बहन-भाई से जलन कब बच्चे को क़ातिल बना देती है?
भाई-बहन से जलन एक सामान्य बात है. लेकिन इसे समझने में भूल महंगी पड़ सकती है.
"सोफे पर पढ़ाई नहीं हो सकती, टेबल चेयर पर बैठ कर पढ़ो"
देखो छोटी बहन को, "इस बार हर टेस्ट में उसके फ़ुल मार्क्स आए हैं और तुम्हारे..?"
क्या आप भी अपने बेटे या बेटी को उसके छोटे भाई-बहन के सामने अकसर ऐसा बोलते हैं?
क्या आपका बच्चा आपसे अकसर दूसरे भाई या बहन को ज़्यादा प्यार करने की शिकायत करता है?
अगर ऐसा है तो ये बात हंस कर उड़ा देने वाली नहीं है. ये गंभीर मामला है.
अभिभावक के तौर पर इसकी अनदेखी तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए.
दिल्ली से सटे नोएडा में स्थानीय पुलिस के मुताबिक 16 साल के एक बच्चे ने अपनी मां और बहन का क़त्ल कर दिया. पुलिस की पूछताछ में ये बात भी सामने आई है कि लड़के के माता-पिता उसकी 11 साल की बहन को ज़्यादा प्यार करते थे. इस बात की जलन उसे हमेशा रहती थी.
भाई-बहन से जलन क्या इतनी ख़तरनाक हो सकती है?
चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट रेणु नारगुंडे के मुताबिक, "सोलह साल के बच्चे के साथ माता-पिता को ख़ास ख़्याल रखना पड़ता है. ये वो उम्र होती है जब आप बच्चे को न तो बड़ा मान सकते हैं और न ही बच्चा. लेकिन बच्चे के अंदर अपनी चाहतें होती हैं. माता-पिता को उन चाहतों को समझने की ज़रूरत होती है. इसके लिए ज़रूरी है कि कभी मां बच्चा बन कर उसे समझाए तो कभी बड़ा बन कर."
रेणु के मुताबिक जलन होना बुरी बात नहीं है. लेकिन जलन को कैसे हैंडल करना है, ये बच्चे को बताना ज़रूरी है.
रेणु कहती हैं, "दिक़्कत ये है कि जलन जैसी सामान्य बात को हम निगेटिव मानते हैं, जबकि घर में खुल कर इस पर बात होनी चाहिए. जब भी बच्चे को अपने दूसरे भाई-बहन से जलन हो तो उसे माता-पिता में से किसी एक के साथ इसे शेयर करना चाहिए. अभिभावकों को चाहिए कि वो उन्हें पॉजीटिव तरीके से उससे निकलने का हल बताएं."
लेकिन पॉजीटिव तरीक़े से जलन को कैसे समझाएं?
इस पर चाइल्ट साइकोलॉजिस्ट प्राची बतातीं है, "बच्चों की तुलना हमें घर या बाहर के दूसरे बच्चे से नहीं करनी चाहिए बल्कि ख़ुद उसके पिछले रिकॉर्ड से करनी चाहिए."
इसके लिए प्राची उदाहरण भी देती हैं. टेस्ट में मार्क्स कम आने पर माता-पिता दो तरीक़े से रिऐक्ट करते हैं.
एक जो कहते हैं, "तुम्हारी बहन को देखो हर सब्जेक्ट में फुल मार्क्स आते हैं"
प्राची के मुताबिक ये ग़लत रास्ता है. उनके मुताबिक माता-पिता को ये बोलना चाहिए कि 'तुम्हें इसी विषय में पिछली बार अच्छे नम्बर मिले थे इस बार उसके मुकाबले ख़राब, ऐसा क्यों ?'
ऊपर के दोनों उदाहरण में माता-पिता एक ही समस्या पर बात कर रहे हैं - मार्क्स कम क्यों आए. लेकिन पहला तरीका दूसरे भाई-बहन के लिए बच्चे में जलन पैदा करता है और वो भी नकारात्मक. लेकिन दूसरे में माता-पिता जलन पैदा करते हैं पर सकारात्मक.
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बच्चे में कैसे पहचानें नकारात्मक जलन?
