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कोरोना वायरस: अस्पताल में 86 दिन रहकर ज़िंदा वापस लौटने की कहानी

सच कहूं तो मुझे यह बिल्कुल भी पता नहीं है कि मुझे कोविड-19 हुआ कैसे. मैं बार-बार सोचने की कोशिश करता हूं कि आख़िर हुआ क्या. मैं समझ नहीं पाता.

By क्रिस ब्रैमवेल
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कोविड संक्रमण से पहले अपनी पार्टनर के साथ बबाक
SHEERIN KHOSROWSHAHI-MIANDOAB
कोविड संक्रमण से पहले अपनी पार्टनर के साथ बबाक

बबाक ख़ज़रोशाही को 22 मार्च के दिन सुबह तड़के चार बजे अस्पताल ले जाया गया.

चार मार्च...वो दिन जब दुनिया भर के बच्चे अपनी-अपनी मांओं को मदर्स डे की बधाई दे रहे थे, उन्हें विश कर रहे थे.

अब पूरे 86 दिनों के संघर्ष के बाद बाबाक को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई है लेकिन 86 दिनों की यह लड़ाई इतनी आसान नहीं थी.

जितने वक़्त बाबाक अस्पताल में रहे उस दौरान क़रीब 40 हज़ार लोगों ने कोविड-19 के कारण अपना जान गंवाई.

कोरोना वायरस के साथ बबाक की एक लंबी जंग चली.

इस जंग की कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी:

अगर सच कहूं तो मुझे यह बिल्कुल भी पता नहीं है कि मुझे कोविड-19 हुआ कैसे. मैं बार-बार सोचने की कोशिश करता हूं कि आख़िर हुआ क्या. मैं समझ नहीं पाता.

मैं बहुत एहतियात बरत रहा था. मैं हर वक़्त अपने हाथ धोता रहता था. मैंने कभी भी सार्वजनिक यातायात साधनों का इस्तेमाल नहीं किया और अगर कहीं भी गया तो अपनी कार से ही गया. लेकिन मैं ये ज़रूर जानता हूं कि ये सब शुरू कहां हुआ.

वो शुक्रवार का दिन था. मेरी पार्टनर मुझसे मिलने आई थी और मुझे लगातार महसूस हो रहा था कि कुछ तो है जो ठीक नहीं है. अब सोचता हूं तो समझ आता है कि हो ना हो यह बुख़ार ही था लेकिन उस वक़्त मेरे शरीर का तापमान ज़्यादा नहीं था तो मुझे कुछ समझ नहीं आया. मुझे लगा था कि बस मुझे ऐसा महसूस हो रहा है.

जब मेरी पार्टनर आई तो मैं उससे दूरी बनाकर रहने की कोशिश कर रहा था क्योंकि मेरे दिमाग़ में लगातार चल रहा था कि मुझे कोविड हो सकता है. अगले दिन मुझे एहसास हुआ कि जो मैं महसूस कर रहा था वो अब भी कर रहा हूं.

मैंने घर में रखा एक पुराना थर्मामीटर खोजा और उससे अपना तापमान मापने लगा. मेरे शरीर का तापमान 38.5 डिग्री सेल्सियस था. मैंने थर्मामीटर को देखा और ख़ुद से कहा 'यह हो रहा है और यह बेहद गंभीर है.'

अस्पताल में बबाक ख़ज़रोशाही
SHEERIN KHOSROWSHAHI-MIANDOAB
अस्पताल में बबाक ख़ज़रोशाही

एक फेफड़े ने काम करना बंद किया

मैंने हेल्पलाइन 111 पर फ़ोन किया. उन्होंने कहा कि मुझे सात दिन तक इंतज़ार करने के बाद 999 पर फ़ोन करना चाहिए. उस समय तक मेरे शरीर का तापमान काफ़ी बढ़ चुका था और मेरी तबियत बिगड़ रही थी.

एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना भी मुश्किल हो रहा था. उठकर कोई सामान लेना भी मुश्किल हो गया था. स्थिति बेहद ख़राब हो चुकी थी और तभी एक दोस्त ने 999 पर फ़ोन कर दिया.

मैं 22 मार्च को अस्पताल में था. अस्पताल में यह मेरा पहला दिन था. वहां मुझे किनारे के एक कमरे में सुला दिया गया और एक नर्स ने मुझे खाना परोसा. मुझे चिकन दिया गया था और मुझ उसे खाने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी.

उस समय मुझे लेने में तक़लीफ़ हो रही थी और उन्हें ट्रैकियोस्टोमी से मदद दी जा रही थी. मैं वेंटिलेटर पर था और मुझे बहुत ज़्यादा ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ रही थी. मेरा बांया फेफड़ा काम करना बंद कर चुका था.

मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने अपनी आंखें खोलीं तो मैंने किसी से नहीं पूछा कि मैं कहां हूं और मुझे यहां क्यों रखा गया है. मैंने सिर्फ़ स्वीकार कर लिया कि मुझे यहीं होना है. मैं कुछ भी बोल नहीं पा रहा था और बेहद असमंजस में था.

