और विदेशियों की फ़ील्ड निगरानी को संभालता है.
  • दूसरा डायरेक्टर विदेश में राजनीतिक ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने के लिए ज़िम्मेदार है.
  • तीसरे डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी एशियाई यूरोप और मध्य पूर्व में ख़ुफ़िया जानकारी प्राप्त करना है.
  • चौथा डायरेक्टर इंटेलिजेंस मामलों में प्रधानमंत्री के सहायक के तौर पर काम करता है. यह आईएसआई का सबसे बड़ा डायरेक्टोरेट है. इसकी ज़िम्मेदारियों में स्वयं आईएसआई के कर्मियों की निगरानी और राजनीतिक गतिविधियों का लेखा-जोखा रखना शामिल है. यह पाकिस्तान के सभी प्रमुख शहरों और क्षेत्रों में मौजूद है.

आईएसआई में अन्य डायरेक्टोरेट

डॉक्टर हेन केसलिंग की किताब के अनुसार, "आईएसआई का दूसरा सबसे बड़ा डायरेक्टोरेट निस्संदेह जॉइंट इंटेलिजेंस ब्यूरो (जेआईबी) है, जो संवेदनशील राजनीतिक विषयों से संबंधित है, इसमें राजनीतिक दल, ट्रेड यूनियने, अफ़ग़ानिस्तान, आतंकवाद विरोधी अभियान और वीआईपी सुरक्षा शामिल हैं."

जेआईबी विदेशों में पाकिस्तान के सैन्य अटैच और सलाहकारों से संबंधित मामलों और पदों को भी नियंत्रित करता है.

डॉक्टर केसलिंग ने अपनी किताब में लिखा है कि जम्मू-कश्मीर के लिए ज्वाइंट इंटेलिजेंस नॉर्थ ज़िम्मेदार है. इसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना है. अपनी किताब में वे लिखते हैं, कि ''उन्हें जम्मू-कश्मीर में ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने का भी काम सौंपा गया है. यह कश्मीरी चरमपंथियों को सबोटाज और विध्वंसक गतिविधियों के लिए प्रशिक्षण, हथियार, गोला-बारूद और फंड मुहैया कराता है.

याद रहे, कि पाकिस्तान पर कश्मीरी चरमपंथियों की सहायता करने के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा इससे इनकार किया है.

डॉक्टर केसलिंग ने अपनी किताब में लिखा है कि "जॉइंट इंटेलिजेंस मेसिलिनियस" (विविध) की ज़िम्मेदारी यूरोप, अमेरिका, एशियाई और मध्य पूर्व में जासूसी करना है और एजेंट्स के ज़रिये, सीधे तौर पर 'आईएसआई मुख्यालय या फिर विदेश में तैनात अपने अधिकारियों की मदद से परोक्ष रूप से ख़ुफ़िया तौर पर गुप्त जानकारी जमा करता है. यह भारत और अफ़ग़ानिस्तान में अपने आक्रामक अभियानों को अंजाम देने के लिए प्रशिक्षित जासूसों का इस्तेमाल करता है.

'दरारें'

लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) ज़ियाउद्दीन बट ने एक वर्ष तक डीजी आईएसआई के रूप में कार्य किया.
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लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) ज़ियाउद्दीन बट ने एक वर्ष तक डीजी आईएसआई के रूप में कार्य किया.

एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ सैन्य अधिकारी के अनुसार, आईएसआई पाकिस्तानी सेना के अंतर्गत काम करती है, जो बहुत ज़्यादा सैन्य ताक़त मुहैया करती है. हालांकि, उनके मुताबिक़ कभी कभी उनके रिश्ते में 'दरार' भी देखी गई है, जो अतीत में कई बार खुल कर सामने आई हैं.

उसी सेवानिवृत्त वरिष्ठ सेना अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, कि सैन्य विशेष्ज्ञ उदहारण देते हुए कहते हैं कि 12 अक्टूबर 1999 की बग़ावत नवाज़ शरीफ़ के ख़िलाफ़ तो थी ही, यह आईएसआई की ऑर्गनाइज़ेशन के ख़िलाफ़ भी थी, ये ज़ाहिरी तौर पर अपने डीजी (लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) ज़ियाउद्दीन बट) के साथ थे, जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री ने चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ नियुक्त किया था.

सेवानिवृत्त वरिष्ठ सैन्य अधिकारी के अनुसार, दूसरी बार यह "दरार" उस समय दिखाई दी जब मुशर्रफ़ के दौर में आईएसआई ने अपनी मीडिया विंग शुरू की थी, जिसने स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के साथ संबंध स्थापित किए.

एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि "आईएसआई की मीडिया विंग कभी-कभी स्वतंत्र रूप से काम करती है और आईएसपीआर जो कर रही होती है उसके ठीक विपरीत काम करती है. मीडिया पर इस विंग के दबाव का आईएसपीआर के दबाव के साथ समानांतर प्रभाव पड़ रहा होता है."

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