कर्नाटक के बाद तेलंगाना पर नज़र, क्या बीजेपी दक्षिण भारत में उत्तर जैसा कमाल कर पाएगी
तमिलनाडु और केरल में बीजेपी के सामने विचारधारा से जुड़ी चुनौतियां है. और सिर्फ तेलंगाना में बीजेपी को ऐसे संकेत मिल रहे हैं जिससे उसे लग रहा है कि वो वहां सत्ता की सीढ़ियां चढ़ सकती है.
बीजेपी ने दक्षिण भारत में अपनी जगह बनाने की रणनीति के तहत 18 साल बाद तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक करने का फ़ैसला किया है.
हैदराबाद में ही आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वाजपेयी के दौर वाली बीजेपी ने आम चुनाव में जाने का एलान किया था.
हालांकि, इंडिया शाइनिंग अभियान असफल रहा और इसके बाद बीजेपी दस साल बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कांग्रेस-नीत यूपीए को सत्ता से बाहर कर पाई.
इसके बाद से बीजेपी ने उत्तर भारत से बाहर निकलकर देश के अलग-अलग कोनों में अपनी जगह बनाई है.
लेकिन बीजेपी अब तक दक्षिण भारत में बहुत सफल नहीं हुई है. सिर्फ कर्नाटक एक अपवाद है जहां बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में बीजेपी ने 2018 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी.
दक्षिण भारत में बीजेपी का प्रदर्शन
राजनीतिक विश्लेषक और केरल यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर प्रोफेसर जे प्रभाष बीबीसी को बताते हैं कि "उत्तर भारत में बीजेपी के लिए जो राजनीतिक नैरेटिव काम करता है, वो नैरेटिव स्पष्ट रूप से दक्षिण भारत के केरल और तमिलनाडु में कारगर नहीं है."
तमिलनाडु और केरल में बीजेपी के सामने विचारधारा से जुड़ी चुनौतियां है. और सिर्फ तेलंगाना में बीजेपी को ऐसे संकेत मिल रहे हैं जिससे उसे लग रहा है कि वह सत्ता की सीढ़ियां चढ़ सकती है.
लेकिन विश्लेषकों और नेताओं के बीच अभी भी ये संशय बना हुआ है कि बीजेपी तेलंगाना में कांग्रेस की जगह लेकर दूसरे नंबर की पार्टी बन पाएगी या नहीं.
राजनीतिक विश्लेषक जिनका नागाराजू कहते हैं, "तेलंगाना में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए ये परीक्षा की घड़ी है. यहां राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का आयोजन हो रहा है ताकि पार्टी काडर का मनोबल बढ़ाया जा सके."
हालांकि, तेलुगू भाषी आंध्र प्रदेश की दूसरी राज्य सरकार को 'बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए का अघोषित सदस्य' माना जाता है.
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तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति की सरकार बनने के बाद ऐसा लगा कि दोनों तेलुगू भाषी राज्यों के सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी से काफ़ी दोस्ताना संबंध हैं.
बीजेपी ने इसी दौर में हुए साल 2019 के लोकसभा चुनाव में 17 में से चार सीटें जीतकर सबको चौंका दिया. क्योंकि इससे एक साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल की थी.
यही नहीं, ज़्यादातर सीटों में बीजेपी उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गई थी. लेकिन लोकसभा चुनावों में बीजेपी को स्थानीय राजनीति से जुड़ी वजहों से जीत मिली.
इसके बाद नवंबर 2020 में दुब्बका विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को पता चला कि टीआरएस सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रही है.
दुब्बका विधानसभा तीन दिशाओं से उन विधानसभाओं से घिरी है जिनसे मुख्यमंत्री केसीआर, दूसरे नंबर के नेता केटी रामा राव और मुख्यमंत्री के बेटे हरीश राव चुनकर आते हैं.
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टीआरएस की राय बदली
ऐसे में माना जा रहा था कि इस सीट से टीआरएस को जीत मिलेगी. लेकिन बीजेपी उम्मीदवार ने ये सीट जीत ली जिससे केंद्रीय नेतृत्व को इस राज्य के बारे में अपनी राय बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा.
इसके बाद ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन का हाई-प्रोफाइल चुनाव हुआ जिसमें बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी.
इस चुनाव में बीजेपी ने अपने बेहतरीन वक्ताओं को उतारा जिन्होंने इतिहास के बीजेपी वाले नज़रिए को जनता के सामने रखा.
इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंसेज़ रिसर्च के सीनियर फेलो प्रोफेसर के श्रीनिवासलु बीबीसी को बताते हैं, "ऐतिहासिक रूप से तेलंगाना में बीजेपी के लिए एक सकारात्मक आधार रहा है. यहां पर निज़ाम का शासन हुआ करता था. इस शासन ने किसान आंदोलन से लेकर रज़ाकार आंदोलन और पुलिसिया कार्रवाई का दौर देखा है जो अब तक लोगों के ज़हन में बना हुआ है. बीजेपी निज़ामाबाद, महबूबनगर, अदिलाबाद जैसे ज़िलों के नाम भी बदलना चाहती थी."
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बीजेपी-तेदेपा गठबंधन
इनमें से कुछ ज़िलों ने कांग्रेस के दौर में भी सांप्रदायिक तनाव और हिंसा का सामना किया है. लेकिन 1983 में तेलुगूदेशम पार्टी के सत्ता में आने के बाद एनटी रामा राव के नेतृत्व में कानून व्यवस्था में सुधार हुआ.
इसके बाद उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू के सत्ता में आने पर सांप्रदायिक सद्भाव कायम हुआ. और उन्होंने बीजेपी के साथ करार के बावजूद अपना नियंत्रण बनाए रखा.
प्रोफेसर श्रीनिवासालु कहते हैं, "बीजेपी के लिए तेलंगाना में अपनी जगह बनाने की संभावनाएं टीआरएस की असफ़लताओं से उपजी हैं. युवाओं और छात्रों के बीच काफ़ी निराशा का भाव है. सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था कमजोर पड़ने की वजह से आरएसएस से जुड़े स्कूलों को फलने-फूलने का मौका मिला है. हिंदुस्तानीकरण के समर्थक मध्य वर्ग में भी आपको बीजेपी की ओर एक तरह का झुकाव नज़र आएगा. वहीं, कांग्रेस में नेतृत्व का अभाव है. ऐसे में बीजेपी कम से कम शहरी क्षेत्रों में दूसरी सबसे मजबूत पार्टी का दर्जा हासिल करने की ओर बढ़ रही है.
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कांग्रेस और बीजेपी में संघर्ष
हालांकि, नागार्जुन मानते हैं कि पिछले चुनाव में बीजेपी ने 18 फीसद वोट हासिल किए हैं.
वह कहते हैं, "बीजेपी को सत्ता में आने के लिए चालीस फीसद वोटों की ज़रूरत पड़ेगी जो कि एक कठिन काम है. यही एक तरीका है जिससे वह टीआरएस को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ मिलकर सरकार गठबंधन बनाने से रोक सकती है. केसीआर कांग्रेस की भी मदद ले सकते हैं. वैसे भी कांग्रेस और टीआरएस के बीच दुश्मनी स्थाई नहीं है. इस समय दूसरे स्थान के लिए कांग्रेस और बीजेपी में संघर्ष जारी है."
हालांकि, अगले साल दिसंबर में होने वाले चुनाव में बहुत कुछ इस पर टिका है कि बीजेपी और कांग्रेस पिछड़ी जातियों जैसे मुनुरु कापुस, पद्माशाली, यादव और गौड़ आदि को अपनी ओर लाने के लिए क्या करती हैं.
और टीआरएस तीसरी बार सत्ता पाने के लिए ओबीसी और दलितों के बीच अपनी पैठ बनाए रखने के लिए क्या करेगी.
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तमिलनाडु में बीजेपी किस स्थिति में है?
तेलंगाना से इतर बीजेपी को तमिलनाडु में अभी लंबा सफर तय करना है. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलई के प्रयासों की वजह से भीड़ जुटना शुरू हुई है जो कि पहले नज़र नहीं आया करती थी.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी तीसरे स्थान पर कब्जा करने के लिए अपने दो मजबूत प्रतिद्वंद़्वियों से थोड़ी दूर होगी. हालांकि, बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती द्रविड़ आंदोलन की वजह से तमिलनाडु में पनपी वैचारिक ज़मीन है.
मद्रास यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर रामू मनिवन्नन बीबीसी को बताते हैं, "बीजेपी तमिलनाडु में अपनी मौजूदगी का अहसास कराने के लिए सबकुछ कर रही है. बीजेपी दुश्मनों की जगह सहयोगियों को पहले ख़त्म करने की अच्छी रणनीति पर चल रही है. इस तरह उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके के सामने मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में मदद मिलेगी. बीजेपी इस समय भ्रष्टाचार और वंशवाद की बात कर रही है लेकिन द्रविड़ आंदोलन से निकली पार्टियां ज़मीन पर काफ़ी मजबूत हैं."
पिछले साल बीजेपी ने उत्तर प्रदेश और बिहार विधानसभा चुनाव में भी छोटी जातियों के ज़रिए अपने लिए समर्थन जुटाने का यही तरीका अपनाया था.