नर्स ने मुझ एक पेपर और पेन दिया ताकि मैं उस पर लिखकर अपनी बात बता सकूं. लेकिन मैं लिखकर भी अपनी बात बताने में सक्षम नहीं था. इसके बाद मुझे अक्षरों वाला एक बोर्ड दिया गया ताकि मैं वहां अक्षरों पर उंगली रखकर अपनी बात कर सकूं लेकिन मैं वो भी नहीं कर पा रहा था.

इन सबके कुछ दिन पहले ही तो मैं कितने आराम से लिख पा रहा था. फिर एक दिन मेरी फ़ीज़ियोथेरेपिस्ट ने मुझसे कुछ ऐसा कहा जो मुझे हमेशा याद रहेगा.

उन्होंने कहा था, "आप इस अस्पताल से बाहर जाएंगे."

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सांकेतिक तस्वीर
TOLGA AKMEN
सांकेतिक तस्वीर

चार डॉक्टरों से घिरा हुआ एक मरीज़

इन सबका मक़सद मेरी मूवमेंट को बढ़ाना था. सबसे पहले उन्होंने मुझसे मेरे बेड के एक छोर पर बैठने को कहा. फिर एक कुर्सी पर बैठने को, उठने को कहा और धीरे-धीरे उठकर चलने को कहा.

मैं कृत्रिम ऑक्सीजन की मदद से उस यूनिट को नैविगेट करने की कोशिश कर रहा था. उन्होंने मुझे इसके लिए बधाई दी और कहा कि जो मैंने किया है वो मैराथन पूरा करने जैसा है.

लगभग 30 दिन जब फ़िजियोथेरेपिस्ट ने मुझे खड़े होने के लिए कहा तो मैं खड़ा नहीं हो सका. मैं मन ही मन सोच रहा था कि क्या मैं कभी ठीक हो सकूंगा?

मैं पूरी सांस नहीं ले पा रहा था, मुझे मशीन का सहारा लेना पड़ रहा था. लेकिन अगले दिन मैंने उठने की कोशिश की और फिर फ़ीजियो ने वही शब्द दुहराए. उसी वक्त से वो मेरा लक्ष्य बन गया था-मैं इस अस्पताल से बाहर निकल रहा हूं.

लगभग 50 दिन बाद मुझे पहले से कहीं ज़्यादा नॉर्मल वॉर्ड में शिफ़्ट किया गया. यह तैयारी थी कि मैं अस्पताल से बाहर जा सकूं. लेकिन एक-दो दिनों बाद ही मुझे कंपकंपी छूटने लगी और मेरा बुख़ार वापस आ गया. मैंने तुरंत आवाज़ देकर नर्स को बुलाया.

कुछ ही सेकेंड में चार डॉक्टर मेरे पास और महज़ आधे घंटे के अंदर मुझे एएमयू में शिफ़्ट किया जा चुका था. पता चला कि मुझे संक्रमण है.

सांकेतिक तस्वीर
OLI SCARFF
सांकेतिक तस्वीर

लेकिन मैं अस्पताल से बाहर आया....

मेरे गले की मांसपेशियां बेहद कमज़ोर हो गई थीं. यही वो वजह थी जिसके कारण मैं इतने लंबे समय तक अस्पताल में रहा. डॉक्टरों ने मुझे कई तरह के व्यायाम और मुझे अधिक से अधिक पानी पीने के लिए कहा गया.

जो टीम मुझे देख रही थी उसे ये पूरा भरोसा थी कि जब मैं अपने घर लौटूंगा तो मेरे साथ कोई तार या बैग नहीं उलझा होगा.

मैं सिर्फ़ दो बातों के लिए भावुक हो रहा हूं- एक एनएचएस (ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस) और दूसरा मेरा परिवार. मैं अगर ज़िंदा हूं तो वो एनएचएस की बदौलत. उन्होंने मेरी जान बचाई.

मैं बता नहीं सकता कि इतने दिनों बाद अस्पताल से बाहर आना कैसा लगता है. जब मैं अस्पताल आया था तो पेड़ों पर पत्तियां नहीं तीं लेकिन अब जब मैं जा रहा था तो थीं.

मैंने जिनके यहां काम करता हूं, मैंने उनसे कहा कि मुझे नहीं लगता है कि मैं काम पर जल्दी लौट पाऊंगा. मैं खुद को 'सेमी-रिटायर' (आधा रिटायर) मानता हूं. वायरस तो जा चुका है लेकिन अस्पताल में भर्ती होने का एहसास... मैं अब भी उससे उबरने की कोशिश कर रहा हूं.'

मैं अब भी जब चलकर आता हूं तो सांस उखड़ने लगती है. मैं अब भी बहुत नर्म खाना ही खा पाता हूं. अस्पताल से लौटने के बाद मेरा दो-तीन किलो वज़न बढ़ा है लेकिन ईरानी कबाब खाना अब भी महुत मिस कर रहा हूं.

BBC Hindi
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English summary
Coronavirus: the story of returning to life after being in hospital for 86 days
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