नागपुर की लेडी डॉक्टर रेगिस्तान की मदर टेरेसा
80 वर्षीय ज़ुलेख़ा दाऊद जो संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय मूल की सबसे पहली महिला डॉक्टर हैं.
नागपुर की एक मराठी महिला खाड़ी देशों में अकेली महिला युवा डॉक्टर... अपनी मेहनत और लगन से अरबों का दिल जीत लेती हैं और हमेशा के लिए वहीं की होकर रह जाती हैं.
आज 50 साल से अधिक समय बाद वो थोड़ी थम गई हैं, लेकिन अपने मरीज़ों से अब भी जुड़ी हैं.
लेकिन वो न तो अपने देश को भूली हैं और न अपने शहर को. हिंदी अब भी वो मराठी अंदाज़ में बोलती हैं. उनका पासपोर्ट आज भी हिंदुस्तानी है.
ये हैं 80 वर्षीय ज़ुलेख़ा दाऊद जो संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय मूल की सबसे पहली महिला डॉक्टर हैं.
आज उनके तीन अस्पताल हैं जिनमें से एक नागपुर में है. लेकिन जब वो पहली बार शारजाह आई थीं तो यहाँ एक भी अस्पताल नहीं था.
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कुवैत में नौकरी करने आई थीं
वो आई थीं स्त्रीरोग की एक विशेषज्ञ की हैसियत से, लेकिन डॉक्टरों की कमी के कारण उन्हें हर रोग का इलाज करना पड़ा. वो उस समय के रूढ़िवादी अरब समाज में अकेली महिला डॉक्टर ज़रूर थीं, लेकिन उनके अनुसार उन्हें एहसास हुआ कि उनकी यहाँ के लोगों को ज़रूरत है. "मेरे मरीज़ औरतें भी थीं और मर्द भी"
नागपुर से उनका ये लंबा सफ़र शुरू कैसे हुआ?
वो कहती हैं, "मैं नागपुर से यहाँ ऐसे आई कि मुझे कुवैत में नौकरी मिली. मुझे कुवैत वालों ने कहा इन लोगों को (शारजाह वालों को) आपकी ज़्यादा ज़रूरत है. हम लोग वहां अस्पताल खोल रहे हैं. तो उन्होंने मुझे यहां भेजा."
वो कुवैत में एक अमरीकी मिशन अस्पताल में काम करती थीं. उस अस्पताल ने शारजाह में एक क्लिनिक खोला था.
उन दिनों शारजाह और दुबई इतने पिछड़े इलाक़े थे कि वहां कोई डॉक्टर जाने को तैयार नहीं होता था. डॉक्टर दाऊद ने कहा वो जाएंगी, "मुझे सब कुछ करना पड़ा. डिलिवरी, छोटे ऑपरेशन. हड्डियों का, जले हुए लोगों का इलाज मुझे करना ही पड़ा क्यूंकि दूसरा कोई था ही नहीं."
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तब पक्की सड़क भी न थी
उस समय डॉक्टर दाऊद एक युवा महिला थीं और एक भारतीय डॉक्टर से अभी-अभी उनकी शादी हुई थी. उनकी दुबई और शारजाह के बारे में जानकारी कम थी.
वो बताती हैं, "मुझे नहीं मालूम था कि दुबई कौन सी चीज़ है. काम करना था तो मैं आ गई."
उस ज़माने के दुबई और शारजाह के बारे में याद करते हुए वो कहती हैं, "एयरपोर्ट नहीं था. हम रनवे पर उतरे. इतनी गर्मी थी कि दूसरे डॉक्टरों ने कहा, हम यहाँ रहेंगे?"
पहले दुबई में क्लिनिक खोला गया. फिर शारजाह में. डॉक्टर दाऊद कहती हैं, "दुबई से शारजाह की दूरी क़रीब 40 किलोमीटर है. उस समय पक्की सड़क तक नहीं थी."
डॉक्टर ज़ुलेख़ा दाऊद को वो समय आज भी याद है, "शारजाह का रास्ता रेगिस्तानी था. गाड़ी रेत में फँस जाती थी. हमें भी नहीं मालूम था यहाँ इतनी दिक़्क़तें थीं."
