राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार पर 'तमाशा' बनने का मंडराता ख़तरा
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह को लगातार कवर करते हुए मैंने देखा कि बड़े से बड़ा फ़िल्मकार राष्ट्रीय पुरस्कार पाकर स्वयं को इतना गौरवान्वित महसूस करता है कि इसे पाते हुए उसकी आँखों में एक अलग चमक और होठों पर एक अलग मुस्कान और चेहरे पर एक अलग सुकून होता है.
ये पुरस्कार जहां किसी भी फ़िल्म कलाकार की कला की गुणवत्ता को एक पहचान, मान्यता देते हैं, वहीं
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह को लगातार कवर करते हुए मैंने देखा कि बड़े से बड़ा फ़िल्मकार राष्ट्रीय पुरस्कार पाकर स्वयं को इतना गौरवान्वित महसूस करता है कि इसे पाते हुए उसकी आँखों में एक अलग चमक और होठों पर एक अलग मुस्कान और चेहरे पर एक अलग सुकून होता है.
ये पुरस्कार जहां किसी भी फ़िल्म कलाकार की कला की गुणवत्ता को एक पहचान, मान्यता देते हैं, वहीं राष्ट्रपति के हाथों से इसका मिलना, उनके जीवन का एक अद्धभुत पल बन जाता है.
.....लेकिन इस बार 3 मई 2018 को नयी दिल्ली के विज्ञान भवन में 65 वां राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह आयोजित हुआ तो नज़ारा बिलकुल अलग था.
देश के इस सबसे प्रतिष्ठित फ़िल्म पुरस्कार को पाने के वावजूद अधिकांश विजेताओं के चेहरे उदास थे, कुछ निराश और भरे मन से ये अवार्ड ले रहे थे और कुछ इन पुरस्कारों का विरोध कर रहे थे और बहुत से लोगों ने तो इन पुरस्कारों और इस पुरस्कार समारोह का बहिष्कार तक कर दिया.
ख़ुशी और उत्साह के मौके पर यह ग़मगीन और निराशा का वातावरण अचानक तब बना जब पुरस्कार विजेताओं को 2 मई को समारोह की रिहर्सल के दौरान यह पता लगा कि इस बार राष्ट्रपति तो अपने हाथों से सिर्फ 11 व्यक्तियों को ही ये पुरस्कार प्रदान करेंगे और अन्य समस्त विजेताओं को सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति इरानी पुरस्कृत करेंगी.
ये बात सुनते ही अधिकांश विजेता अवाक रह गए. कुछ ने तपाक से कहा-ओह नो ..यह क्या तमाशा है. और देखते देखते अधिकांश विजेताओं ने ये पुरस्कार न लेने का एलान कर दिया. करीब 70 लोगों ने इस मामले को अपने साथ 'विश्वासघात' बताते हुए राष्ट्रपति और सूचना प्रसारण मंत्री को विरोध पत्र तक लिख डाला.
इसके बाद मंत्रालय और फ़िल्म पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष शेखर कपूर सहित बहुत से लोगों द्वारा पुरस्कार समारोह का बायकॉट करने वाले लोगों को मनाने का सिलसिला घंटों चलता रहा. कुछ लोग विरोध के साथ पुरस्कार लेने के लिए तो तैयार हो गए लेकिन करीब 55 लोगों ने अंत तक ये पुरस्कार ग्रहण न करके पुरस्कार और समारोह दोनों का बहिष्कार किया.
ऐसे में विज्ञान भवन की पुरस्कार विजेताओं की खाली पड़ी सीटों पर आनन-फानन में मंत्रालय और पत्र सूचना कार्यालय आदि के व्यक्तियों को बैठा दिया गया. जहां एक दिन पहले मीडिया के बहुत से लोगों को समारोह के पास देने से यह कहते हुए मना कर दिया गया कि सभी पास ख़त्म हो गए हैं, अब एक भी आमंत्रण पत्र नहीं बचा है, वहां 3 मई दोपहर को उन्हीं लोगों को बुलाकर पास दिए जाने लगे. जिससे सभागार की खाली सीटों को भरा जा सके.
विजेताओं का आक्रोश जायज है!
यूँ देखा जाए तो कोई भी पुरस्कार प्रदान करने वाली संस्था अपनी सुविधा अनुसार अपने किसी भी मनपसंद व्यक्ति से विजेताओं को पुरस्कार प्रदान करा सकती है. पुरस्कार ग्रहण करने वाला व्यक्ति भी अपनी सुविधा अनुसार उस पुरस्कार को स्वीकार करने या न करने के बारे में स्वतंत्र है.
लेकिन जब कोई पुरानी परंपरा अचानक टूटती है और आपको जो कहकर पुरस्कार देने के लिए बुलाया जा रहा है, यदि वह नहीं होता, तो दुःख और आश्चर्य दोनों होते हैं.
