कोरोना को लॉकडाउन की जगह 'सर्जिकल स्ट्राइक' से रोकना संभव है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि "जब तक कोरोना वायरस का कोई टीका विकसित नहीं हो जाता, तब तक सोशल डिस्टेंसिंग ही इससे बचने का सबसे कारगर तरीक़ा है." लेकिन वैज्ञानिकों का एक तबक़ा लगातार 'हर्ड इम्यूनिटी" के ज़रिए इस वायरस को कंट्रोल करने की बात कर रहा है. कोरोना वायरस संक्रमण से प्रभावित ज़्यादातर देशों ने सोशल डिस्टेंसिंग
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि "जब तक कोरोना वायरस का कोई टीका विकसित नहीं हो जाता, तब तक सोशल डिस्टेंसिंग ही इससे बचने का सबसे कारगर तरीक़ा है." लेकिन वैज्ञानिकों का एक तबक़ा लगातार 'हर्ड इम्यूनिटी’ के ज़रिए इस वायरस को कंट्रोल करने की बात कर रहा है.
कोरोना वायरस संक्रमण से प्रभावित ज़्यादातर देशों ने सोशल डिस्टेंसिंग को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए लॉकडाउन का रास्ता चुना है लेकिन मुख्यधारा के इस चुनाव को कुछ वैज्ञानिक ये कहते हुए चुनौती दे रहे हैं कि "आख़िर कब तक वायरस से छिपकर बैठा जा सकता है?"
लॉकडाउन की वजह से ठप हुए उद्योग-धंधों और सुस्त होती अर्थव्यवस्थाओं को देखते हुए इन वैज्ञानिकों की दलील है कि "इससे पहले भुखमरी ज़्यादा बड़ी समस्या बने, हमें कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ हर्ड इम्यूनिटी विकसित करने के बारे में विचार करना चाहिए."
लेकिन इस विचार के आलोचकों की संख्या फ़िलहाल ज़्यादा है जिनका मानना है कि इससे बहुत सारे लोगों की जान को ख़तरा हो सकता है. आपको बताएंगे कि इस विषय पर कौन क्या सोच रहा है, लेकिन पहले समझें कि 'हर्ड इम्यूनिटी’ आख़िर है क्या.
'हर्ड इम्यूनिटी’
इस वैज्ञानिक आइडिया के अनुसार अगर कोई बीमारी किसी समूह के बड़े हिस्से में फैल जाती है तो इंसान की रोग प्रतिरोधक क्षमता उस बीमारी से लड़ने में संक्रमित लोगों की मदद करती है. जो लोग बीमारी से लड़कर पूरी तरह ठीक हो जाते हैं, वो उस बीमारी से 'इम्यून’ हो जाते हैं, यानी उनमें प्रतिरक्षात्मक गुण विकसित हो जाते हैं.
इम्यूनिटी का मतलब यह है कि व्यक्ति को संक्रमण हुआ और उसके बाद उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता ने वायरस का मुक़ाबला करने में सक्षम एंटी-बॉडीज़ तैयार कर लिया.
जैसे-जैसे ज़्यादा लोग इम्यून होते जाते हैं, वैसे-वैसे संक्रमण फैलने का ख़तरा कम होता जाता है. इससे उन लोगों को भी परोक्ष रूप से सुरक्षा मिल जाती है जो ना तो संक्रमित हुए और ना ही उस बीमारी के लिए 'इम्यून’ हैं.
अमरीकी हार्ट एसोसिएशन के चीफ़ मेडिकल अफ़सर डॉक्टर एडुआर्डो सांचेज़ ने अपने ब्लॉग में इसे समझाने की कोशिश की है.
वे लिखते हैं, “इंसानों के किसी झुंड (अंग्रेज़ी में हर्ड) के ज़्यादातर लोग अगर वायरस से इम्यून हो जाएं तो झुंड के बीच मौजूद अन्य लोगों तक वायरस का पहुँचना बहुत मुश्किल होता है और एक सीमा के बाद इसका फैलाव रुक जाता है. मगर इस प्रक्रिया में समय लगता है. साथ ही 'हर्ड इम्यूनिटी’ के आइडिया पर बात अमूमन तब होती है जब किसी टीकाकरण प्रोग्राम की मदद से अतिसंवेदनशील लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित कर ली जाती है.”
