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मायावती के राहुल गांधी पर निशाना साधने की वजहें

राजनीति संभावनाओं का खेल है और परस्पर विरोधाभासों को साधने की कला भी. अगर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के संभावित गठबंधन को अगले चुनाव में कामयाबी नहीं मिलती है और त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनती है तो मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकती हैं.

यह तथ्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि ज़्यादातर क्षेत्रीय दलों को ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति ही रास आती है. त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में भाजपा भी मायावती को साधने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगी.

By BBC News हिन्दी
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मायावती
Getty Images
मायावती

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच कुछ दिनों पहले हुए गठबंधन के बाद से लगातार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर निशाना साध रहीं मायावती ने मंगलवार को अपनी तोप का मुंह कांग्रेस की ओर कर दिया.

अखिलेश के साथ गठबंधन का ऐलान करते वक़्त भी उन्होंने कांग्रेस और बीजेपी दोनों की कड़ी आलोचना की थी.

उन्होंने 'न्यूनतम आमदनी गारंटी' योजना संबंधी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के बयान की खिल्ली उड़ाते हुए सवाल किया है कि उनका यह वादा भी कहीं कांग्रेस के ही पूर्व में दिए गए 'ग़रीबी हटाओ' जैसे नारे की तरह मज़ाक़ तो साबित नहीं होगा?

ग़ौरतलब है कि राहुल गांधी ने सोमवार को एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में आती है तो हर व्यक्ति की न्यूनतम आमदनी सुनिश्चित की जाएगी.

राहुल की इस घोषणा को जहां कांग्रेस में भाजपा के ख़िलाफ़ 'मास्टर स्ट्रोक' या 'गेम चेंजर शॉट' कहा जा रहा है, वहीं बसपा अध्यक्ष ने राहुल के इस वादे की विश्वसनीयता पर सवाल उठाकर इसे ग़रीबों के साथ 'क्रूर मज़ाक़'और 'छलावा' क़रार दिया है.

भाजपा-कांग्रेस दोनों पर निशाना

हालांकि मायावती ने राहुल पर निशाना साधकर भी फ़िलहाल भाजपा को ख़ुश होने का मौक़ा नहीं दिया है, उन्होंने राहुल को आड़े हाथों लेने के साथ ही बीजेपी को भी नहीं बख़्शा. मायावती ने राहुल के न्यूनतम आमदनी गारंटी वाले बयान की तुलना 2014 में किए गए भाजपा के 'अच्छे दिन' के जुमले से भी कर डाली.

बसपा सुप्रीमो ने भाजपा और कांग्रेस को तराज़ू के एक ही पलड़े में रखते हुए कहा कि विश्वसनीयता के मामले में दोनों ही पार्टियों का रिकॉर्ड बेहद ख़राब है.

मायावती
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मायावती

दरअसल, मायावती इस समय अपने राजनीतिक जीवन के बेहद चुनौती भरे दौर से गुज़र रही हैं, इस समय लोकसभा में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी उनकी पार्टी के महज़ सात विधायक हैं, जो बसपा के इतिहास में अब तक की न्यूनतम स्थिति है.

अन्य राज्यों की विधानसभा में भी बसपा का प्रतिनिधित्व पहले से कम हुआ है और प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी गिरावट आई है, जिसके चलते उसकी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की मान्यता ख़त्म होने का ख़तरा मंडरा रहा है, इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव मायावती के अब तक के राजनीतिक जीवन का सबसे निर्णायक चुनाव रहने वाला है.

उत्तर प्रदेश में इस चुनाव के नतीजे और उनकी पार्टी को मिलने वाली सीटों से ही उनका और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य निर्धारित होगा, यही वजह है कि उन्होंने सपा से गठबंधन करते हुए उससे अपनी ढाई दशक पुरानी अदावत और अपने साथ हुए लखनऊ के कुख्यात गेस्ट हाउस कांड की कड़वाहट को भी भुला दिया.

फ़्रंटफ़ुट पर कांग्रेस

हालांकि सपा-बसपा ने अपने गठबंधन में कांग्रेस को जगह नहीं दी, लेकिन राहुल गांधी ने कोई तल्ख़ी न दिखाते हुए इस पर बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने गठबंधन का स्वागत किया तथा ऐलान किया कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने दम पर चुनाव लड़ेगी.

मायावती
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मायावती

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन का मुक़ाबला वैसे तो सीधे तौर पर भाजपा से होना है, लेकिन पिछले तीन दशक से सूबे की राजनीति में हाशिए पर पड़ी कांग्रेस ने जिस तरह प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में उतार कर लोकसभा चुनाव के लिए उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है, उससे साफ़ है कि कांग्रेस भी यह चुनाव करो या मरो की शैली में लड़ने जा रही है.

राहुल गांधी ने कहा भी है कि कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश में फ्रंटफ़ुट पर खेलेगी.

साढ़े तीन-चार दशक पहले जब इंदिरा गांधी के समय तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी तब दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण उसके मुख्य वोट बैंक हुआ करते थे. लेकिन 1980 के दशक में बसपा के उभार ने कांग्रेस से उसका दलित जनाधार छीन लिया.

जनाधार बचाने की कोशिश

राम मंदिर आंदोलन की लहर में ब्राह्मण कांग्रेस का साथ छोड़ कर भाजपा के साथ बह गए और बाबरी मस्जिद विध्वंस की वजह से मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर सपा के साथ चले गए.

