नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मुट्ठी में बंद है नई सरकार: नज़रिया
जो मंत्री कल तक कैबिनेट की सबसे शक्तिशाली कमेटी कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी के सदस्य थे और जो इस सर्वोच्च समिति में जाने की आकांक्षा रखते हैं उनको भी कुछ पता नहीं है कि वे अंदर हैं कि बाहर. फोन की घंटी जितनी बार बजती है उम्मीद के साथ उठाते हैं कि शायद कोई ख़बर हो. ऐसे माहौल में कौन मंत्री बनेगा इसका अनुमान लगाने की कोशिश भी अपने को मुगालते में डालने जैसा होगा.
भारत में मीडिया का आधे से ज़्यादा काम सूत्रों के हवाले से चलता है पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राज में सूत्रों के सारे स्रोत सूख गए हैं.
केंद्र में नई सरकार बनने जा रही है और बड़े बड़े रसूख़ वाले पत्रकार हों, सत्तारूढ़ दल के राजनेता या बड़े औद्योगिक घराने किसी के पास कोई ख़बर नहीं है कि कौन मंत्री बनेगा.
जो मंत्री कल तक कैबिनेट की सबसे शक्तिशाली कमेटी कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी के सदस्य थे और जो इस सर्वोच्च समिति में जाने की आकांक्षा रखते हैं उनको भी कुछ पता नहीं है कि वे अंदर हैं कि बाहर. फोन की घंटी जितनी बार बजती है उम्मीद के साथ उठाते हैं कि शायद कोई ख़बर हो. ऐसे माहौल में कौन मंत्री बनेगा इसका अनुमान लगाने की कोशिश भी अपने को मुगालते में डालने जैसा होगा.
सवाल है कि जब प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह मंत्रिमंडल के सदस्यों की सूची बनाने बैठे होंगे तो उनके सामने विषय क्या होंगे.
एक तो पारम्परिक विषय होगा कि सभी वर्गों और क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व मिले. वैसे यह हर सरकार का प्रयास होता है पर मोदी इस तरह नहीं सोचते. साल 2014 में उन्होंने पच्चीस की पच्चीस सीट जिताने वाले राजस्थान से पहली बार में किसी को मंत्री नहीं बनाया. वसुंधरा राजे सिंधिया राज्य की मुख्यमंत्री थीं. वे चाहती थीं कि उनका बेटा दुष्यंत मंत्री बने.
मोदी नहीं माने तो पांच साल तक नहीं माने. एक परिवार से दो पद को उन्होंने भरसक रोका. पर व्यवहारिक राजनीति के तकाजे के कारण कुछ अपवाद भी करने पड़े. हां, जातियों के गणित का थोड़ा ध्यान रखा गया था. वैसे 2014 में मोदी को अपने सांसदों के बारे में जानकारी भी कम थी. अमित शाह को तो और भी कम. पर इस बार ऐसा नहीं है.
एक चीज़ से भावी मंत्रिमंडल का अंदाजा लगाया जा सकता है. वह है पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र. उसमें आजादी की पचहत्तरवीं सालगिरह (2022) तक पचहत्तर लक्ष्य रखे गए हैं.
अंदाज़ा लगाने का दूसरा आधार यह हो सकता है कि पिछले पांच सालों में मोदी सरकार का सबसे ज्यादा जोर किस बात पर रहा है. वह है, लास्ट माइल डिलिवरी. योजनाओं का लाभ उसके असली हकदार तक पहुंचे, इस बात को सरकार और संगठन ने मिलकर सुनिश्चित किया. पर इसके लिए परफार्मर चाहिए.
पिछली सरकार में नितिन गडकरी, धर्मेन्द्र प्रधान, पीयूष गोयल, नरेन्द्र सिंह तोमर, आर के सिंह, केजे अल्फॉन्स और हरदीप पुरी जैसे मंत्री थे. इनमें से आख़िरी तीन को इस बार तरक्क़ी देकर कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता है. पिछली सरकार में बार-बार यह बात उठती रही है कि मोदी सरकार में प्रतिभाओं का अभाव है. इस बार मोदी शाह को चुनने के लिए ज्यादा लोग उपलब्ध हैं. उन्हें अंदाजा भी है कि कौन किस काम के लिए मुफ़ीद है.
मंत्रिमंडल के गठन के दूसरे और सबसे अहम आधार को जानने से पहले यह जानना होगा कि दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौतियां कौन सी होंगी.