एक अनुमान के अनुसार किसी समुदाय में कोविड-19 के ख़िलाफ़ 'हर्ड इम्यूनिटी’ तभी विकसित हो सकती है, जब तक़रीबन 60 फ़ीसद आबादी को कोरोना वायरस संक्रमित कर चुका हो और वे उससे लड़कर इम्युन हो गए हों.
क्या ये भारत में संभव है?
वॉशिंगटन स्थित सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ डायनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी के डायरेक्टर और अमरीका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के सीनियर रिसर्च स्कॉलर डॉक्टर रामानन लक्ष्मीनारायण ने भारतीय संदर्भ में इसे समझाने की कोशिश की है.
उनका मानना है कि "भारत लॉकडाउन को बढ़ाते रहने और कोरोना वायरस के टीके का इंतज़ार करने की बजाय कोविड-19 को कंट्रोल करने की तरफ़ बढ़ सकता है जो कि हर्ड इम्यूनिटी नाम की वैज्ञानिक अवधारणा के ज़रिए संभव है."
डॉक्टर रामानन लक्ष्मीनारायण ने बीबीसी को बताया, “अगर भारत की 65 प्रतिशत आबादी कोरोना वायरस से संक्रमित होकर ठीक हो जाए, भले ही संक्रमण के दौरान उनमें हल्के या ना के बराबर लक्षण हों, तो बाक़ी की 35 प्रतिशत आबादी को भी कोविड-19 से सुरक्षा मिल जाएगी.”
लेकिन देश की बुज़ुर्ग और पहले से डायबिटीज़ या दिल की बीमारी झेल रही आबादी को ख़तरे में डाले बिना क्या ये संभव है?
इसके जवाब में डॉक्टर रामानन कहते हैं, “भारत की जनसांख्यिकी इस स्थिति में सबसे बड़ी ताक़त साबित हो सकती है. भारत में 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है और केवल 6 प्रतिशत लोगों की आयु 65 वर्ष से अधिक है जबकि इटली में 22 प्रतिशत और चीन में 10 प्रतिशत लोग ज़्यादा जोखिम वाले आयु वर्ग के हैं, यानी 65 वर्ष से अधिक उम्र के हैं.”
“वहीं युवाओं में संक्रमण के ज़्यादातर मामलों में या तो मरीज़ में मामूली लक्षण देखने को मिल रहे हैं या फिर उनमें कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहे. अगर इस तबक़े को सीमित तरीक़े से कोरोना वायरस से एक्सपोज़ किया जाए तो भारत के अस्पतालों को शायद मरीज़ों का उतना बोझ ना झेलना पड़े.”
'युवाओं के दम पर बुज़ुर्गों को बचा सकता है भारत’
डॉक्टर रामानन लक्ष्मीनारायण इस संबंध में कुछ सुझाव भी देते हैं. वे कहते हैं, “ऐसा करने के लिए भारत को अपनी टेस्टिंग की क्षमता को बढ़ाना होगा, ताकि जिन तबक़ों में हम कोविड-19 को सीमित रखना चाहते हैं, वहाँ तेज़ी से संक्रमण का पता लगाया जा सके और जिनको स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरत हो, उन्हें जल्द से जल्द ये सेवाएं दी जा सकें. साथ ही सोशल डिस्टेन्सिंग और साफ़-सफ़ाई का ध्यान तो रखना ही होगा.”
डॉक्टर रामानन एंटी-बॉडीज़ टेस्टिंग को भी ज़रूरी मानते हैं ताकि उन लोगों का पता लगाया जा सके जिनमें कोविड-19 से लड़ने वाली एंटीबॉडी विकसित हो चुकी हैं.
वे कहते हैं, “मुझे लगता है कि लॉकडाउन ने भारत में कोविड-19 के पीक को एक महीने के लिए टाल दिया है. हमें इस समय का उपयोग यह समझने के लिए करना चाहिए कि हम अपने उद्देश्य तक कैसे पहुँचेंगे.“
“हमें स्वास्थ्य सेवाओं को तेज़ी से मज़बूत करना होगा और साथ ही ये भी समझना होगा कि हम कोविड-19 के डर के साये में पूरा जीवन नहीं बिता सकते. इसलिए अगर लॉकडाउन खुल भी जाता है तो हमें सोशल डिस्टेन्सिंग, मास्क वगैरह का ख़ास ध्यान रखना होगा. हर्ड इम्यूनिटी की बात करें तो अपने युवाओं के बल पर भारत अपने बुज़ुर्गों को बचा सकता है, पर इम्यूनिटी को हासिल करने में जोखिम क्या-क्या होंगे, ये समय ही बता सकता है.”
