पॉस्को के बाद अब जिंदल स्टील का भी विरोध क्यों कर रहे जगतसिंहपुर के निवासी
ओडिशा के जगतसिंहपुर में बन रहे जिंदल स्टील प्लांट के विरोध के बीच पुलिस-प्रशासन पर हिंसा के आरोप लग रहे हैं. पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट
पुलिस से भाग रहे उन चार लोगों से हमारी मुलाक़ात कहीं जंगलों में होती है.
साठ साल की शांति दास भी इस ग्रुप का हिस्सा हैं, उनके ख़िलाफ हत्या के प्रयास समेत लगभग दर्जन भर केस दर्ज हैं और उनके शब्दों में वो पिछले दस माह से पुलिस के डर से घर नहीं गई हैं और छुप-छुपकर रह रही हैं.
एक अनुवादक के ज़रिए हुई बातचीत में उनकी असहजता को आसानी से महसूस किया जा सकता है, वो बार-बार अपने आसपास निगाह दौड़ाती रहती हैं और कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के बाद ही अपने एक साथी की मोटर-साइकिल पर सवार होकर हमसे विदा ले लेती हैं, हालांकि हम जहाँ बैठे थे वो जगह मुख्य सड़क से काफ़ी दूर घने पेड़ों के बीच थी.
शांति दास 'जिंदल-पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति' की अहम नेता हैं. ये समूह जगतसिंहपुर के ढिंकिया और पास के गांवों में प्रस्तावित स्टील कारख़ाने, बिजलीघर, सीमेंट प्लांट और समुद्री घाट (जेटी) के निर्माण का विरोध ये कहते हुए कर रहा है कि प्रोजेक्ट वैसे इलाक़े में बन रहा है जहाँ वन क़ानून के मुताबिक़ जंगल की उपज पर वहाँ के निवासियों का अधिकार है.
पॉस्को की जगह जिंदल
65 हज़ार करोड़ रूपयों की लागत से जिंदल समूह यहाँ 13.2 मिलियन टन प्रति वर्ष की क्षमता वाला एक स्टील प्लांट लगाने जा रहा है. साथ ही, कंपनी यहाँ अपने इस्तेमाल के लिए 900 मेगावाट की क्षमता वाला बिजलीघर भी तैयार करेगी.
इसी स्थान पर पहले दक्षिण कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी पॉस्को को काम करना था लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के कारण वो वापस चली गई.
उस समय वन क्षेत्र और अधिकार को लेकर उठे विवाद के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति ने माना था कि इस क्षेत्र में वैसे लोगों का निवास है जो पारंपरिक रूप से वनवासी हैं और उनके अधिकारों को तय किया जाना चाहिए.
ओडिशा सरकार ने उस समय भी क्षेत्र में वन होने की बात से मना किया था.
ग्रामीणों का कहना है कि परियोजना के कारण वो ज़मीनें उनसे छीनी जा रही हैं जिन पर वो लंबे समय से पान की खेती करते रहे हैं, इलाक़े में केवड़े और काजू जैसी चीज़ों की खेती होती है.
सरोज राउत कहते हैं कि क्षेत्र की ज़मीन इतनी उर्वरक है कि "यहां कोई चाकरी नहीं करता, न ही काम की तलाश में बाहर जाता है. अब वो क्या जिंदल कंपनी में मज़दूरी करेंगे?"
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सैकड़ों लोगों पर पुलिस केस
प्रकाश चंद जेना की पान की खेती उनसे 'छीन ली गई', हालांकि उन्हें इसके लिए मुआवज़ा मिला था, कितनी रकम मिली थी उन्हें याद नहीं, लेकिन उनके अनुसार ज़मीन उनसे 'ज़ोर-ज़बरदस्ती से ली गई थी.'
प्रकाश चंद्र जेना माह भर जेल में काटने के बाद ज़मानत पर रिहा हैं.
शांति दास के साथ ही आए युवक सरोज राउत के ख़िलाफ़ दस पुलिस केस दर्ज हैं जिस कारण वो 'घुमंतुओं जैसा जीवन बिता रहे हैं और गांव नहीं जा पा रहे.'