एक तो राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की आरम्भ से यह परंपरा रही है कि इन पुरस्कारों को राष्ट्रपति ही प्रदान करते हैं. दूसरा इस बार भी विजेताओं को जो आमंत्रण पत्र भेजा गया, उसमें साफ़ शब्दों में लिखा है- "65 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह के अवसर पर, गुरूवार 3 मई, 2018 सायं 5.30 बजे, विज्ञान भवन, नई दिल्ली में श्री राम नाथ कोविंद भारत के माननीय राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान करेंगे."
यहां तक की 3 मई को सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा अनेक समाचार पत्रों द्वारा दिए गए विज्ञापनों में भी यह साफ़ लिखा है कि इन पुरस्कारों को सूचना प्रसारण मंत्री की उपस्थिति में माननीय राष्ट्रपति प्रदान करेंगे.
लेकिन जब विजेता अपने समस्त काम काज छोड़कर देश के कोने कोने से ये पुरस्कार लेने के लिए दिल्ली पहुंच गए और फिर समारोह स्थल भी पहुंच गए तो उन्हें बताया गया कि राष्ट्रपति तो सिर्फ 11 व्यक्तियों को ही ये पुरस्कार देंगे बाकि व्यक्तियों को ये पुरस्कार स्मृति इरानी देंगी, तो लोगों को बड़ा धक्का लगना ही था. अब इस बात का विजेता विरोध करें, इस मामले को 'विश्वासघात' कहें या पुरस्कार समारोह का बहिष्कार करें तो उसे ग़लत नहीं कहा जा सकता.
आख़िर देश की सरकार के लिखित कथन और वचन में अंतिम क्षणों में फेरबदल हो जाए तो यह कदापि उचित नहीं हो सकता. यदि ऐसा पुरस्कार विजेता की ओर से भी हो कि अमिताभ बच्चन को पुरस्कार मिले और वह समारोह में आने के लिए स्वीकृति दे दें लेकिन अंतिम क्षणों में वह अपनी जगह अपने कार्यालय के किसी आदमी को पुरस्कार लेने भेज दें तो यह पुरस्कार की तो अवमानना होगी ही साथ ही सरकार उस व्यक्ति को पुरस्कार देने से मना कर सकती है.
हां, यदि अमिताभ बच्चन स्वयं पहले ही कह दें कि वह उस दिन पुरस्कार ग्रहण करने नहीं आ सकते और अपनी जगह अपने कार्यालय के किसी व्यक्ति या परिवार के किसी सदस्य को भेज सकते हैं, तो इस पर मंत्रालय अपनी पूर्व सहमति दे सकता है. यहां भी यदि विजेताओं को दिल्ली आने से पूर्व ही सूचित कर दिया जाता और निमंत्रण में यह साफ़ लिखा होता कि ये पुरस्कार सूचना प्रसारण मंत्री द्वारा प्रदान किये जायेंगे, तो मामला इतना तूल नहीं पकड़ता.
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों का इतिहास
देश में अच्छी फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से प्रति वर्ष सर्वोत्तम फिल्मों को पुरस्कृत करने के लिए, इन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की शुरुआत सन 1954 में की गयी थी. तब इन पुरस्कारों का नाम राजकीय फ़िल्म पुरस्कार था, लेकिन इन पुरस्कारों को राष्ट्रीय स्वरुप और अधिक महत्त्व देने के लिए बाद में इनका नाम राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार कर दिया गया.
राजकीय फ़िल्म पुरस्कार के नाम से प्रथम पुरस्कार समारोह नई दिल्ली में 10 अक्टूबर, 1954 को हुआ था. इस पहले समारोह में पुरस्कारों की श्रेणी और संख्या काफ़ी सीमित थी और तब सिर्फ 7 पुरस्कार थे और सभी विजेताओं को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने अपने कर कमलों से पुरस्कृत किया था.
बाद में धीरे धीरे पुरस्कारों की श्रेणी और संख्या दोनों में बढ़ोतरी होती रही. सर्वोतम अभिनेता और अभिनेत्री की श्रेणी भी इसमें बाद में आई . सन 1969 में तो भारतीय सिनेमा के जनक धुंडीराज गोविन्द फाल्के के नाम पर, इसमें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान के रूप में दादा साहब फाल्के सम्मान को भी जोड़ दिया गया. जो बरसों से फ़िल्म जगत में प्रतिष्ठा का पर्याय सा बन गया है.
