क्या किसानों की मांगों को पूरा करने की स्थिति में है सरकार
मिसाल के तौर पर कॉटन का एमएसपी पिछले साल 4,520 रुपये था. इस साल इसे बढ़ाकर 5450 रुपये कर दिया गया.
मीडियम कॉटन 4000 से बढ़कर करीब 5100 रुपये हो गया. मूंग के एमएसपी में भी काफ़ी बढ़ोतरी की गई.
सोयाबीन, कॉटन और दालों के किसानों की ज़मीन सिंचित नहीं होती है. ये लोग वर्षा आधारित कृषि करते हैं.
ये फसलें अभी आना शुरू हुई हैं, लेकिन एमएसपी की वजह से दाम इतने बढ़ गए हैं कि पता नहीं इन्हें ख़रीदा जाएगा या नहीं.
अपनी मांगों को लेकर दिल्ली की ओर निकले किसानों को दिल्ली-उत्तर प्रदेश की सीमा पर ही रोक दिया गया.
पुलिस ने किसानों को पीछे हटाने के लिए पानी की बौछार, रबर की गोलियों और आंसू गैस के गोले इस्तेमाल किए.
ये किसान कर्ज़ और बिजली बिल की माफ़ी और स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें मानने समेत कई मांगों को लेकर भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले अलग-अलग राज्यों से दिल्ली के लिए कूच कर रहे थे.
इस प्रदर्शन को लेकर बीबीसी संवाददाता कुलदीप मिश्र ने पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन से बात की और पूछा कि इस प्रदर्शन को एक संगठन की ओर से आयोजित प्रदर्शन की तरह देखा जाए या वाकई में देश के किसान निराश, हताश और गुस्से में हैं.
साथ ही यह भी जानना चाहा कि सरकार किसानों की नाराज़गी कैसे दूर सकती है.
पढ़िए, सिराज हुसैन का नज़रिया उन्हीं के शब्दों में:
गन्ना किसानों की नाराज़गी
प्रदर्शन में शामिल ज़्यादातर किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा से थे.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने के किसान इस समय ख़ासे ग़ुस्से में हैं. ये ग़ुस्सा इसलिए है क्योंकि उनकी फसल का भुगतान लटका हुआ है. इसे लेकर वे काफ़ी परेशान हैं.
ये बात सही है कि किसान पिछले तीन सालों में दाम गिरने की वजह से दिक्कतों का सामना कर रहे हैं.
हालांकि गन्ने के किसानों को दाम गिरने से फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उनका दाम फ़िक्स है. लेकिन उन्हें पैसे मिलने में देरी हो रही है.
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'सरकार ने काम किया है'
इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि किसानों को अपने उत्पाद का मुनासिब दाम नहीं मिल पा रहा है.
लेकिन कुछ राज्यों में गन्ने की फसल को चीनी की मिलें ख़रीद लेती हैं जबकि गेहूं और धान को सरकार ख़रीदती है.
पिछले दो साल में केंद्र और राज्य सरकारों ने अच्छा काम किया है. सरकार ने क़रीब चार से पांच मिलियन टन दालें ख़रीदी हैं.
लेकिन उसके आगे ख़रीद ना होने की वजह से और वैश्विक दाम बहुत कम होने की वजह से हमारे निर्यात पर बुरा असर पड़ा है. इसकी वजह से हमारे देश के अंदर भी दाम गिरे हैं.
इस दबाव में सरकार ने 2018-19 की खरीफ़ के लिए एमएसपी में काफ़ी इज़ाफा किया है.
मिसाल के तौर पर कॉटन का एमएसपी पिछले साल 4,520 रुपये था. इस साल इसे बढ़ाकर 5450 रुपये कर दिया गया.
मीडियम कॉटन 4000 से बढ़कर करीब 5100 रुपये हो गया. मूंग के एमएसपी में भी काफ़ी बढ़ोतरी की गई.
सोयाबीन, कॉटन और दालों के किसानों की ज़मीन सिंचित नहीं होती है. ये लोग वर्षा आधारित कृषि करते हैं.
ये फसलें अभी आना शुरू हुई हैं, लेकिन एमएसपी की वजह से दाम इतने बढ़ गए हैं कि पता नहीं इन्हें ख़रीदा जाएगा या नहीं.
शुरुआती संकेतों से लगता है कि दाम नीचे रह सकते हैं.
स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें
किसानों के हर प्रदर्शन में स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की मांग ज़रूर होती है. हर बार सरकार की ओर से आश्वासन भी दिए जाते हैं. लेकिन ये सिफ़ारिशें लागू नहीं हो पातीं. सवाल उठता है कि क्या इसमें कोई व्यावाहरिक मुश्किलें आती हैं?
किसान नेता, विपक्षी पार्टियां और सरकार, सभी अच्छी तरह जानते हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करना ना तो मुनासिब है और ना ही संभव. क्योंकि किसी भी चीज़ की कीमत को आप उसकी डिमांड से एकदम अलग नहीं कर सकते.
इस साल सरकार पहले से ही एमएसपी में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी कर चुकी है. ये कीमत बाज़ार में मिलना मुश्किल है.
मक्का की ही बात कर लें तो पिछले साल इसका एमएसपी 1425 रुपये था. इस साल ये 1700 रुपए प्रति क्विंटल (100 किलोग्राम) है. ये दाम ही मार्केट में मिलना मुश्किल है. 1700 रुपये में कौन खरीदेगा?
स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद तो ये और महंगा हो जाएगा और ग्लोबल मार्केट के दाम तो पहले से कम हैं.
जो दाम सरकार ने तय किए हैं, वही मार्केट नहीं दे पा रहा, इसलिए स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें मानना असंभव है.
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