मायावती को लगता है कि 'न्यूनतम आमदनी गारंटी' वाले राहुल गांधी के वादे से उत्तर प्रदेश में उनका दलित जनाधार प्रभावित हो सकता है इसलिए उन्होंने इस वादे की खिल्ली उड़ाने और राहुल पर निशाना साधने में ज़रा भी देरी नहीं की.

मायावती
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मायावती

ऐसा करते हुए उन्होंने एक तरह से अपने जनाधार वर्ग को भी सचेत किया है कि वह किसी तरह की झांसेबाज़ी या लालच में न फंसे. उन्होंने एक तरह से बीजेपी को भी संदेश दिया है कि उन्होंने सपा के साथ गठबंधन ज़रूर किया है लेकिन कांग्रेस से संबंधों को लेकर वह एसपी से अलग लाइन भी ले सकती हैं.

भाजपा से भी तालमेल संभव?

उनकी यह लाइन भविष्य में बीजेपी से सहयोग का रास्ता खुला रखने का भी संकेत देती है. राहुल गांधी के 'न्यूनतम आमदनी गारंटी' वाले वादे पर बीजेपी ने भी मायावती से मिलती-जुलती प्रतिक्रिया जताई है.

ग़ौरतलब है कि इस बारे में अखिलेश यादव या उनकी पार्टी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. अलबत्ता अखिलेश ने प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने का स्वागत ज़रूर किया है.

दरअसल, राजनीति में हक़ीक़त से ज़्यादा सपने करामात दिखाते हैं. मायावती का भी देश की पहली दलित प्रधानमंत्री बनने का सपना पुराना है. 2009 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का नारा भी दिया था, तब वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं.

उन्हें उम्मीद थी कि त्रिशंकु लोकसभा आएगी और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी करने का अवसर मिलेगा लेकिन कांग्रेस फिर से सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी और मायावती की हसरत अधूरी रह गई थी.

मायावती
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मायावती

2013 में तो उन्होंने बीएसपी के ब्राह्मण महासम्मेलन में मंत्रोच्चार, शंख, घंटे, घड़ियाल और नारों के बीच ख़ुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया था. उन्हें उम्मीद थी कि दलित-ब्राह्मण गठजोड़ चुनाव में रंग लाएगा लेकिन चुनाव के नतीजे आए तो उनकी पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया.

प्रधानमंत्री बनने का सपना

अब एक बार फिर आगामी चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनने के क़यासों के मद्देनज़र वे अपने इस सपने को भरपूर हवा देना चाहती हैं. पिछले साल मई के महीने में लखनऊ में हुई बीएसपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी सबसे ज़्यादा दलित प्रधानमंत्री का राग ही अलापा गया था.

बैठक में विभिन्न सूबों से आए बसपा नेताओं ने मीडिया के सामने हर मौक़े पर एक ही बात कही थी कि अगले चुनाव के बाद बहनजी को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए. उसके बाद ख़ुद मायावती ने भी विपक्षी दलों में अपनी स्वीकार्यता बनाने-बढ़ाने के मक़सद से कई मौक़ों पर लचीला रवैया अपनाया.

इस सिलसिले में पिछले साल उत्तर प्रदेश में लोकसभा की तीन सीटों के लिए उपचुनाव में उन्होंने दो सीटों पर समाजवादी पार्टी को और एक पर राष्ट्रीय लोकदल को बिना शर्त समर्थन दिया था, हालांकि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के गठबंधन के प्रस्ताव को ठुकराते अकेले ही चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.

मायावती-अखिलेश यादव
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मायावती-अखिलेश यादव

तीनों ही राज्यों में बसपा न तो सीटों के लिहाज़ से और न ही प्राप्त वोटों के प्रतिशत के लिहाज़ से पिछले चुनावों के अपने प्रदर्शन को दोहरा सकी. तीन राज्यों में उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे न मिलने की वजह से ही उन्होंने उत्तर प्रदेश में सब कुछ भूल कर अखिलेश यादव से हाथ मिलाया.

छवि बदलने की कोशिश

इस बीच उन्होंने अपनी छवि बदलने का प्रयास भी किया है. इस सिलसिले में उन्होंने इस बार अपना जन्मदिन परंपरागत तड़क-भड़क से न मनाते हुए बहुत ही साधारण तरीक़े से मनाया और इस अवसर पर हमेशा की तरह अपने समर्थकों से क़ीमती उपहार या चंदे के बतौर नक़द राशि भी नहीं ली.

उनके भाषणों में अब मनुवाद का ज़िक्र भी नहीं हो रहा है. आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण के मोदी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन करने में भी कोई देरी नहीं की, यह जानते हुए भी कि यह प्रस्ताव आरक्षण की संवैधानिक अवधारणा के पूरी तरह ख़िलाफ़ है.

मायावती
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मायावती

राजनीति संभावनाओं का खेल है और परस्पर विरोधाभासों को साधने की कला भी. अगर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के संभावित गठबंधन को अगले चुनाव में कामयाबी नहीं मिलती है और त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनती है तो मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकती हैं.

यह तथ्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि ज़्यादातर क्षेत्रीय दलों को ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीति ही रास आती है. त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में भाजपा भी मायावती को साधने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेगी.

वह मायावती को समर्थन दे भी सकती है और उनसे समर्थन ले भी सकती है. आख़िर मायावती उत्तर प्रदेश में भाजपा के समर्थन से तीन बार मुख्यमंत्री बनी हैं. यह और बात है कि तीनों बार समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिराने का श्रेय भी भाजपा के ही खाते में गया है.

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