क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

भारत के सवर्ण क्या विदेशों में भी अपनी जाति नहीं छोड़ रहे हैं

अमेरिका में स्थित नागरिक अधिकार संगठन आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर से जुड़े राम कृष्णा भूपति बीबीसी से कहते हैं, "आंबेडकर ने एक बार कहा था कि अगर हिंदू दूसरे देशों में जाकर बसेंगे तो जातिवाद एक वैश्विक समस्या बन जाएगा. अभी अमेरिका में बिल्कुल यही हो रहा है."

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News
दलित कार्यकर्ता पश्चिमी देशों में जातिवाद के मुद्दे की तरफ़ ध्यान खींच रहे हैं
Getty Images
दलित कार्यकर्ता पश्चिमी देशों में जातिवाद के मुद्दे की तरफ़ ध्यान खींच रहे हैं

अमेरिका के कोलोराडो और मिशिगन प्रांतों ने हाल ही में 14 अप्रैल को डॉ. भीमराव आंबेडकर समानता दिवस घोषित किया है.

इससे कुछ दिन पहले ही कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत ने अप्रैल को दलित हिस्ट्री मंथ (दलित इतिहास महीना) घोषित किया था.

भारत के संविधान निर्माता आंबेडकर दलितों (जिन्हें पहले अछूत माना जाता था) के मसीहा नेता रहे हैं. भारत की जाति व्यवस्था में निचले स्तर पर होने की वजह से दलितों ने ऐतिहासिक तौर पर शोषण झेला है.

भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हुआ था.

भारत के संविधान और अदालतों ने बहुत पहले ही दलितों के सामाजिक पिछड़ेपन को स्वीकार करते हुए उन्हें आरक्षण और विशेष क़ानूनों के ज़रिए सुरक्षा देने का काम किया है.

अब अमेरिका और पश्चिमी देशों में सक्रिय दलित कार्यकर्ता उन्हें इसी तरह की पहचान पश्चिमी देशों में भी दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं.

पश्चिमी देशों में भारतीय मूल के लोगों को एक आदर्श अल्पसंख्यक समुदाय समझा जाता है जो आसानी से देश में घुल मिल जाता है. भारतीय मूल के लोगों को महत्वाकांक्षी और मेहनती भी माना जाता है.

अमेरिका में स्थित नागरिक अधिकार संगठन आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर से जुड़े राम कृष्णा भूपति बीबीसी से कहते हैं, "आंबेडकर ने एक बार कहा था कि अगर हिंदू दूसरे देशों में जाकर बसेंगे तो जातिवाद एक वैश्विक समस्या बन जाएगा. अभी अमेरिका में बिल्कुल यही हो रहा है."

दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि उच्च जात वर्ग के भारतीय जिस भेदभाव और जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, ख़ासकर विश्वविद्यालयों और टेक्नॉलॉजी संस्थानों में, उसे लंबे समय से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है.

लेकिन पिछले कुछ सालों से बहुत से लोगों ने इसके ख़िलाफ़ बोलना शुरू किया है.

एनपीआर के सितंबर 2020 में प्रसारित हुए शो रफ़ ट्रांसलेशन में बोलते हुए तकनीकी क्षेत्र में काम करने वाले एक कर्मचारी ने छद्म नाम सैम कोर्नेलस का इस्तेमाल करते हुए अपने अनुभव साझा किए थे.

उन्होंने बताया था कि उनके सहकर्मी उनकी कमर पर हाथ मारकर ये देखते थे कि उन्होंने जनेऊ पहना है या नहीं. जनेऊ एक सफ़ेद रंग का धागा होता है, जिसे हिन्दुओं में सवर्ण जातियों के पुरुष पहनते हैं.

उस शो में बात करते हुए इस कर्मचारी ने कहा था, "वो आपको तैराकी के लिए आमंत्रित करेंगे, आप जानते हैं? कहेंगे चलो, तैरते हैं- वो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि तैरने के लिए टीशर्ट उतारनी पड़ती है. असल में वो ये देखना चाहते हैं कि आपने जनेऊ पहना है या नहीं."

शो में शामिल दूसरे लोगों ने भी ये स्वीकार किया था कि यूनिवर्सिटी की पार्टियों में भारतीय एक दूसरे से जाति पूछते हैं और वो इससे असहज होते हैं और जवाब देने से डरते हैं.

प्रेमा पेरियार नेपाल मूल के शिक्षाविद हैं और उनका कहना है कि अमेरिका में जातिवाद एक अहम मुद्दा है
Getty Images
प्रेमा पेरियार नेपाल मूल के शिक्षाविद हैं और उनका कहना है कि अमेरिका में जातिवाद एक अहम मुद्दा है

पिछड़ी जातियों के कार्यकर्ताओं के प्रयासों और ऑनलाइन बात करने के सुरक्षित ठिकानों की वजह से इस मुद्दे पर हाल के सालों में चर्चा हुई है.