हाई कोर्ट के आदेश पर ढिंकिया ग्राम में चंद माह पहले हुई सुनवाई में सोलह लोगों ने पुलिस पर बर्बरता का आरोप लगाया था. इसी क्रम में ये बात भी सामने आई थीं कि दर्जनों लोग पुलिस मुक़दमे और गिरफ्तारी के डर से गाँव से भागे हुए हैं.
पुलिस ने हालांकि ऐसे लोगों की तादाद तब सिर्फ चार बताई थी.
इस समय भी परियोजना का विरोध कर रहे समूह के स्थानीय नेता देबेंद्र स्वेन जेल में हैं और उन पर हत्या के प्रयास के साथ-साथ दूसरे कई केस पुलिस ने दर्ज कर रखे हैं.
"ग्यारह माह हो गए जेल में, एक केस में ज़मानत होती है तो दूसरा लगाकर बंद कर देते है, पुलिस का गवाह अदालत की तारीख़ पर पहुंचता ही नहीं है", देबेंद्र स्वेन की माँ बस इतना ही कहते हुए हमसे बात करने से मना कर देती हैं.
अनिश्चितता का माहौल
सरकार ने पॉस्को प्रोजेक्ट के लिए दो हज़ार एकड़ से अधिक ज़मीन का अधिग्रहण किया था लेकिन फिर स्थानीय लोगों के विरोध के बाद दक्षिण कोरियाई कंपनी ने परियोजना से साल 2017 में हाथ खींच लिया.
ओडिशा में स्टील कारख़ाने का निर्माण भारत में तब का सबसे बड़ा विदेशी निवेश बताया गया था.
जिंदल स्टील परियोजना को और अधिक ज़मीन की ज़रूरत है जिसके लिए अधिग्रहण का काम जारी है. साथ ही, स्थानीय लोगों का विरोध भी. हालांकि कई लोग अब प्रोजेक्ट के पक्ष में बताए जा रहे हैं..
सुभाष साहू कहते हैं कि पिछले साल भर से इलाक़े में जारी उथल-पथल के बीच ज़िंदगी थम-सी गई है और सवाल पैदा हो गया है कि लोग आगे जीवन किस तरह बिताएंगे जिससे अनिश्चितता पैदा हो गई है?
जटाधार नदी जहाँ बंगाल की खाड़ी में समाती है उसी के किनारे बसा है डेढ़ सौ परिवारों वाला मछुआरों का गांव नोलियासाही.
नदी किनारे से कोई सौ क़दम की दूरी पर ही मछुआरों की झोपड़ियाँ क़तार से मौजूद हैं. नदी में नावें खड़ी हैं, कुछ लोग एक नौका में बैठे जाल लगाए मछली पकड़ने में मशग़ूल हैं.
प्रमोद बेहरा नदी की तरफ़ ही जा रहे होते हैं जब उनसे हमारी मुलाक़ात होती है और फिर बातचीत शुरु हो जाती है, जिसके दरमियान वो बताते हैं कि दो-तीन माह पहले मुआवज़े के तौर पर उन्हें 44 हज़ार रूपये मिले थे और कहा गया था कि इतनी ही और रक़म उन्हें और दी जाएगी लेकिन उसके बाद उनके पास किसी तरह की सूचना नहीं है.
आवाजाही में बाधा
गाँव में ऐसी चर्चा है कि यहाँ पास में ही जिंदल कंपनी की जेटी तैयार होगी जिसके चलते लोगों को वहाँ से विस्थापित होना पड़ेगा.
सचिकांत महापात्रा कहते हैं कि बेहतर दिनों में वो रोज़ाना तीन से पाँच हज़ार रूपये तक कमा लेते हैं और कई बार तो ये रक़म उससे भी अधिक हो जाती है.
मछली के क्रेट्स यहाँ से पारादीप और फिर वहां से कोलकाता भेजने वाले थोक व्यापारी सचिकांत महापात्रा आशंकित हैं कि एक बार जेटी बन जाएगी तो मछुआरों की आवाजाही में बाधा पैदा होगी जिसका असर उनकी कमाई पर पड़ेगा.
हालांकि जेटी के तैयार होने को लेकर जिंदल की ओर से साफ़ तौर पर कुछ नहीं कहा जा रहा है
लेकिन महालगांव के पास एक बड़े क्षेत्र को चारदीवारी से घेर दिया है और वहां एक सड़क भी तैयार की गई है.
