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आज ''लातूर'' और कल इन शहरों में पानी के लिये 'त्राहि-त्राहि'

By हिमांशु तिवारी आत्मीय
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लातूर में पानी लेकर पहुंची ट्रेन की तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुईं। दरअसल इन तस्वीरों से करीबन आप ये तो समझ ही गए होंगे कि पानी की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। ''जल ही जीवन है'' सरीखे तमाम पंक्तियों को पढ़कर भी लोग संभलने का नाम नहीं ले रहे। महज मजाक के इतर शायद ही कुछ और रह गई हैं ये पंक्तियां। आज भी चोरी छिपे पिछड़ों का काटा जा रहा है। लेकिन वृक्षों के लिए भी उपदेशों की कमी नहीं। आप भी अक्सर रास्तों पर चलते हुए पढ़ते होंगे कि वृक्ष धरा का भूषण हैं। है न। पर हकीकत डराने वाली है। बिना पानी, बिना पेड़ पौधे आखिर कैसा होगा जीवन। इस मुद्दे पर वन इंडिया ने पूरी पड़ताल की, पेश है ये रिपोर्ट-

Water Crisis: Many cities could face Latur like situation

'जल' बिना सब 'जग' सूना...

पानी का संकट महज लातूर का ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, ओड़ीशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ समेत एक दर्जन से अधिक राज्यों के लिए है। बहरहाल इस समस्या का व्यापक तौर पर अंदाजा लगाने के लिए आप भारत सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश की गई रिपोर्ट पर भी गौर कर सकते हैं।

आज ''लातूर'' और कल इन शहरों में पानी के लिये 'त्राहि-त्राहि'

इस समय भारत में 33 करोड़ लोग सूखे की समस्या का सामना कर रहे हैं, यानी देश की कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा सूखे का संकट झेल रहा है। लेकिन इस समस्या से निबटने के लिए केंद्र हो या फिर राज्य की सरकारों द्वारा विशेष प्रयास नहीं किए गए। हां वादे जरूर है। लैपटॉप के, स्कूटी के, टीवी के, अच्छे दिनों के। पर, पानी की विकराल समस्या के आगे ये तमाम लुभावनी बातें बेहद बौनी नजर आती हैं। आखिर अस्तित्व ही नहीं होगा तो इन चीजों का हम क्या करेंगे। निश्चित तौर पर ये सवाल आपके भी जेहन में आया होगा।

इस दिशा में भी सोचना जरूरी

केंद्र में मौजूद एनडीए सरकार ने किसानों की खातिर हिमायत बरतते हुए कई योजनाओं का शुभारंभ किया। स्वायल हेल्थ हो या फिर जन धन, फसल बीमा हो या जीवन ज्योति। पर इन सारी योजनाओं पर सवाल मुंह बाए खड़े हैं। सवाल ये कि फसल बीमा योजना आखिर कब तक देते रहेंगे, जब पानी ही न रहा तो।

कुलमिलाकर आधारभूत बातों का ख्याल रखने की बजाए काफी ऊंची किस्म की बातों पर विचार विमर्श किया जा रहा है। जबकि जरूरत है कि पहले जल संचयन तरीकों को बढ़ाने हेतु उपाय सुझाए जाए। जिससे कि भविष्य सुरक्षित हो। साथ ही खेती किसानी के अवसरों में भी इजाफा हो।

अपने पारंपरिक व्यवसाय यानि की खेती को छोड़कर लोग पलायन को मजबूर न हों। कर्ज में डूबकर आत्महत्या न करें। आदि आदि। यदि आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि इक्यानवे जलभंडारों में उनकी कुल क्षमता का केवल 23 प्रतिशत पानी ही जमा है और यह मात्रा भी घटने वाली है क्योंकि अगले माह गर्मी और भी अधिक पड़ेगी। पिछले पंद्रह सालों से यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने इससे निपटने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

घटता पानी, घटती जिंदगी

यूपी का बुंदेलखंड हो या फिर महाराष्ट्र का मराठवाड़ा किसानों की आत्महत्याएं अब अखबारों के फ्रंट पेज से उतरकर पीछे के पन्नों में सरकने लगी हैं। दरअसल अब ये रोजमर्रा की बातें हो गई हैं। उदासीन रवैये की वजह से आज इन्हें गंभीरता से लेने की बजाए रानीतिक मुद्दे के तौर पर प्रयोग किया जाता है।