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लगातार बढ़ते पुरस्कारों के चलते अब पिछले कुछ बरसों से पुरस्कारों की संख्या 100 के आसपास पहुंच चुकी है, जबकि कुछ श्रेणी में दो या तीन पुरस्कार होने से यह संख्या 125 के आसपास हो जाती है. लेकिन शुरू से अब तक ये पुरस्कार राष्ट्रपति द्वारा ही दिए जाते रहें. इसके लिए राष्ट्रपति जिस तिथि की स्वीकृति देते थे उसी तिथि को ये पुरस्कार समारोह आयोजित हो जाता था.
हालांकि इससे इस समारोह की तिथि अनिश्चित रहती थी. अकसर इस कारण भी कभी एक समारोह के बाद दूसरे समारोह में लम्बा अंतराल आ जाता था और कभी दो समारोह जल्दी जल्दी भी हो जाते थे.
लेकिन जब 3 मई, 2012 को भारतीय सिनेमा अपने 99 वर्ष पूरे करके अपने 100 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा था तब यह फ़ैसला किया गया कि अब से यह समारोह प्रति वर्ष 3 मई के निश्चित तिथि को ही आयोजित किया जाएगा. इससे पुरस्कार समारोह के साथ भारतीय सिनेमा की जयंती भी मना ली जायेगी.
हालांकि 3 मई के आयोजन के सिलसिले में पहली ही बार समस्या यह आ गयी कि उस दिन तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कहीं और व्यस्त थीं. इसलिए उस वर्ष 3 मई को ही यह आयोजन करने के निर्णय के कारण उस 59वें राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में राष्ट्रपति के स्थान पर उपराष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी के हाथों पुरस्कार प्रदान किये गए. तब निमंत्रण पत्र और विज्ञापनों में यह स्पष्ट अंकित था कि ये पुरस्कार इस बार उपराष्ट्रपति द्वारा प्रदान किये जायेंगे.
लेकिन उसके बाद जब 3 मई की तारीख़ निश्चित हो गयी तो राष्ट्रपति के कार्यक्रमों में पहले से ही प्रति वर्ष की 3 मई की तिथि राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों के लिए निर्धारित रहती है. इसलिए कोई समस्या नहीं रही. लेकिन इस बार राष्ट्रपति के समारोह में आने के बाद भी सभी विजेताओं को उनके हाथों सम्मान न मिलना बहुत ही अटपटा लगता है, जो निश्चय ही अखरता भी है.
राष्ट्रपति की समय सीमा को बताया जा रहा है कारण
आख़िर राष्ट्रपति ने सभी विजेताओं को अपने हाथों से पुरस्कार न देकर सिर्फ 11 चुनिन्दा लोगों को ही पुरस्कार क्यों दिए? इस सवाल के जवाब में राष्ट्रपति भवन से जो जवाब आया है उसके अनुसार जब से श्री राम नाथ कोविंद राष्ट्रपति बने हैं तब से प्रोटोकोल बना है कि किसी पुरस्कार और दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति अपना एक घंटे का ही समय प्रदान करेंगे. इससे अधिक नहीं.
अब प्रोटोकॉल और नियम पर तो टिपण्णी नहीं बनती. लेकिन इतना ज़रुर है कि राष्ट्रीय पुरस्कार स्वयं राष्ट्रपति ही प्रदान करें तो उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा बनी रहती है. आख़िर राष्ट्रीय पुरस्कार अधिकांश लोगों के लिए अपने जीवन की, अपने कार्य क्षेत्र की उपलब्धियों का स्वर्णिम पल होता है, जिसे हर कोई संजो कर रखना चाहता है.
हर साल देश विदेश में फिल्मों के अनेक पुरस्कार समारोह होते हैं लेकिन सब राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार के सामने इसलिए बौने साबित हो जाते हैं क्योंकि इस पुरस्कार के साथ राष्ट्रीय शब्द जुड़ा है, इसे कोई संस्था नहीं देश की सरकार दे रही है और इसे राष्ट्रपति प्रदान कर रहे हैं.
इसलिए ऐसे मौके का इंतज़ार इन दिग्गज सितारों को भी रहता है, जब राष्ट्रपति से वे मिल सकें और उनके हाथों पुरस्कृत हो सकें.
लेकिन 3 मई, 2018 के इस 65 वें राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह ने सितारों के इन अरमानों पर भी पहरा लगा दिया है. यदि भविष्य में भी राष्ट्रपति इस समारोह के लिए मात्र एक घंटा ही दे पायेंगे और ये पुरस्कार मंत्री द्वारा ही प्रदान किये जायेंगे तो राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की प्रतिष्ठा निश्चय ही घटेगी.
इसे पाने की लालसा भी उतनी नहीं रहेगी. साथ ही इन पुरस्कारों को देना एक रस्म अदाएगी ही बन जायेगी. कलाकारों को यह नहीं लगेगा कि उन्हें ये पुरस्कार पूरे सम्मान के साथ दिया जा रहा है.