मेन के कोल्बी कॉलेज में जातिगत सुरक्षा के लिए संघर्ष करने वाली असिस्टेंट प्रोफ़ेसर सोंजा थॉमस कहती हैं कि जॉर्ज फ्लॉयड और ब्रेओना टेलर की मौत के बाद शुरू हुए ब्लैक लाइव्स मैटर अभियान का भी इस मुद्दे पर प्रभाव हुआ है.

दक्षिण एशियाई मूल के अमेरिकी अब ये विचार कर रहे हैं, उनके अपने समुदायों में जातिवाद किस तरह कालों के ख़िलाफ़ भावना की ही तरह हैं.

थॉमस कहती हैं कि पिछले एक दशक में ये बदलाव हुआ है कि उच्च वर्ग के बहुत से लोग अब स्वयं को मिले ऐतिहासिक विशेषाधिकार से अब जूझ रहे हैं.

पुलित्ज़र सेंटर के फंड से बनी कास्ट इन अमेरिका सिरीज़ में बात करते हुए डॉक्युमेंट्री फ़िल्म निर्माता कविता पिल्लाई ने कहा था, "हम ये बात तो बहुत अच्छे से जानते हैं कि कैसे हमारे माता-पिता एक सूटकेस और चंद डॉलर लेकर अमेरिका पहुँचे लेकिन हमें इस बात की बहुत समझ नहीं है कि कैसे भारत में मिली जातिगत वरियता की वजह से हमारे परिजन का यहाँ आने का रास्ता साफ़ हुआ और हमारे अभिभावकों, हमने और हमारे बच्चों ने यहाँ अच्छा किया."

कार्यकर्ता कहते हैं कि अमेरिका में दलित अधिकारों के मामले में ऐतिहासिक पल तब आया जब कैलिफ़ोर्निया में आईटी कंपनी सिस्को के उच्च जातिवर्ग के दो कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भारतीय मूल के एक दलित के साथ भेदभाव करने के लिए 2020 में मामला दर्ज हुआ.

आंबेडकर एसोसिएशन ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका ने बीबीसी से कहा, "इस मुक़दमे ने पहले से चल रहे प्रयासों को विश्वसनीयता दी."

सिसको के मुक़दमे के बाद दलित अधिकार संस्थान इक्वलिटी लैब ने एक हॉटलाइन शुरू की जिस पर चंद दिनों के भीतर गूगल, फ़ेसबुक, एपल जैसी बड़ी सिलिकॉन वैली कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों के 250 से अधिक कॉल आए. इन कर्मचारियों ने अपने साथ जातिगत आधार पर भेदभाव की शिकायत की.

सिसको मुक़दमे में गूगल की पेरेंट कंपनी अल्फाबेट की वर्कर यूनियन ने भी मदद की.

इक्वालिटी लैब्स के संस्थापक थेनमोझी सुंदरराजन ने बीबीसी से कहा, "ये पहली बार था जब हमारे मूल देश के बाहर एक अमेरिकी संस्थान ने जाति को अहम नागरिक अधिकार समस्या माना जिसके लिए सरकार की तरफ़ से क़ानूनी कार्रवाई की ज़रूरत है."

साल 2021 में एक अन्य मुक़दमे में हिंदू संस्था बोचासनवासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) पर दलित मज़दूरों का शोषण करने और उन्हें न्यूनतम मज़दूरी से कम वेतन देने के आरोप लगे.

सिस्को
Getty Images
सिस्को

इसी साल यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, डेविस कोल्बी कॉलेज, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और द कैलिफ़ोर्निया डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपनी नीतियों में जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ सुरक्षा को शामिल कर लिया.

इसमें ऐतिहासिक पल तब आया जब जनवरी 2022 में कैलिफ़ोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी अमेरिका की पहली और सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी बन गई, जिसने अपनी नीति में जाति को एक सुरक्षित श्रेणी का दर्जा दिया.

सुंदरराजन कहती हैं, कैलिफोर्निया प्रांत में छात्रों के अभियान को यहाँ की प्रमुख लेबर यूनियनों का समर्थन मिला था जो अहम साबित हुआ और इस बात को समझा गया कि जातिगत बराबरी भी कर्मचारियों का अधिकार है.

वो कहती हैं कि लेबर मूवमेंट का समर्थन इस विषय पर अन्य वैश्विक बहसों को भी प्रभावित करेगा.

अमेरिकी लोगों को जाति के बारे में समझाना

भूपति कहते हैं, "नस्लवाद अधिकतर त्वचा के रंग पर आधारित होता है लेकिन जातिवाद की जटिल प्रकृति को अमेरिकी लोगों को समझाना मुश्किल होता है."

