किस हाल में हैं इस्लामिक स्टेट के वो ख़ूंख़ार बर्बर लड़ाके
नवंबर, 2016 में इराक़ के सुरक्षाबलों ने खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले चरमपंथी संगठन के गढ़ मूसल को घेर लिया था.
शहर की सड़कों और गलियों पर क़ब्ज़े की लड़ाई हो रही थी. एक-एक मकान की तलाशी ली जा रही थी.
मार-धाड़ से बचने के लिए दसियों हज़ार लोग मूसल शहर छोड़कर भाग रहे थे. धीरे-धीरे करके इराक़ की सेना ने मूसल को इस्लामिक स्टेट के शिकंजे से छुड़ा लिया.
नवंबर, 2016 में इराक़ के सुरक्षाबलों ने खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले चरमपंथी संगठन के गढ़ मूसल को घेर लिया था.
शहर की सड़कों और गलियों पर क़ब्ज़े की लड़ाई हो रही थी. एक-एक मकान की तलाशी ली जा रही थी.
मार-धाड़ से बचने के लिए दसियों हज़ार लोग मूसल शहर छोड़कर भाग रहे थे. धीरे-धीरे करके इराक़ की सेना ने मूसल को इस्लामिक स्टेट के शिकंजे से छुड़ा लिया.
ये अंजाम नहीं, आग़ाज़ था. शुरुआत थी नई जंग और जद्दोज़हद की. इस्लामिक स्टेट के उन लड़ाकों की तलाश की जो उसके लिए लड़ रहे थे.
आख़िर कहां गई बग़दादी ब्रिगेड? इस्लामिक स्टेट को तमाम मोर्चों पर हार मिली है. इराक़ और सीरिया से उसका कमोबेश ख़ात्मा हो चुका है.
लड़ाके हैं क़ैद में
सवाल ये है कि आख़िर अब इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों का क्या हाल है? इस्लामिक स्टेट ने कई साल तक इराक़ के एक बड़े हिस्से पर राज किया था.
इस दौरान आम लोगों को तमाम तरह के ज़ुल्मो-सितम का शिकार होना पड़ा. सरेआम कोड़े मारे गए. किसी का सिर काट लिया गया तो किसी के हाथ-पैर.
अब इस्लामिक स्टेट से आज़ादी मिली है तो लोग इंसाफ़ मांग रहे हैं. वो चाहते हैं कि इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने वालों को चुन-चुनकर मौत के घाट उतार दिया जाए.
इराक़ की सेना ने बग़दादी ब्रिगेड के लड़ाकों की फ़ेहरिस्त बनाई है. इन्हें देश भर में तलाशकर गिरफ़्तार किया जा रहा है.
इस्लामिक स्टेट के इन लड़ाकों को ख़ाली पड़े मकानों में क़ैद करके रखा जा रहा है.
बेहद अमानवीय हालात में
ह्यूमन राइट्स वॉच की बिल्कीस वल्ला बताती हैं कि इस्लामिक स्टेट से जुड़े लोगों को बेहद अमानवीय हालात में क़ैद कर के रखा जा रहा है.
ऐसे ही एक क़ैदख़ाने का दौरा करने के बाद बिल्कीस ने बताया कि 4 मीटर गुणा 6 मीटर के एक कमरे में उन्होंने देखा कि 300 से ज़्यादा लोगों को रखा गया था.
जगह इतनी कम की किसी के लिए खड़ा होना भी मुश्किल. गर्मी इतनी कि बदन झुलस जाए और बदबू इस क़दर कि इंसान सांस लेने में ही मर जाए.
इस क़ैदख़ाने को चलाने वाले ने बिल्कीस को बताया कि बदबू और गर्मी से 4 लोगों की मौत हो गई थी.
इराक़ में सुरक्षाबल और प्रशासन, स्थानीय लोगों की मदद से इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने वालों की पहचान करते हैं. फिर उन्हें गिरफ़्तार करके कोर्ट में पेश किया जाता है.
इस तरह होती है कार्रवाई
यानी अगर स्थानीय जनता ने किसी के बारे में ये कह दिया कि वो बग़दादी ब्रिगेड से जुड़ा था तो बिना किसी सवाल-जवाब के उसे पकड़ लिया जाता है.
बिल्कीस वल्ला कहती हैं कि इन लोगों को टॉर्चर करके ये क़बूलवाया जाता है कि वो इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ते थे.