विपक्षी दल सरकार की दो बड़ी कमजोरियों को चुनाव का मुद्दा नहीं बना पाए. ये मुद्दे हैं, बेरोजगारी और किसानों की बदहाली. इस सरकार के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. कृषि सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है.
वहां रोजगार के अवसर उपलब्ध होने से न केवल ग्रामीण क्षेत्र का विकास होता है बल्कि शहरों की ओर पलायन भी रुकता है. इसके अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर, आवास, छोटे और मझोले उद्योगों में ज्यादा से ज्यादा निवेश और उन योजनाओं को समयबद्ध तरीके से लागू करने से ही रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं. सरकार 2022 तक सभी को घर देने के लिए दो लाख साठ हजार करोड़ रुपए खर्च करने जा रही है. इसलिए इन विभागों का जिम्मेदारी उन्हीं को मिलेगी जिनकी क्षमता पर प्रधानमंत्री को भरोसा होगा.
इसके अलावा दो और मुद्दे हैं जो प्रधानमंत्री के दिल के करीब हैं. उनमें एक है नमामि गंगे परियोजना. इस परियोजना पर युद्ध स्तर पर काम होने की संभावना है. दूसरा मुद्दा है पानी का. इस विभाग को हाई प्रोफाइल बनाए जाने की संभावना है. चुनाव प्रचार के दौरान और पार्टी के घोषणा पत्र में प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि मछुआरों के लिए अलग मंत्रालय बनाया जाएगा. सरकार और पार्टी की नजर देश के पूरे सागर और नदियों के तटीय क्षेत्र के विकास पर है. पार्टी को यह इलाका विकास के साथ ही नए वोट बैंक की तरह भी नजर आता है.
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि रोजगार के अवसर प्रदान करने वाले करीब दस ऐसे मंत्रालयों की पहचान करके उनके आपस में तालमेल के लिए कोई सांस्थानिक व्यवस्था की जाए. इसके लिए कुछ मंत्रालयों का आपस में विलय भी हो सकता है. यह कदम मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस के मोदी के नारे के लिहाज से भी जरूरी है.
अर्थव्यवस्था सरकार के लिए प्राथमिकता वाला मुद्दा होगा. अब यह तय हो गया है कि अरुण जेटली सरकार में नहीं होंगे. ऐसे में एक ऐसे नये वित्त मंत्री की जरूरत होगी जो अर्थव्यवस्था, उद्योग व्यापार के साथ-साथ राजनीतिक तकाजे में तालमेल बिठा सके.
आमतौर पर अंदाजा लगाया जा रहा है कि इस विभाग के लिए मोदी किसी आर्थिक विशेषज्ञ को लाएंगे. पिछली बार भी लोगों को ऐसी ही उम्मीद थी और वे छब्बीस मई, 2014 को निराश हुए.
इस बार भी ऐसा सोचने वालों को निराशा हो सकती है. अमित शाह सरकार में आते हैं तो उनके वित्त मंत्री बनने की संभावना सबसे ज्यादा होगी. पर इस बारे में दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता. पिछली सरकार में सीसीएस की सदस्य और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज लोकसभा चुनाव नहीं लड़ीं. उसका कारण स्वास्थ्य संबंधी दिक्कत थीं. यदि उनका स्वास्थ्य अब ठीक है तो गुजरात से राज्यसभा में आ सकती हैं और विदेश मंत्री बनी रहेंगी. यदि ऐसा नहीं होता है तो सीसीएस में एक और जगह खाली होगी.
इसके अलावा कृषि मंत्री की भूमिका इस बार बहुत अहम होने वाली है. ढ़ीले-ढ़ाले नज़र आने वाले राधामोहन सिंह को मोदी शायद ही फिर कृषि जैसे अहम मंत्रालय की जिम्मेदारी देंगे. फिर पश्चिम बंगाल से अट्ठारह, ओडिशा से आठ और तेलंगाना से चार सदस्य लोकसभा पहुंचे हैं. इन पर मोदी-शाह की विशेष नजर रहेगी.
सवाल पूर्वोत्तर में भाजपा को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले हिमंत विश्व शर्मा का भी है. पार्टी ने संगठन का काम सौंपकर उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने से रोक दिया था. इस लोकसभा में एक विशिष्ट बात यह है कि भाजपा या यहां तक कि एनडीए का कोई लोकसभा सदस्य यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि वह अपने बूते जीत कर आया है. इसलिए कोई दावेदारी की स्थिति में नहीं है.