जिंदल के अनुसार उसे स्टील कंपनी तैयार करने के लिए इस साल के अप्रैल माह में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से पर्यावरण मंज़ूरी मिल गई है और निर्माण का काम चरणों में राज्य सरकार द्वारा भूमि सौंपे जाने के बाद शुरू होगा.
स्थानीय विधायक रघुनंदन दास का कहना है कि जिंदल परियोजना स्थानीय ग्रामीणों के जीवन में खुशहाली लाएगी इसलिए सभी को इसमें सहयोग देना चाहिए. उनके अनुसार ये राज्य के हित में है.
रघुनंदन दास स्थानीय विधायक ही नहीं, नबीन पटनायक की सरकार में पूर्व में र्मंत्री रहे हैं.
प्रोजेक्ट के समर्थक
रघुनंदन दास कहते हैं, "बहुत कम लोग ही हैं जो परियोजना का विरोध कर रहे हैं, और पॉस्को के समय से ये ट्रेंड हो गया है कि किसी भी तरह के विकास के कामों का विरोध किया जाए. उस समय भी यहां के लोगों के अलावा देश के दूसरे हिस्सों से कुछ लोग आ गए थे जिन्होंने सारे मामले को तूल दिया".
गाँव के तिराहे पर हमारी मुलाक़ात संतोष मोहंती से होती है जो उन लोगों पर सवाल उठाते हैं जो पान से बेहतर आमदनी के नाम पर स्टील प्लांट का विरोध कर रहे हैं, वे कहते हैं, "पान की क़ीमत अब भी बाज़ार में वही है जो 15-20 साल पहले होती थी, बल्कि इसकी माँग दिन-ब-दिन घटती जा रही है क्योंकि लोग का रूझान पान-मसाले की तरफ़ बढ़ रहा है."
वहीं बैठे अधेड़ उम्र के विवेकानंद बताते हैं कि वो उन लोगों में शामिल थे जो पॉस्को प्लांट के पक्ष में थे इसलिए दक्षिण कोरियाई कंपनी के प्रोजेक्ट्स से हाथ खींचने के बाद उन्हें और कई दूसरे परिवारों को पॉस्को विरोधी ख़ेमे ने गांव से खदेड़ दिया था.
उनके अनुसार वो दो-तीन साल पहले फिर से वापस लौटे हैं और ज़िंदगी नए सिरे से शुरु करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि पंपिंग सेट का काम करने वाले विवेकानंद के कामकाज पर क्षेत्र में मची उठा-पटक का बहुत असर पड़ रहा है.
यह उन आठ गाँवों में से एक है जहाँ भूमि का अधिग्रहण स्टील और सीमेंट प्लांट के लिए हो रहा है.
संतोष मोहंती कहते हैं कि कंपनी में गांव के तीन लड़कों को सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम मिला है जिन्हें बारह हज़ार रूपये महीना तनख्वाह मिलेगी और फिलहाल उन तीनों की ट्रेनिंग जारी है.
कंपनी को सब पता है
वो ज़िला प्रशासन, जिंदल कंपनी और ग्रामीणों के प्रतिनिधियों की उस बैठक का ज़िक्र करते हैं जिसमें कंपनी ने भूमि अधिग्रहण के दायरे में आने वाले गाँवों के राशन कार्डधारकों के परिवार के एक योग्य व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर काम देने का वादा किया था.
वहीं बैठे एक युवा ने कहा, 'हम कहना जो चाहते हैं, वह कह नहीं पा रहे हैं, बहुत दबाव है.'
हमारे जगसिंहपुर पहुँचने के दो-एक दिन पहले से हमारे पास एक व्यक्ति का फोन आने लगा कि आप साइट पर कब आ रहे हैं? हमारे ये पूछने पर कि उन्हें किस तरह मालूम कि हम वहाँ जाने वाले हैं जबकि हमने इक्का-दुक्का लोगों के अलावा किसी को ये बात बताई भी नहीं थी, वो कहने लगे कि हमें भुवनेश्वर से कंपनी के अमुक अधिकारी ने बताया है कि आप आने वाले हैं, उन्होंने ख़ुद को स्टील कंपनी का प्रतिनिधि बताया.