कई लोगों ने तो मजबूरी में ये माना कि वो बग़दादी ब्रिगेड का हिस्सा थे.
जब, संदिग्ध शख़्स ये मान लेते हैं कि वो इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ते थे, तो फिर उन्हें अदालत में पेश किया जाता है.
उनके इक़बालिया बयान को ही सच मानकर फिर उन पर मुक़दमा चलाया जाता है. सरकार इन लड़ाकों को वक़ील तो मुहैया कराती है.
इस्लामिक स्टेट के लड़ाके
मगर बिल्कीस कहती हैं कि ये महज़ खाना-पूर्ति होती है. आनन-फ़ानन में मुक़दमा चलाकर इस्लामिक स्टेट के इन संदिग्ध लड़ाकों को मौत की सज़ा सुना दी जाती है.
ये लड़ाके भी इसे अपना नसीब मानकर मंज़ूर कर लेते हैं. इराक़ में दसियों हज़ार इस्लामिक स्टेट के लड़ाके क़ैद हैं जिन पर ऐसे ही मुक़दमे चलाए जा रहे हैं.
इराक़ का आपराधिक क़ानून 9 साल की उम्र के बच्चों पर भी लागू होता है. तो इस्लामिक स्टेट के इन क़ैद लड़ाकों मे कई बच्चे भी हैं.
सबसे कम उम्र के आरोपी की उम्र महज़ 13 बरस है. ज़ाहिर है कि इन लड़ाकों पर आरोप भले ही संगीन हों, मगर इंसाफ़ तो उन्हें भी नहीं मिल रहा.
सरकारी एजेंसियां सही तरीक़े से जांच किए बिना ही उन्हें अदालत में पेश कर रही हैं. मुक़दमे के नाम पर लीपा-पोती हो रही है.
घर लौट रहे हैं लड़ाके
बिल्कीस कहती हैं कि अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो शायद कई लोग बरी हो जाएं. लेकिन इसमें काफ़ी वक़्त लग जाएगा.
और, इस्लामिक स्टेट के ज़ुल्म के शिकार लोगों को ये देरी मंज़ूर नहीं. इराक़ में सिर्फ़ अपने नागरिकों पर ऐसे मुक़दमे नहीं चल रहे हैं.
बग़दादी ब्रिगेड के कई विदेशी लड़ाकों को भी मौत की सज़ा सुनाई गई है. हालांकि कई विदेशी इस्लामिक स्टेट फ़ाइटर, बचकर अपने मुल्क़ लौट रहे हैं.
लेकिन, ये इतना आसान काम नहीं. रूस, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्की जैसे देशों के कई नागरिकों ने इस्लामिक स्टेट की तरफ़ से जंग में हिस्सा लिया था.
अब, युद्ध ख़त्म होने के बाद जब ये लड़ाके अपने घर लौटने की कोशिश कर रहे हैं, तो उनके देश की सुरक्षा बल और ख़ुफ़िया एजेंसियां उनकी तलाश कर रही हैं.
रूस की सरकार
इन लड़ाकों के घरवालों पर दबाव बनाया जा रहा है कि इराक़ से लौट रहे अपने परिवार के सदस्यों को प्रशासन के हवाले करें. इन लोगों से पूछताछ की जाती है.
इनके ख़िलाफ़ जो आरोप होते हैं, उनकी पड़ताल होती है. अगर सबूत हैं, तो फिर इस्लामिक स्टेट के इन पूर्व लड़ाकों पर उनके अपने देश में मुक़दमा चलाया जाता है.
हालांकि, सबूत न होने पर कई बार इन्हें अपने वतन में माफ़ भी किया जाता है.
हाल ही में ताजिकिस्तान ने इराक़ से लौटे सैकड़ों इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों को बरी कर दिया था.
रूस के क़रीब 4 हज़ार नागरिक, इराक़ में इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ रहे थे. अब रूस की सरकार इराक़ की मदद से इन लड़ाकों को स्वदेश लाने की कोशिश कर रही है.
ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है...
रूस की सरकार की कोशिश ये पता लगाने की है कि आख़िर इन्हें किस तरह से बग़दादी ब्रिगेड में भर्ती किया गया? वो किसके इशारे पर विदेश लड़ने के लिए गए?
किस तरह के साहित्य से उनका झुकाव इस्लामिक स्टेट की तरफ़ हुआ? इन रूसी लड़ाकों से इन सवालों के जवाब हासिल करने के बाद रूस की सरकार उन्हें जेल भेजेगी.