अस्पताल में भी व्यवस्था कम थी, "मैं यहाँ आयी तो देखा क्लिनिक में केवल दो-तीन तरह की दवाइयां थीं. न तो एक्स-रे की सुविधाएं थी और न ही कोई पैथोलॉजी विभाग था. गर्मी बहुत थी. एसी नहीं था. दूसरे डॉक्टरों ने कहा वो यहाँ नहीं रह सकते. मैंने कहा मैं यहाँ इलाज करने आई हूँ. लोगों को मेरी ज़रूरत है. मैं रह गई."
1992 में खोला अपना अस्पताल
डॉक्टर दाऊद यहाँ की एक लोकप्रिय डॉक्टर हैं. शारजाह और दुबई में उनकी निगरानी में 15,000 से अधिक बच्चे पैदा हुए हैं जिनमें शाही परिवार के कई लोग शामिल हैं.
वो अरबों की तीन पीढ़ियों का इलाज कर चुकी हैं. ढलती उम्र के बावजूद वो अब भी रोज़ अपने अस्पताल में आकर मरीज़ों से मिलती हैं.
डॉक्टर दाऊद के अनुसार, अंग्रेज़ों से आज़ादी हासिल करने के बाद ही इलाक़े में तरक़्क़ी शुरू हुई. वो कहती हैं, "जैसे-जैसे वक़्त बीता उनको आज़ादी मिली. उनका संयुक्त अरब अमीरात बना. तब एक साथ इन लोगों ने विकास करना शुरू किया जो काफी तेज़ी से हुआ."
नागपुर में कैंसर अस्पताल खोला
डॉक्टर दाऊद ने भी 1992 में यहाँ एक अस्पताल खोला. उन्हें लगा कि अब यही उनका घर है. स्थानीय अरबों के दिलों में जगह बनाने के बाद नागपुर में पली बढ़ी, अनपढ़ माँ बाप की बेटी, डॉक्टर दाऊद धीरे-धीरे यहीं की होकर रह गईं.
लेकिन नागपुर की एक साधारण मराठी महिला ने कभी घर वापस जाने के बारे में नहीं सोचा? क्या वो अपने देश और वतन को भूल गई?
वो कहती हैं, "मेरे देश ने हमें सब कुछ दिया. शिक्षा दी तो हमें भी कुछ करना चाहिए. मैं पैदा तो वहीं हुई न, लोग तो मेरे वहीं हैं."
शायद इसीलिए उन्होंने अपने शहर नागपुर में एक कैंसर अस्पताल खोला है. और शायद इसीलिए अमीरात की नागरिकता के ऑफ़र के बावजूद वो आज भी एक भारतीय नागरिक हैं.
कामयाब व्यवसायी
अमीरात में एक कामयाब डॉक्टर और व्यवसायी कैसे बन गईं?
इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं, "ये मुझे नहीं मालूम था कि मैं आगे बढ़ूंगी मगर हालात और समय को देखकर काम करती गई. लोगों को मदद करने का जज़्बा मेरे अंदर बहुत था. वो (अरब) आते थे मेरे पास. उन्होंने ही मुझे आगे बढ़ने में मदद की."
उनकी बेटी और दामाद आज उनके अस्पताल के काम को आगे बढ़ाने में उनकी मदद करते हैं. डॉक्टर दाऊद ने काम और परिवार के बीच संतुलन बनाए रखा.
बेटी जेनोबिया कहती हैं, "वो कामयाब भी हैं और एक कामयाब व्यवसायी भी."
लेकिन क्या अगर डॉक्टर दाऊद ये शोहरत विदेश के बजाए देश के अंदर कमातीं तो ज़्यादा संतुष्टि मिलती?
इस पर वो कहती हैं कि भारत ने उन्हें बहुत कुछ दिया लेकिन उन्हें यहाँ के रॉयल परिवार ने उनकी बहुत मदद की.
उनका मुताबिक, 'वो आज अगर कामयाब हैं तो उनके अनुसार इसका श्रेय यहाँ के हुक्मरानों को जाता है. वो दोनों देशों के क़रीब हैं.'
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