वो कहते हैं, "जाति जन्म से तय होती है और ये बताती है कि वर्णवादी हिंदू व्यवस्था में आप कहाँ खड़े हैं."

कैलिफ़ोर्निया प्रांत की जाति नीति के प्रमुख आयोजकों में से एक और नेपाली मूल के शिक्षाविद प्रेम पेरियार अक्सर जाति को समझाने के लिए इसाबेल विल्कर्सन की किताब के इस वाक्य का इस्तेमाल करते हैं कि, "जाति हड्डडी है और नस्ल त्वचा."

2020 में आई किताब कास्टः द ओरिजिन ऑफ़ अवर डिस्कंटेंट्स, में नस्ल और जाति के इतिहास की तुलना की गई है और प्रेम पेरियार मानते हैं कि इसने अमेरिका में जातिवादी भेदभाव को सुर्खियों में ला दिया है.

अमेरिका में हिंदूवादी संगठन
Getty Images
अमेरिका में हिंदूवादी संगठन

पेरियार के अनुभवों को उनके विभाग के उच्च जाति के शिक्षकों ने ये कहते हुए नज़रअंदाज़ किया कि जातिवादी भेदभाव एक भारतीय मुद्दा है और इस पर अमेरिका में चर्चा क्यों होनी चाहिए?

थॉमस इसाइयों में जातिवादी मुद्दों पर काम करती हैं और ये मानते हैं कि उच्च जातीय वर्ग के लोगों में जातिवाद को न मानना कोई नई बात नहीं है.

वो कहती हैं कि ये लो जातिवादी श्रेष्ठता शब्द का इस्तेमाल करने से डरते हैं क्योंकि इससे ऐसा लगेगा कि उन्होंने अमेरिकी समाज में अपनी स्थिति को हासिल नहीं किया है जहां दक्षिण एशियाई उसी तरह से एक अल्पसंख्यक हैं जैसे हिंदू और मुसलमान.

कैल स्टेट को इसी साल लिखे एक पत्र में हार्वर्ड में साउथ एशियन स्टडीज़ में एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफ़ेसर अजंथा सुब्रमण्यम ने कहा कि जातिवाद भेदभाव का एक ऐसा ढांचा है जो सिर्फ़ हिंदुओं तक ही सीमित नहीं है और दक्षिण एशिया के हर क्षेत्र में प्रभावी है.

वो लिखती हैं, "पीड़ित जातियों के अधिकतर लोग अपने आप में हिंदू ही हैं."

दक्षिणपंथी हिंदू समूहों की चुनौती

दलित अधिकारों के लिए अभियान की इस जीत को अमेरिका में हिंदू अमेरिकन फ़ाउंडेशन (एचएएफ) जैसे हिंदूवादी समूहों ने चुनौती दी है. एचएएफ़ इसके ख़िलाफ़ भारतीय मूल के लोगों को एकजुट भी कर रही है.

इस फ़ाउंडेशन ने कैस स्टेट पॉलिसी और सिस्को मामले को चुनौती दी है और इसे अमेरिका में हिंदुओं के अधिकारों का हनन और भेदभावपूर्ण बताया है.

वर्गीज़ के जॉर्ज अपनी किताब 'ओपन एंब्रेस' में लिखते हैं कि अमेरिका में भारतीय समुदाय इस तर्क को स्वीकार करता है कि 'हिंदू होना ही भारतीय होना है और भारतीय होना हिंदू होना है.'

इस विचार को भारत के सत्ताधारी दल के एजेंडे से भी समर्थन मिलता है जो हिंदूवादी पहचान को बढ़ावा दे रहा है और इसमें जाति शामिल नहीं है.

एचएएफ़ उन कई अमेरिकी भारतीय संगठनों में शामिल हैं जिन्होंने भारतीय चुनावों में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया है. नरेंद्र मोदी विदेशों में रह रहे भारतीय को रणनीतिक एसेट बताते रहे हैं.

भारत में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद अमेरिका में ऐसे हिंदूवादी संगठन लॉबी करने के लिए अपने आप को और सशक्त पाते हैं. भूपति कहते हैं कि ये संगठन में अमेरिका में जाति को लेकर यथास्थिति को बरक़रार रखने के लिए लॉबी करने और क़ानूनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं.

लेकिन वैश्विक स्तर पर नागरिक और मानवाधिकारों के मामले में जाति एक नया फ्रंट बन गई हैं. सुंदरराजन कहती हैं, "हम चाहते हैं कि जिनका जातिगत आधार पर शोषण हुआ है वो संस्थानों को ये बताएं कि उनके अधिकारों की रक्षा के लिए क्या बदलाव किए जाएं ताकि इन संस्थानों तक सबकी बराबर पहुँच हो."

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Are the upper castes of India not leaving their caste even in foreign countries?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X