'हर्ड इम्यूनिटी की कोई गारंटी नहीं’
मगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के टॉप इमरजेंसी एक्सपर्ट माइक रयान का बयान कोरोना वायरस के संबंध में 'हर्ड इम्यूनिटी’ की थ्योरी पर सवाल खड़े करता है.
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रेस वार्ता में माइक ने कहा कि 'अभी पूरे यक़ीन के साथ ये नहीं कहा जा सकता कि जो लोग नए कोरोना वायरस से संक्रमित हुए और ठीक होने के बाद उनके शरीर में जो एंटीबॉडी बनी हैं, वो उन्हें दोबारा इस वायरस के संक्रमण से बचा पाएंगी भी या नहीं.’
माइक ने कहा, “अब तक मिली सूचनाओं के अनुसार कोविड-19 से पूरी तरह ठीक हुए लोगों में से बहुत कम में ही एंटीबॉडी बन पाई हैं. अगर इन्हें प्रभावी मान भी लें तो इसके संकेत फ़िलहाल बहुत कम हैं कि किसी समुदाय के अधिकांश लोगों में बीमारी के बाद एंटीबॉडी विकसित होने से, बाक़ी बचे लोगों को हर्ड इम्यूनिटी का फ़ायदा होगा.”
अमरीकी न्यूज़ वेबसाइट 'बिज़नेस इनसाइडर’ के अनुसार हाल ही में ऑनलाइन यह अफ़वाह शेयर की गई कि कैलेफ़ॉर्निया और वॉशिंगटन ने कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ हर्ड इम्यूनिटी हासिल कर ली है, इन शहरों के अधिकांश लोगों में एंटीबॉडी विकसित हो गई हैं, इसलिए वायरस अब और नहीं फैलेगा.
जबकि वेबसाइट ने अपनी इस रिपोर्ट में जानकारों के हवाले से लिखा है कि अमरीका कोरोना वायरस से 'हर्ड इम्यूनिटी’ हासिल करने के क़रीब भी नहीं है क्योंकि अब तक सिर्फ़ 2-3 प्रतिशत अमरीकी ही कोविड-19 से रिकवर (पूरी तरह ठीक) हुए हैं, और वायरस से इम्यूनिटी पाने के लिए कम से कम देश की 50 प्रतिशत आबादी को कोविड-19 से इम्यून होना पड़ेगा.
ब्रिटेन में भी थी 'हर्ड इम्यूनिटी’ की चर्चा
13 मार्च 2020 को, जब ब्रिटेन में कोरोना वायरस के मामलों ने एक तेज़ उछाल लिया तो यूके सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार सर पैट्रिक वेलांस ने बीबीसी रेडियो-4 से बातचीत में कहा था कि 'इस वायरस के प्रकोप को सीमित करने के लिए देश को कुछ हद तक हर्ड इम्यूनिटी विकसित करनी होगी.’
इसके बाद एक टीवी न्यूज़ चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा कि 'देश में हर्ड इम्यूनिटी विकसित हो, इसके लिए ज़रूरी है कि संक्रमण कम से कम 60 प्रतिशत आबादी में फैले.’
लेकिन उनका ये बयान तुरंत ही विवादों में घिर गया और यूके के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले कम से कम 300 वैज्ञानिकों ने 14 मार्च 2020 को यूके सरकार को पत्र लिखकर कहा कि “ब्रिटेन कोरोना वायरस महामारी के शुरुआती दौर में है, ऐसे में हमें सख़्त प्रतिबंधों के बारे में सोचना चाहिए, ना कि 'हर्ड इम्यूनिटी’ जैसे विकल्प के बारे में जिससे बहुत सारे लोगों की जान को अनावश्यक ख़तरा हो सकता है.”
अंत में ब्रिटेन की सरकार को लॉकडाउन का ही विकल्प चुनना पड़ा. लॉकडाउन की घोषणा यूके के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने 23 मार्च को की थी जिसे ब्रिटेन की सरकार ने 16 अप्रैल के बाद तीन सप्ताह के लिए बढ़ाया भी है.