तक़रीबन दस माह पहले चौदह जनवरी को ढिंकिया में पुलिस के लाठीचार्ज में बीसियों लोगों को चोटें आई थीं जिसे लेकर मानवधिकार समूहों ने सवाल भी उठाए थे और हाई कोर्ट में अर्ज़ियां भी दाख़िल की गई थीं.
पुलिस प्रशासन ने दावा किया था कि ग्रामीणों की एक उग्र भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया जिसके नतीजे में लाठीचार्ज हुआ और लोग घायल हो गए.
ग्रामीणों का कहना है कि पुलिस ने लगभग पंद्रह दिनों से ढिंकिया गांव के चारों तरफ़ कुछ इस तरह का बंदोबस्त कर रखा था कि लोगों का वहां से बाहर निकलना तक मुश्किल हो गया था.
शांति दास ने कहा, पान की खेती बहुत नाज़ुक होती है और उसमें हर कुछ दिन पर पानी देना होता है. जब काफ़ी दिन हो गए और लोगों को बाहर जाने को न मिला तो लोगों ने साथ मिलकर गांव से निकलकर खेतों में जाने की ठानी और ऐसा करते ही "पुलिस ने लोगों की बेरहमी से पिटाई की."
अपने शरीर पर चोटों के निशानों को दिखाने की वो कोशिश करती हैं. गांव के कुछ अन्य लोग 'संघर्ष' की बात कहते हैं.
पुलिस पर लग रहे बर्बरता के आरोप को लेकर जब हमने रघुनंदन दास से सवाल किया तो उनका कहना था कि लोग जिस तरह के आरोप लगा रहे हैं वो सही नहीं है और आम लोगों के बीच कुछ लोग हैं जो पूरे मामले में हिंसा से काम लेते हैं.
ज़मीन गई नौकरी भी न मिली
नवीन पटनायक सरकार में वित्त मंत्री रह चुके पंचानंद क़ानूनगो से हमने पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है कि पहले क्षेत्र को लोगों ने पॉस्को प्रोजेक्ट का विरोध किया और अब जिंदल स्टील को भी विरोध झेलना पड़ रहा है?
पंचानंद क़ानूनगो कहते हैं कि लोगों को शायद इस बात का एहसास हो गया है कि बड़ी कंपनियों में, जो पूरी तरह मेकनाइज़्ड हैं, नौकरियों की बहुत गुंजाइश नहीं होती है, इसलिए स्थानीय लोगों को वहां शायद छोटा-मोटा काम मिल पाएगा.
नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी को छोड़कर अब कांग्रेस में मौजूद पंचानंद कहते हैं कि जब तक बड़ी फैक्ट्रियों के साथ छोटे कल कारख़ाने नहीं खुलेंगे तब तक रोज़गार की समस्या का निदान नहीं होगा और लोग इस बात को लेकर प्रोजेक्ट्स का विरोध करते रहेंगे.
पर्यावरणविद और मानवधिकार कार्यकर्ता प्रशांत पैकरे कहते हैं कि पुराने प्रोजेक्ट्स को लेकर लोगों का अनुभव बहुत बेहतर नहीं रहा है, चाहे वो हिंडाल्को हो, या सुंदरगढ़ कोयला खदान या फिर जगतसिंहपुर में ही स्थित त्रिलोचनपुर को ले लें.
स्टील प्लांट जहाँ तैयार हो रहा है उसी के पास है त्रिलोचनपुर गांव, जहाँ कुछ सालों पहले सरकारी कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन की रिफाइनरी तैयार हुई थी जिसके लिए ग्रामीणों की ज़मीन का अधिग्रहण किया गया जिसके बदले उन्हें मुआवज़ा मिला और नौकरी का आश्वासन.
अरुण कुमार परिदा का तालुक्क़ उसी गांव से है और उनकी ज़मीन भी रिफाइनरी के लिए अधिग्रहित हुई थी. वो कहते हैं कि हमारी तो ज़मीन गई और नौकरी आज तक नहीं मिली.
अरुण कुमार परीदा फिलहाल छोटा-मोटा काम करके गुज़ारा करते हैं.
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