क्या पंजाब में फिर से सिर उठा रहा है सिख कट्टरपंथ
अकालियों ने रणजीत सिंह आयोग की रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया है. बादलों ने अलग से भी अपनी सत्ता में किसी तरह के ग़लत काम से इनकार किया है.
इन वजहों से बरगारी का विरोध पंजाब की राजनीति का केंद्र बन गया है और कट्टरपंथियों के विरोध को विश्वसनीयता मिल रही है.
अनुभवी जानकारों का मानना है कि इससे कट्टरपंथियों के हाथ मज़बूत हो रहे हैं. अन्य कुछ लोग मानते हैं कि बादल ख़ुद इसके लिए ज़िम्मेदार हैं.
"आपने हमारे हज़ारों लोगों को मार डाला और अब आप कहते हैं कि हमें यह सब भूल जाना चाहिए? इस बार मुद्दा हमारे गुरु का है, दिल्ली वालों (दिल्ली में शासकों), हमारे सब्र का इम्तिहान ना लो.. 137 दिन हो चले हैं ...न्याय करना हर देश का कर्तव्य है."
बीते रविवार को हज़ारों सिखों की एक रैली को सिख कट्टरपंथी नेता ध्यान सिंह मंद संबोधित कर रहे थे. ध्यान सिंह मंद उस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं जो सिखों की पवित्र किताब गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान के मुद्दे पर दक्षिण पंजाब से 2015 में शुरू हुआ था.
ध्यान सिंह मंद 1989 में ख़ालिस्तानी नेता सिमरनजीत सिंह मान के साथ सांसद चुने गए थे, लेकिन उसके बाद कभी सांसद नहीं बन सके.
सिख कट्टरपंथियो को मिल रहा है आधार?
फ़रीदकोट ज़िले के बरगारी गांव में प्रदर्शनकारी एक जून से डटे हुए हैं. वे पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल, उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल और उनकी सरकार में पुलिस प्रमुख रहे एसएस सैनी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं.
2015 में गुरु ग्रंथ साहिब के कुछ फटे पन्ने सड़कों पर मिले था. ऐसी सौ से ज़्यादा घटनाएं मोगा, फ़रीदकोट, जालंधर, अमृतसर और कई अन्य ज़िलों से सामने आई थीं.
जब अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने लगे तो अक्टूबर 2015 में दो जगह पुलिस गोलीबारी में दो युवकों की मौत हो गई. इस मौत ने आग में घी का काम किया.
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बरगारी में विरोध जारी रखने का मक़सद बताया गया है कि एक गंभीर धार्मिक अपराध के मामले में 'न्याय' सुनिश्चित किया जाए.
लेकिन असल में ये अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल और उनके परिवार को पंजाब की राजनीति से बेदख़ल करने की कवायद नज़र आती है.
बरगारी विरोध प्रदर्शनों में ग्रामीण सिखों की भागीदारी शुरुआती संकेत हैं कि अकालियों के नरमपंथी रवैये से उखड़े सिखों को कट्टरपंथी अपने पाले में करने में कामयाब हो रहे हैं.
अकालियों ने पंजाब की सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाया है कि वे भी कट्टरपंथियों के साथ मिलकर पंजाब की शांति को दांव पर लगा रहे हैं.
जब मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह से पूछा गया कि क्या बरगारी कट्टरपंथियों का केंद्र बन रहा है तो उन्होंने जवाब दिया, "बरगारी केंद्र तो बन रहा है, लेकिन मैं कट्टरपंथियों को शांति भंग नहीं करने दूंगा और कार्रवाई से पीछे हटने का सवाल ही नहीं है. मैंने कभी किसी कट्टरपंथी को समर्थन नहीं दिया है. मैं सिर्फ़ अवसरवादी बादल को एसजीपीसी से बाहर देखना चाहता हूं. उन्होंने हमारे गुरुद्वारों की हालत ख़राब कर दी है, इसलिए धर्म के लिए काम करने वाले किसी भी नरमपंथी का मैं साथ दूंगा."
