आरजेडी-कांग्रेस के साथ लिए 7 फेरे, पर NDA के साथ चल रहा था नीतीश का सीक्रेट अफेयर
नई दिल्ली। आखिरकार वही हुआ, जिसका डर था। आरजेडी-जेडीयू की ''सैकेंड मैरिज'' टूट ही गई। सेक्युलररिज्म के नाम पर दोनों दलों ने 20 महीने पहले ही 7 फेरे लिए थे। महागठबंधन टूटने के बाद आरजेडी और जेडीयू का तो हाल जो है सो है, लेकिन बेचारी कांग्रेस की स्थिति कुछ ऐसी हो गई है जैसी रिश्ता तय कराने वाले बिचौलिये की होती है। आखिर दोनों दलों को मिलवाने में कांग्रेस की अहम भूमिका थी। भले ही बिहार की महागठबंधन सरकार में कांग्रेस की हैसियत तीसरे दर्जे की थी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसका बड़ा महत्व था।
अमित शाह ने ''कांग्रेस मुक्त'' भारत की कसम खा रखी है
राज्यसभा के समीकरणों से लेकर अन्य मुद्दों पर केंद्र के खिलाफ मुखर होकर बोलने में कांग्रेस को बिहार के महागठबंधन से काफी बल मिल रहा था। अमित शाह ने ''कांग्रेस मुक्त'' भारत की कसम खा रखी है, यह बात तो सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी और अहमद पटेल से लेकर दिग्विजय सिंह तक पार्टी के सभी रणनीतिकारों को पता थी, लेकिन उन्हें पता नहीं था कि कांग्रेस ''गठबंधनमुक्त'' बनाने पर भी विरोधी खेमा युद्धस्तर पर काम रहा है। शायद वक्त की नब्ज कांग्रेस के हाथ इन दिनों लग ही नहीं रही है। कांग्रेस को यह कला नीतीश कुमार से सीखनी चाहिए।
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कुछ और ही है जमीनी समीकरण
नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित किए जाने के बाद एनडीए से नाता तोड़ने वाले नीतीश कुमार को 2014 लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से अंदाजा हो गया था कि वह ''मोदीलहर'' को आंकने में गलती कर बैठे। उस समय एनडीए का दामन झटकने के पीछे बड़ी वजह थी नीतीश कुमार का मोदी को लेकर गलत कैल्कुलेशन। 4 साल पहले जब नीतीश एनडीए से अलग हुए थे, तब मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चा हुई थी नीतीश-मोदी के रिश्तों की थी। खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में, जहां ''सेलेबल न्यूज'' की परिभाषा थोड़ी अलग है। नीतीश VS मोदी चैनलों की टीआरपी को ज्यादा सूट किया, इसलिए उसी एंगल से नीतीश के अलग होने की घटना को कवर किया गया। लेकिन जमीनी समीकरण यह नहीं था।
सुशासन बाबू के लिए महागठबंधन महामजबूरी बन गया
नीतीश कुमार इस समय देश के सबसे मंझे हुए और सूझबूझ वाले राजनेता हैं, वो और बात है कि 2014 आम चुनाव को लेकर वह मिसकैल्कुलेट कर गए। वैसे नीतीश ही क्यों, सारी सर्वे एजेंसियां और यहां तक कि खुद बीजेपी के सर्वे में भी ''मोदीलहर'' के ऐसे प्रचंड स्वरूप की किसी ने भविष्यवाणी नहीं की थी।
मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित किए जाने के वक्त नीतीश कुमार को बिहार में मुस्लिम वोट बैंक खोने का डर था। यही कारण था कि नीतीश ने उन्हें पीएम कैंडिडेट घोषित किए जाने का पुरजोर विरोध किया था। यह डर गलत नहीं था, बिहार विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार इस बात का सबूत है, जहां मोदी का विजयरथ रोक लिया गया।बस यही बात नीतीश को एनडीए से अलग ले गई। उनका तर्क अपनी जगह सही था, लेकिन नीतीश कुमार को यह अंदाजा नहीं था कि मोदी के सत्तासीन होने के बाद हिंदू राष्ट्रवाद की विकराल चर्चा होगी। उन्हें भनक नहीं थी कि बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोट इतने बड़े स्तर पर कन्सॉलिडेट होगा। तब उन्हें यह भी अंदाजा नहीं था कि लालू यादव जिनके साथ वह महागठबंधन करने जा रहे हैं, वह भ्रष्टाचार की दलदल में पूरे कुनबे समेत गले तक डूब जाएंगे। वक्त का किसे पता, पर यह सब हुआ और सुशासन बाबू के लिए महागठबंधन महामजबूरी बन गया।
हाय हाय ये मजबूरी... एनडीए से क्यों बनाई दूरी
20
महीने
तक
महागठबंधन
सरकार
में
कभी
लालू
तो
कभी
उनके
बेटे
तेजस्वी
तो
कभी
तेजप्रताप।
कभी
जेल
में
बैठा
शहाबुद्दीन
तो
कभी
बिहार
में
जीवित
होता
अपहरण
का
जिन्न।
ये
सब
नीतीश
को
डराने
लगे
थे।
वह
सबकुछ
चुपचाप
देख
रहे
थे,
लेकिन
कुछ
करने
के
विकल्प
उनके
पास
बेहद
कम
थे।
महागठबंधन
करने
के
बाद
बेचारे
सुशासन
बाबू
एक
ही
गाना
गा
रहे
थे,
हाय
हाय
ये
मजबूरी...
एनडीए
से
क्यों
बनाई
दूरी...।
इस
कठिन
दौर
में
उन्हें
किसी
ने
सहारा
दिया
तो
वह
थी
सिर्फ
और
सिर्फ
उनकी
मिस्टर
क्लीन
इमेज।
इसी
के
सहारे
नीतीश
ने
दिन
काटे
और
सही
समय
का
इंतजार
किया।
नीतीश कुमार ने धीरे-धीरे बीजेपी से बैकचैनल बातचीत बनाए रखी। पीएम नरेंद्र मोदी के नोटबंदी जैसे फैसले का समर्थन भी किया। केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ तल्खी जरा कम की और राजनीतिक भूल को सुधारा। परिणाम आज सभी के सामने है और महागठबंधन में रहते हुए बीजेपी को नैचुरल पार्टनर बताने वाली जेडीयू आज एनडीए में लौट आई है। कुल मिलाकर बात अब एक लाइन में कहे देता हूं, लौट के नीतीश बाबू घर को आए...