प्राची मानती हैं कि कई बार बच्चों के व्यवहार में इस तरह के बदलाव को आप आसानी से समझ सकते हैं. लेकिन कई बार बच्चे में इसके कोई लक्षण होते ही नहीं हैं.
प्राची मानती हैं, "आमतौर पर ऐसा होने पर बहुत बोलने वाला बच्चा चुपचाप रहने लगता है, सहमा हुआ रहता है, स्कूल की बातें छुपाता है, कई बार ओवर रिऐक्ट करता है. बिना डांट, बिना मार के भी डरा हुआ रहता है"
लेकिन मामला किशोर-किशोरियों से जुड़ा हो तो थोड़ा अलग दिखता है.
रेणु बताती हैं, "सोलह की उम्र में बच्चों के अंदर कई तरह के हॉर्मोनल बदलाव होते हैं जिसके बारे में भी माता-पिता को बच्चे से बात करते रहना चाहिए. इस तरह के बदलाव के बाद बच्चों में तरह-तरह की भावनाएं आने लगती हैं. परिवार को एक साथ बैठकर इस बारे में बात करनी चाहिए."
दस साल के बच्चे के साथ आप डराकर अपनी बात मनवा सकते हैं.
लेकिन 12-13 साल के बाद माता-पिता के उसी बर्ताव पर बच्चा अलग तरह से पेश आता है. रेणु के मुताबिक हमें बच्चे के अंदर आ रहे इस बदलाव को समझने की ज़रूरत है.
दिल्ली से सटे नोएडा में जिस बच्चे ने अपनी मां और छोटी बहन की हत्या कर दी, पुलिस को जांच में पता चला कि बच्चे को मोबाइल पर गेम खेलने की आदत थी. माता-पिता ने उससे तीन महीने पहले मोबाइल ले लिया था जिसकी वजह से भी वो चिड़चिड़ा रहने लगा था.
रेणु कहती हैं, "ऐसी सूरत में माता-पिता में से किसी एक को चाहिए था कि उससे बैठ कर बात करते कि मोबाइल न होने पर उस पर क्या बीत रही है. अकसर इस तरह की परिस्थिति में बच्चों को गुस्सा तेज़ आता है लेकिन गुस्से से कैसे निपटना है ये माता-पिता को समझना चाहिए."
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जलन से निपटने के उपाए
प्राची बताती हैं कि ऐसे जलन के शिकार बच्चे से सबसे पहले माता-पिता में जो उसका सबसे क़रीबी हो, उसको विस्तार से बात करनी चाहिए. ये पहला कदम होता है.
अगर इसके बाद भी बात नहीं बनती है तो परिवार में कोई और सदस्य जैसे दादा-दादी, कोई रिश्तेदार जो बच्चे से ज़्यादा घुला-मिला हो, उसको बच्चे से उसकी दिक्कत के बारे में पूछना चाहिए और माता-पिता के व्यवहार के बारे में भी बात करनी चाहिए.
लेकिन इन दोनों स्थिति में बात नहीं बनती तो काउंसिलर की मदद लेनी चाहिए, जो स्कूल में हो सकता है या फिर किसी अस्पताल में भी.
प्राची के मुताबिक 'काउंसिलर के पास ले जाने के पहले बच्चे को मानसिक तौर पर तैयार करने की ज़रूरत होती है. बहुत ज़रूरी है कि बच्चे को ये बताया जाए कि काउंसिलिंग किस लिए हो रही है? ये बच्चे की काउंसिलिंग नहीं हो रही बल्कि परिवार की हो रही है. पूरे मामले में माता- पिता भी ग़लत हो सकते हैं.'
काउंसिलिंग की प्रक्रिया छह महीने से छह साल तक चल सकती है जिसमें बच्चे का काउंसिलर से घुलना-मिलना बेहद ज़रूरी होता है.
लेकिन प्राची बताती हैं, "कई बार प्रक्रिया पूरी होने पर ये भी पता चलता है कि बच्चे के व्यवहार के लिए माता-पिता दोषी होते हैं बच्चे नहीं. ऐसे में माता-पिता को भी अपने व्यवहार में कई बदलाव करने पड़ते हैं.".
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