बादल परिवार इन आरोपों से इनकार करता रहा है.
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कांग्रेस के बोल लोगों को आगाह कर रहे हैं
हालांकि भारत के पंजाब में सिखों का प्रभुत्व है, लेकिन ग़ैर सिखों की संख्या भी 45 फ़ीसदी है (हिंदू, दलित, ईसाई और मुस्लिम) जिनमें से बहुत से लोग इन घटनाओं से ख़ुश नहीं हैं.
1925 में एसजीपीसी को एक अधिनियम के ज़रिए गठित किया गया था जो सिखों के पवित्र ऐतिहासिक स्थलों का प्रबंधन करता है. एसजीपीसी चुनावों में जो पार्टी बहुमत में होती है, वही सिखों के धार्मिक मामलों में भी हावी होती है.
पिछले कई चुनावों से एसजीपीसी पर बादलों का नेतृत्व रहा है. मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह सिखों के बीच 'नरमपंथी' अकाली दल के प्रभाव का आधार इसी को मानते हैं और उन्हें अलग-अलग कारणों से बाहर करना चाहते हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=r_JxrQAUv9s
पिछले 30 वर्षों में सिमरनजीत सिंह मान और अन्य कट्टरपंथियों ने कभी भी एसजीपीसी चुनावों में बहुमत हासिल नहीं किया है.
साथ ही, पिछले 30 सालों से कांग्रेस सिख धार्मिक मामलों और एसजीपीसी से अलग ही रही है. जानकार व्यापक तौर पर कहते रहे हैं कि आख़िरी बार जब 70 के दशक में कांग्रेस ने ज्ञानी जैल सिंह के नेतृत्व में एसजीपीसी में दखल देने की कोशिश की थी, उसके नतीजतन 80 के दशक में चरमपंथी घटनाएं हुईं और चरमपंथी सिख नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले को शीर्ष पर पहुंचने का मौक़ा मिला.
कांग्रेसी मुख्यमंत्री के हालिया बयानों ने कई लोगों को सतर्क भी किया है.
अकाली दल नौ दशकों तक सिखों की पार्टी रहा, लेकिन 1996 में इसने नया मोड़ लिया. 1996 में अपनी मोगा घोषणा के तहत अकाली दल ने ख़ुद को सिख पहचान तक सीमित रखने के बजाय पंजाबी पहचान की बात करना शुरू कर दिया.
इसने चुनावों में कई ग़ैर-सिखों, विशेष रूप से हिंदुओं को मैदान में उतारा और धीरे-धीरे ग़ैर-सिखों में भी अपनी लोकप्रियता बना ली. इसके साथ एसजीपीसी में प्रभुत्व होना भी अकाली दल की चुनावी ताक़त का आधार रहा है.
कट्टरपंथी ध्यान सिंह मंद ने रविवार को अपने भाषण में कहा था कि हिंदू, अल्पसंख्यक और ग़रीबों को बरगारी के विरोध प्रदर्शनों से घबराने की ज़रूरत नहीं है. हालांकि मंच से दिए गए सभी भाषणों में कट्टरपंथी सिख राजनीति और उनकी मांगों का ही बोलबाला था.
गुरमीत राम रहीम और बादलों की विश्वसनीयता
तथाकथित धार्मिक नेता गुरमीत राम रहीम को बलात्कार के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद भी सिख बादलों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से से भरे हैं.
2007 में पंजाब में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए थे जब राम रहीम की कुछ तस्वीरें प्रसारित की गई थीं, जिसमें वे 10वें सिखगुरु गुरु गोबिंद सिंह की तरह कपड़े पहने और भक्तों को 'अमृत' देते हुए दिखाई दे रहे थे.
सिख धार्मिक मामलों के उच्चतम निकाय अकाल तख़्त ने सिखों को राम रहीम के अनुयायियों के साथ किसी तरह का सामाजिक संबंध ना रखने का आदेश दिया.
