चीनी सेना के पसीने छुड़ाने वाली 'तिब्बती सीक्रेट फोर्स' का ओडिशा कनेक्शन समझिए
नई दिल्ली- भारत के जिस सीक्रेट फोर्स- स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का नाम सुनकर इन दिनों चाइनीज आर्मी के कंठ सूखने लग जाते हैं, उसके बारे में भारत में भी अभी बहुत कम लोग ही जानते हैं। अभी तक यह जानकारी मिली थी कि इस स्पेशल फोर्स की गतिविधियां इतनी गोपनीय होती हैं कि सेना भी इससे अनजान होती है। इसका बेस उत्तराखंड के चकराता में है, लेकिन वहां उन्हें किस तरह की ट्रेनिंग मिलती है, इसकी जानकारी किसी को नहीं होती। लेकिन अब एक बड़ी बात सामने आई है कि जब इस फोर्स का गठन हुआ तो उसका एक बेस ओडिशा में भी था और आज भी वहां से इसके जवानों का बहुत ही खास कनेक्शन जुड़ा हुआ है। यही नहीं इस फोर्स का गठन पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू के जमाने में जरूर हुआ था, लेकिन उसके पीछे ओडिशा के मौजूदा मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के पिता और पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक का भी बहुत बड़ा रोल था।
'तिब्बती सीक्रेट फोर्स' के नाम से कांपते हैं चीन के सैनिक
30 अगस्त को पूर्वी लद्दाख के चुशूल सेक्टर में स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के एक कमांडो नाइमा तेन्जिन के साथ लैंडमाइन हादसा नहीं हुआ होता तो शायद यह पता चलना भी मुश्किल ही था कि पैंगोंग झील के दक्षिण किनारे पर भारतीय सेना के इसी 'तिब्बती सीक्रेट फोर्स' ने पीएलए के जवानों के छक्के छुड़ा दिए। इस विशेष फोर्स को तिब्बती पहचान इसीलिए मिली हुई है, क्योंकि इसका जब गठन हुआ था तो इसमें देशभर से ज्यादातर तिब्बती शरणार्थियों को ही चुना गया था। उस दिन इस सीक्रेट फोर्स ने चुशूल सेक्टर की ऊंची पहाड़ियों से चीनियों को भगाने में जो बहादुरी दिखाई उसके बाद ही इस फोर्स के बारे में लोग ज्यादा जानने के इच्छुक हुए हैं। जबकि, इस फोर्स का गठन युद्ध के समय आर्मी से अलग स्पेशल ऑपरेशन की मकसद से 14 नवंबर, 1962 को ही कर दिया गया था।
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'दी सीआईए सीक्रेट वॉर इन तिब्बत' में आया जिक्र
केनेथ कोन्ब्वॉय और जेम्स मौरीसन ने अपनी किताब 'दी सीआईए सीक्रेट वॉर इन तिब्बत' में लिखा है, 1962 की लड़ाई में जब भारत को चीन से हार का सामना करना पड़ा तो ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने चीनियों से मुकाबले के लिए एक गुरिल्ला यूनिट स्थापित करने पर खूब जोर दिया। उन्होंने इसके लिए तत्कालीन इंटेलिजेंस ब्यूरो चीफ बीएन मलिक के साथ अपने दोस्त पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू को समझाने की कोशिश की थी। उन्होंने ऐसी विशेष यूनिट की स्थापना की बात कही, जिसमें नेपाल और तिब्बत के सीआईए द्वारा ट्रेंड गुरिल्ला खम्पा लड़ाके भी हों और साथ ही साथ भारत आने वाले तिब्बती शरणार्थी भी हों।
बीजू पटनायक ने निभाई गठन में अहम भूमिका
स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का बेस उत्तराखंड के चकराता में स्थित है और यह रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधीन है। टीओआई से बातचीत में 'ओडिशा रिव्यू' में इसके गठन में बीजू पटनायक के रोल के बारे में विस्तार से लिखने वाले इतिहासकार अनिल धीर के मुताबिक, 'बीजू पटनायक ने दलाई लामा से नेहरू के दूत के रूप में मुलाकात की और उन्हें समझाया कि इस फोर्स के गठन में अपना मौन समर्थन दें। दलाई लामा ने कलिमपोंग में अपने भाई ग्यालो थोन्दुप से कहा कि तिब्बती युवाओं को इसमें ज्वाइन करने के लिए राजी करें।' ओडिशा के पूर्व डीजीपी अमिया भूषण त्रिपाठी ने बताया कि, '1960 के दशक के शुरू में जब बीजू ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया तो उन्हें साउथ ब्लॉक में एक कमरा दिया गया। उन्होंने, मलिक और गृह सचिव एलपी सिंह ने डायरेक्टोरेट जनरल ऑन सिक्योरिटी की स्थापनी की। इसके तहत आईटीबीपी,स्पेशल सर्विस ब्यूरो (अब सशस्त्र सीमा बल) और तिब्बती फोर्स का गठन किया गया।' त्रिपाठी 1960 के दशक में उस डायरेक्टोरेट में काम कर चुके थे और कई साल बाद बीजू पटनायक ने इस फोर्स के अस्तित्व में आने की कहानी बताई।
1971 तक ओडिशा में एक बटालियन होती थी
बीजू पटनायक का रोल एस्टैबलिश्मेंट 22 या स्पेशल फ्रंटियर फोर्स या विकास रेजिमेंट को स्थापित करने तक ही सीमित नहीं रहा, उन्होंने इसके जवानों के लिए चकराता के अलावा ट्रेनिंग के लिए वैकल्पिक जगह की भी व्यवस्था करवाई। उन्होंने तिब्बती गुरिल्ला फोर्स की ट्रेनिंग के लिए कटक के पास चारबतिया एयरबेस पर ट्रेनिंग कैंप की स्थापना करवाई। चारबतिया में आज रॉ के एविएशन रिसर्च का केंद्र है और स्पेशल फ्रंटियर फोर्स वहां पर नहीं रह गई है। धीर के मुताबिक, '1971 तक एसएफएफ में 8 बटालियन थे, एक बटालियन चारबतिया में होती थी।'
आज भी जुड़ा है ओडिशा से नाता
भारत के इस सीक्रेट फोर्स के बारे में लोग जितना कम जानते रहे हैं, उसी तरह से बीजू पटनायक के इसके गठन में भूमिका के बारे में भी लोगों को नहीं पता है। लेकिन, इस फोर्स को एक बात आज भी ओडिशा से जोड़ता है कि इसमें जिन जवानों की भर्ती की जाती है, उनमें प्रदेश के गजपति जिले के चंद्रगिरी स्थित फुनत्सोकलिंग तिब्बती शरणार्थी बस्ती के भी जवान शामिल होते हैं। धीर के मुताबिक इस फोर्स को लेकर इतनी गोपनीयता बरती जाती रही है कि इसके जवानों का वेतन भी कैश में ही दिया जाता है। ओडिशा के इस शरणार्थी बस्ती में 20-25 साल काम करने के बाद रियटार कमांडो लौटकर आते हैं। उनके मन में आज भी दलाई लामा के साथ-साथ बीजू पटनायक के लिए भी बहुत ज्यादा सम्मान है। क्योंकि, वह देश के पहले सीएम थे, जिन्होंने नेहरू के कहने पर तिब्बती शरणार्थियों को अपने राज्य में शरण देने का फैसला किया था।
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