क्योंकि तब से अब तक शहरों और महानगरों का जिस अनियोजित और अव्यवस्थित ढंग से विकास हुआ है उसमें पानी की जरूरत और उसकी उपलब्धता के अनुपात पर ध्यान नहीं दिया गया। पानी की अव्यवस्था का आमतौर पर आंकलन करने की बजाए बोरिंग आदि साधनों को आम मान लिया गया है। जबकि इस बात को नजरंदाज कर दिया जाता है कि पानी कितने फीट गहराई पर मिला।

पानी के बाजारीकरण से भी हो रहा नुकसान

गौरतलब है कि सरकारों की प्राथमिकता की फेहरिस्त में हमेशा उद्योग रहते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जहां जनता को पीने का पानी नहीं मिल रहा वहीं बियर, सॉफ्टड्रिंक बनाने वाले कारखानों को पानी सस्ते और रियायती दामों पर दिया जा रहा है। बोतलबंद पेयजल का कारोबार भी बहुत फैल चुका है और अरबों-खरबों के इस कारोबार की भी फिक्र सरकार को विशेष तौर पर है। इसी तरह से यदि पानी का दोहन किया जाता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब न इस धरा पर जल होगा न इंसान का अस्तित्व होगा। साथ ही जो अभी तमाम हवाले दिये जाते हैं कि फलां फलां महीने खत्म हो जाएगी दुनिया। उस वक्त को लोग अपने जी रहे होंगे। सृष्टि के साथ खुद के खत्म होने की गवाही भी न दे पाएंगे।

वाटर टैंकर के जरिए पानी खरीदने को मजबूर हैं लोग

आने वाले वक्त की ओर यदि निगहबानी की जाए तो यह संकट खत्म होने के स्थान पर और भयावह रूप लेता हुआ दिखाई देता है। इस भयावहता से जूझता दिखता है इंसान...जरूरत है कि आने वाले बुरे वक्त की तमाम संभावनाओं को देखकर हम संभल जाएं। पानी बचाने लगें। ताकि भविष्य सुरक्षित रह सके। आपको बताते चलें कि टैंकर के जरिए मिलने वाला पानी जिसमें 2000 लीटर पानी की कीमत करीबन 700 से 1000 रूपये आती है।

मतलब साफ है कि अगर आपको पानी पीना है तो आपको महीने में करीबन 12 से 15 हजार रूपये पानी के लिए खर्च करने होंगे। जो कि लोवर क्लास फैमिली के संभव नहीं है। हां मिडिल क्लास के लिए संभव जरूर है, पर बजट को बारीकी से बनाने के बाद। इन सबके इतर आपको यह भी दें कि टैंक से पानी सप्लाई करने वाले अगर हड़ताल कर दें, तो 40 फीसदी बैंगलोर वासियों के पास पीने को तो दूर, नहाने तक को पानी नहीं होगा।

आईटी सिटी बेंगलुरु का हाल

बेंगलुरु के 70 फीसदी इलाकों में भूजल स्तर गिर चुका है। रही बात मुंबई की तो वो पूरी तरह से पानी की किल्लत से जूझ रहा है। वाटर टैंको से पानी की खातिर लंबी लाइन में खड़े होना, वो भी खारे पानी के लिए, जिसमें तमाम ऐसे पदार्थ हैं जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। लेकिन लोग मजबूर हैं आखिर उन्हें अपनी प्यास जो शांत करनी है। सामान्यतया 10 हजार लीटर वाला पानी का टैंकर 2200 से 2500 रूपये में लोगों को मुहैया हो पाता है। आपात स्थितियों में पानी पर वाटर टैंकर वाले ज्यादा कीमत वसूलते हैं। इन सारी सच्चाईयों से रूबरू होने के बाद पता चलता है कि स्थितियां वाकई बेहद बुरी होने वाली हैं। लातूर की तर्ज पर, बुंदेलखंड सरीखे भारत के नामी गिरामी शहर पानी की किल्लत के आगे मजबूर होते नजर आने वाले हैं। हां इन सारी स्थितियों से निबटने के लिए उपाय भी हैं ''जल संरक्षण।''

जरूरत है कि आने वाले बुरे वक्त की तमाम संभावनाओं को देखकर हम संभल जाएं। पानी बचाने लगें। ताकि भविष्य सुरक्षित रह सके। आईये जल संरक्षण की दिशा में एक सकारात्मक पहल करते हैं। पानी बचाएं और सोशल मीडिया पर हैश टैग #save water for future के साथ पानी बचाने के उपायों को लोगों के बीच साझा करें। जिस पर सभी लोग अमल करें। जरुरी है खुद के लिए भी और अपनों के लिए भी। वरना जिस हकीकत से आप रूबरू होने वाले हैं उसमें कोंसने के इतर शायद ही कुछ हो।

Comments
English summary
Many cities in the country could face Latur like situation, despite of not having drought. Read a detailed report on drought.
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