राम रहीम ने माफ़ी तो माँग ली थी, लेकिन उनकी माफ़ी को अकाल तख्त ने स्वीकार नहीं किया था.
हालांकि, 2015 में अकाल तख़्त ने राम रहीम को माफ़ कर दिया जिसके बाद से बादलों के ख़िलाफ़ सिखों की नाराज़गी शुरू हुई.
पारंपरिक सिख अकाली दल से इसलिए नाराज़ थे क्योंकि एसजीपीसी में उनके पास बहुमत था (एसजीपीसी अकाल तख्त का जत्थेदार नियुक्त करता है) और बादलों पर आरोप लगे कि वे ही अकाल तख़्त पर इस फ़ैसले के लिए दबाव बना रहे हैं.
बादलों ने इन सभी आरोपों को ख़ारिज किया और राम रहीम पर लिया फ़ैसला वापस ले लिया गया. लेकिन कई सिखों को महसूस हुआ कि बादल सिखों के चरित्र के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं.
बाद में, बादलों पर आरोप लगा कि 2017 के चुनावों में अनुयायियों के वोट के लिए उन्होंने राम रहीम के साथ समझौता कर लिया है.
बादलों के इन आरोपों से इनकार का कोई फ़ायदा नहीं हुआ और ये उनकी हार का एक बड़ा कारण साबित हुआ. बेशक, भ्रष्टाचार के आरोप, सत्ता का घमंड, कुशासन भी बड़े कारण रहे.
इस हार के डेढ़ साल बाद भी बादलों के ख़िलाफ़ लोगों के ग़ुस्से में कमी नहीं आई है. जनता का दबाव इतना है कि बीते गुरुवार को अकाल तख़्त के जत्थेदार ने अपनी ख़राब सेहत का हवाला देते हुए पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
कई वरिष्ठ अकालियों ने भी लीडरशिप को लेकर सवाल उठाए हैं और कुछ ने इस्तीफ़े भी दे दिए हैं.
अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने अकाली दल को साइडलाइन करने के लिए तेज़ी से सक्रियता दिखाई है.
बरगारी विरोध को भी अकालियों के ख़िलाफ़ निर्देशित किया जा रहा है क्योंकि 2015 की गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान और गोलीबारी की घटना उनकी सत्ता में हुई.
कट्टरपंथी, अमरिंदर सरकार से बादलों पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. अमरिंदर सरकार ने 2015 की घटनाओं की जांच के लिए रणजीत सिंह आयोग बनाया था जिसने अपनी रिपोर्ट में कार्रवाई ना करने के लिए बादल सरकार को दोषी ठहराया.
अकाली दल ने पंजाब विधानसभा में इस रिपोर्ट पर हुई एक दिवसीय चर्चा का बहिष्कार किया. रणजीत आयोग की रिपोर्ट के सहारे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने उनकी अनुपस्थिति में बादलों पर जमकर हमला बोला.
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अकालियों ने रणजीत सिंह आयोग की रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया है. बादलों ने अलग से भी अपनी सत्ता में किसी तरह के ग़लत काम से इनकार किया है.
इन वजहों से बरगारी का विरोध पंजाब की राजनीति का केंद्र बन गया है और कट्टरपंथियों के विरोध को विश्वसनीयता मिल रही है.
अनुभवी जानकारों का मानना है कि इससे कट्टरपंथियों के हाथ मज़बूत हो रहे हैं. अन्य कुछ लोग मानते हैं कि बादल ख़ुद इसके लिए ज़िम्मेदार हैं.
अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल मीडिया को संबोधित कर रहे हैं और स्पष्टीकरण दे रहे हैं कि ऐसी ख़बरें ग़लत हैं कि लोग अकालियों को नहीं चाहते और उनके ख़िलाफ़ गांवों में नारे लगा रहे हैं.
आने वाले कुछ हफ़्तों में पूरी कहानी सबके सामने आ जाएगी.