ये बात कमोबेश तय है. रूस की सरकार इस्लामिक स्टेट के इन लड़ाकों से अपना हित साधने की कोशिश कर रही है.
इनके ज़रिए युवाओं को संदेश दिया जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट बहुत बुरी चीज़ है. उसके झांसे में आने से ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है. परिवार बर्बाद हो जाता है.
हाल ही में रूस के टीवी चैनलों पर इस्लामिक स्टेट के ऐसे ही पूर्व लड़ाके का इंटरव्यू दिखाया गया जिसमें उसने बताया कि वो किस तरह इस्लामिक स्टेट के झांसे में आया.
और, इस वजह से उसकी ज़िंदगी तबाह हो गई. यानी इराक़ में जंग ख़त्म होने के बाद बग़दादी ब्रिगेड के कई लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान या यूक्रेन जाकर लड़ रहे हैं.
लेकिन, बग़दादी ब्रिगेड के कई लड़ाकों को जेल जाने से नई ज़िंदगी भी मिल रही है. सऊदी अरब से भी हज़ारों लोग, इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने इराक़ गए थे.
इनमें से क़रीब एक हज़ार लोगों को गिरफ़्तार करके सऊदी अरब लाया गया है जिनके ख़िलाफ़ हिंसा के सबूत हैं, उन पर मुक़दमे चलाए जा रहे हैं.
जुर्म साबित होने पर उन्हें मौत की सज़ा दी जा रही है. आज की तारीख़ में क़रीब 752 इस्लामिक स्टेट के लड़ाके सऊदी अरब की जेलों में क़ैद हैं.
सऊदी अरब इस्लामिक स्टेट की विचारधारा के शिकार इन लोगों को बदलने की कोशिश कर रहा है. इसके लिए इस्लामी विद्वानों और मनोवैज्ञानिकों की मदद ली जा रही है.
सऊदी अरब में हैंडबुक
इन पूर्व लड़ाकों को समझाया जा रहा है कि किस तरह इस्लाम के नाम पर उन्हें बरगलाया गया.
सऊदी अरब के आतंकवादियों की घर वापसी वाले इस कार्यक्रम को रियाद के डॉक्टर अब्दुल्ला अल सऊद ने क़रीब से देखा है.
डॉक्टर अब्दुल्ला अल सऊद बताते हैं कि हाल ही में सऊदी अरब ने एक हैंडबुक छापी है.
इस हैंडबुक में इस्लामी विद्वानों ने बताया है कि किस तरह इस्लामिक स्टेट ने इस्लाम धर्म को तोड़-मरोड़कर लोगों को हिंसा के लिए बरगलाया है.
जेल में क़ैद लड़ाकों में अगर कोई बदलाव देखा जाता है. वो कट्टर ख़यालात से दूरी बनाते हैं, तो फिर उन्हें जेलों से अलग बेहतर सुविधाओं वाली जगह पर रखा जाता है.
कल्चरल थेरेपी
डॉक्टर अब्दुल्ला अल सऊद इन्हें एंटी टेरर रिहैबिलिटेशन सेंटर यानी आतंकवाद निरोधक सुधार केंद्र कहते हैं.
यहां इन पूर्व आतंकवादियों को अपनी कला दिखाने का मौक़ा दिया जाता है. आर्ट थेरेपी के ज़रिए वो अपने ग़ुस्से, तकलीफ़ और दर्द को बयां करते हैं.
यहां उनकी पहचान बदलती है. उनके नाम बदलते हैं. इसके बाद उनकी कल्चरल थेरेपी की जाती है.
डॉक्टर अब्दुल्ला कहते हैं कि पूरी तरह सुधर जाने के बाद इन आतंकवादियों को नई ज़िंदगी शुरू करने में मदद की जाती है.
अगर किसी के पास परिवार और पैसे का सहारा नहीं है, तो सरकार उन्हें मदद मुहैया कराती है.
सऊदी अरब में ऐसे आतंकवाद निरोधी सुधार केंद्र पिछले एक दशक से चलाए जा रहे हैं. इन केंद्रों में क़रीब 3 हज़ार लोगों को सुधार की ट्रेनिंग दी गई है.