बीजेपी ने देवेंद्र वेलालार (समुदाय) में सात उप-जातियों को जोड़ दिया है. लेकिन बीजेपी ने इन जातियों की ओर से उठाई गई एससी श्रेणी से बाहर निकालने की दूसरी मांग नहीं मानी.
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वैचारिक अंतर
इन जाति समूहों में वैचारिक अंतर हैं लेकिन बीजेपी को इन जातियों में कुछ समर्थन हासिल हुआ है.
प्रोफेसर मनिवन्नन कहते हैं, "ऐसा लगता है कि बीजेपी ने तमिलनाडु में जाति समूहों के मामले में एक अलग रणनीति अपनाई है जिसके तहत मठों में फूट डालने की कोशिश की जा रही है. तमिलनाडु के मठ कर्नाटक के जाति मठों जैसे होते हैं. तमिलनाडु में मठ किसी जाति विशेष के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक तबकों के लिए होते हैं. ये जातिगत या सांप्रदायिक मंच नहीं होते हैं. लेकिन अब इन्हें हिंदू उप-जातियों के आधार पर बांटने की कोशिश की जा रही है. भविष्य में ये हो सकता है कि उन्हें कुछ जाति समूहों से समर्थन मिल जाए."
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ सुमंथ पी रमन इस स्थिति को दूसरी नज़र से देखते हैं.
वे कहते हैं, "यहां एक भौगोलिक और जातिगत विभाजन है. बीजेपी का आधार पश्चिमी तमिलनाडु (कोयंबटूर आदि) में हैं जहां अन्ना डीएमके (एमजी रामाचंद्रन और जयललिता की पार्टी) का भी प्रभाव है. इसी क्षेत्र में बीजेपी और अन्ना डीएमके के गठबंधन ने पिछले विधानसभा चुनाव में 76 में से 56 सीटों पर जीत हासिल की है."
थेवर और गौंडर समुदाय पारंपरिक रूप से डीएमके के ख़िलाफ़ वोट देते आए हैं. और डीएमके को पारंपरिक रूप से दलित और अल्पसंख्यक वोट ग़ैर-थेवर, गैर-गौंडर ओबीसी वोट और अच्छी संख्या में वेन्नियार वोट मिलते हैं.
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डॉ रमन कहते हैं, "डीएमके सत्ता में रही है क्योंकि इसने 15 पार्टियों का गठबंधन बनाया है जिसमें कांग्रेस, वामपंथी दल और वीसीके आदि शामिल है. फिलहाल बीजेपी भीड़ जुटा रही है लेकिन इसे तब तक इंतज़ार करना होगा जब तक वोट प्रतिशत दहाई के अंकों में न पहुंच जाए. और बीजेपी को अच्छी स्थिति में आने के लिए 20 फीसद वोट प्रतिशत हासिल करना होगा."
तमिलनाडु की तरह केरल भी एक ऐसा राज्य है जहां सामाजिक और आर्थिक परंपराओं ने एक वैचारिक ज़मीन तैयार की है जहां पर बीजेपी के लिए जगह बनाना एक चुनौती है.
इसकी मूल वजह ये है कि सीपीएम के नेतृत्व वाला लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट मजबूत स्थिति में है और कांग्रेस की स्थिति अभी भी उतनी ख़राब नहीं है जितनी उत्तर भारतीय राज्यों में हो गयी है.
प्रोफेसर प्रभाष कहते हैं, "बीजेपी अभी कांग्रेस के क़रीब भी नहीं है. बीजेपी के पास नेतृत्व की कमी है. और इसे एक नए नैरेटिव और नए नेतृत्व की ज़रूरत है जो कि पार्टी के लिए आधार तैयार कर सके. फिलहाल, सत्ता सीपीएम और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच घूमती है. बीजेपी इन दोनों पार्टियों के विकल्प के रूप में उभरती भी नहीं दिख रही है."
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हालांकि, प्रोफेसर प्रभाष कहते हैं कि अगर कांग्रेस 2026 मे भी विधानसभा चुनाव नहीं जीत पाती है तो उसके लिए अपनी जगह बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा.
वह कहते हैं, "लगातार दो चुनावों में हार की वजह से कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन यूडीएफ़ का टूटना तय है. इसके बाद सवाल उठता है कि कौन सी पार्टी मुसलमानों और ईसाइयों का समर्थन (जनसंख्या के 46 फीसद) हासिल करने में सफल होगी. बीजेपी को कम से कम ईसाई मतदाताओं को रिझाना होगा."
कम शब्दों में कहें तो बीजेपी को अभी मतदाताओं के बीच व्यापक समर्थन हासिल करने के लिए काफ़ी कुछ करना होगा.
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