अटपटा रहा इस बार का समारोह
यदि इस बार के 65 वें फ़िल्म समारोह को देखें तो यह समारोह व्यवस्था और ख़ामियों का जबरदस्त शिकार रहा. जिस प्रकार बताया जा रहा है कि राष्ट्रपति की एक घंटे की समय सीमा से मंत्रालय को तीन हफ़्ते पहले ही अवगत करा दिया था तो मंत्रालय ने निमंत्रण पत्रों, अपनी प्रेस रिलीज़ और विज्ञापनों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख क्यों नहीं किया.
पहले ही बताया जाना था कि राष्ट्रपति कौन-से पुरस्कार देंगे और मंत्री कौन से. दूसरा इस कार्यक्रम का शुरू होने का समय शाम साढ़े 5 बजे था लेकिन 11 पुरस्कारों को छोड़कर अन्य सभी पुरस्कारों का वितरण स्मृति इरानी ने शाम 4 बजकर 8 मिनट से शाम 5 बजे के बीच यानी समारोह आरम्भ से पूर्व ही कर दिया.
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जबकि वास्तविक समारोह शाम साढ़े 5 बजे राष्ट्र गान के साथ तब शुरू हुआ जब राष्ट्रपति का आगमन हुआ. इससे यह हुआ कि जो लोग सही समय पर सभागार में पहुंचे उन्होंने सिर्फ उन 11 लोगों को पुरस्कार लेते देखा, जिन्हें राष्ट्रपति ने अपने हाथों से सम्मानित किया. बाक़ी किन लोगों को कब पुरस्कार मिला यह सिर्फ उन्हीं लोगों को पता लगा जो या तो रिहर्सल का हिस्सा थे या जिनकी ड्यूटी विज्ञान भवन सभागार में प्रबंधन और सुरक्षा आदि के लिए लगी हुई थी.
इससे जहां एक ओर बाक़ी सभी विजेताओं को पुरस्कार देना एक खाना पूर्ति बनकर रह गया वहां पुरस्कार विजेताओं के लिए भी यह काफ़ी तकलीफ़देह रहा होगा कि उन्हें चुपचाप या चोरी छिपे पुरस्कार दे दिए गए.
फिर यह भी है कि राष्ट्रीय पुरस्कारों की कोई ए बी या सी श्रेणी तो है नहीं. सभी पुरस्कार राष्ट्रीय हैं और सभी एक समान और एक सम्मान वाले हैं. ऐसे में यह किस आधार पर निर्धारित किया कि यह पुरस्कार बड़ा है इसे राष्ट्रपति देंगे और ये छोटा है इसे मंत्री द्वारा दिया जाएगा. मिसाल के रूप से सर्वोत्तम पुस्तक का सम्मान राष्ट्रपति द्वारा दिया गया और सर्वोत्तम फ़िल्म समीक्षक का सम्मान मंत्री द्वारा दिया गया.
क्या हो समस्या का हल
इस समस्या का हल तो यही है कि पुरानी परंपरा जारी रहे. पहले की तरह राष्ट्रपति स्वयं सभी विजेताओं को प्रदान करें. पूर्व के कुछ बरसों से जिस तरह प्रति वर्ष 100 पुरस्कार प्रदान किये जाते रहें हैं, उनमें भी यह समारोह करीब डेढ़ से दो घंटे में निबट जाता था. जबकि पीछे तो इस दो घंटे की अवधि में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते रहे हैं. साथ ही सभी के भाषण भी.
इसलिए अन्य बातों को छोटा कर इस कार्यक्रम को व्यवस्थित ढंग से करके डेढ़ घंटे में समेटा जा सकता है. इसके लिए प्रोटोकॉल के नियम में विशेष परिस्थितियों में कुछ परिवर्तन भी किया जा सकता है. या फिर राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह को दो हिस्सों में ठीक वैसे भी किया जा सकता है जैसे पदम् पुरस्कारों को दो बार में वितरित किया जाता है.
पदम् पुरस्कारों की संख्या भी पिछले 4 बरसों में 85 से 112 तक रही है. हालांकि एक समारोह को दो दिन अलग अलग करने से इसके खर्चों की लागत काफ़ी बढ़ जाती है. लेकिन एक ही दिन में एक घंटे के अंतराल से दो बार करके भी प्रोटोकॉल का हल शायद निकाला जा सकता हो. फिर एक यह भी हो सकता है कि राष्ट्रपति के साथ उपराष्ट्रपति भी इन राष्ट्रीय पुरस्कारों को प्रदान करें.
लेकिन इससे भी बात पहले जैसी नहीं रहेगी. बेहतर तो यही रहेगा कि राष्ट्रपति वर्ष के इस ख़ास समारोह के लिए अपना कुछ और समय निकालने की व्यवस्था कर सकें, जिससे राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों को लेकर फिर कोई विवाद, कोई निराशा न हो.
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