कट्टर विचारधारा
इनमें से 20 फ़ीसद ही दोबारा हिंसा के रास्ते पर लौटे हैं. हालांकि, इस कार्यक्रम के विरोधी कहते हैं कि ये कार्यक्रम सऊदी अरब की अपनी छवि चमकाने की कोशिश भर है.
फिर भी यूरोपीय देशों में सऊदी अरब के इस कार्यक्रम को दिलचस्पी से देखा जा रहा है.
असल में क़रीब सात हज़ार यूरोपीय नागरिक भी इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने मध्य-पूर्व के देशों मे गए थे.
अब इनमें से क़रीब 2 हज़ार स्वदेश लौटे हैं तो यूरोपीय देशों के लिए भी उन्हें मुख्य धारा में वापस लाने की चुनौती है.
स्वदेश लौटे क़रीब दो हज़ार लड़ाकों में से आधे ऐसे हैं जिनका हिंसक और कट्टर विचारधारा में भरोसा बना हुआ है.
क़ानून ऐसा था...
यूरोपीय देशों को समझ में नहीं आ रहा है कि आख़िर इन लड़ाकों का करें तो क्या करें? पहले तो क़ानून ऐसा था कि इन पर मुक़दमे नहीं चलाए जा सकते.
बढ़ते ख़तरे को देखते हुए यूरोपीय देशों ने क़ानून तो बदला, मगर तब तक सैकड़ों इस्लामिक स्टेट लड़ाके स्वदेश लौटकर समाज का हिस्सा बन चुके थे.
आगे चलकर ये ख़तरा न बनें, इसके लिए यूरोपीय देशों के अधिकारी परेशान हैं.
इस्लामिक स्टेट की तरफ़ से लड़ने के लिए सबसे ज़्यादा फ़्रांस के नागरिक इराक़ गए थे.
फ़्रांस ऐसे संदिग्धों को बिना मुक़दमा चलाए ही लंबे वक़्त तक क़ैद करके रख रहा है.
क्या होगा बच्चों का
मैग्नस रैंडस्टोब स्वीडिश डिफ़ेंस यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं. वो स्वीडन की सरकार को आतंकवाद से लड़ने के लिए सलाह देते हैं.
फ़्रांस के नेता चाहते हैं कि इन कट्टरपंथी लड़ाकों को सज़ा होनी चाहिए. लेकिन दिक़्क़त ये है कि इनकी वजह से जेलों में क़ैद लोग भी कट्टरपंथी इस्लाम की तरफ़ झुक रहे हैं.
मैग्नस का कहना है कि ये और भी बड़ी चुनौती बन रहा है. वो फ़्रांस के बजाय डेनमार्क के तरीक़े को ज़्यादा बेहतर मानते हैं.
डेनमार्क में सरकार सज़ा काट चुके इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों को नई ज़िंदगी शुरू करने में मदद करती है.
जेल से बाहर आने पर उन्हें मेंटर यानी अभिभावक दिए जाते हैं जो उन्हें ज़िंदगी को नए सिरे से शुरू करने में मदद करते हैं.
मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग
इस सुधार अभियान में क़ैदियों के परिवारों को भी जोड़ा जाता है. ब्रिटेन में इस्लामिक स्टेट के पूर्व लड़ाकों को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी जा रही है ताकि उनकी लड़ने की आदत का बेहतर इस्तेमाल हो सके.
मगर, चुनौती यही नहीं है. यूरोप से जो सात हज़ार लोग बग़दादी के लिए लड़ने गए थे, उनमें से एक चौथाई महिलाएं थीं. ये महिलाएं अपने साथ बच्चे लेकर लौटी हैं.
या तो वो महिला आतंकवादी अपने साथ बच्चों को लेकर गई थीं या उनके बच्चे इराक़ में रहने के दौरान हुए. इन बच्चों की तादाद सैकड़ों में है.
इनके साथ इस्लामिक स्टेट का नाम जुड़ा है. इन बच्चों को ये भी नहीं पता कि वो इराक़ या सीरिया में जन्मे हैं. पर, समाज उन्हें अच्छी नज़र से नहीं देखता.
मैग्नस कहते हैं कि अगर इन बच्चों को मुख्य धारा में शामिल नहीं किया गया तो बड़े होकर ये भी कट्टरपंथ की तरफ़ झुक सकते हैं.
आतंकवाद और बेहद हिंसक माहौल में पैदा हुई ये नई पीढ़ी ही शायद आज सबसे बड़ी चुनौती है.