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भारत-पाकिस्तान लड़ाई: घायल हुए पर मैदान नहीं छोड़ा कर्नल तारापोर ने

वो जवान जिसने कहा था, अगर मैं लड़ाई में मारा जाता हूँ तो मेरा अंतिम संस्कार यहीं युद्ध भूमि में किया जाए. कर्नल तारापोर को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया था.

By BBC News हिन्दी
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फिलौरा जीतने के बाद सयालकोट की तरफ़ बढ़ते हुए जैसे ही पूना हॉर्स के टैंकों ने सीमा पार की, कमांडिंग आफ़िसर अदी तारापोर ने अपने नंबर 2 मेजर निरंजन सिंह चीमा को कोने में बुलाया.

चीमा समझे कि वो युद्ध की रणनीति के बारे में बात करेंगे.

लेकिन तारापोर ने कहा, ''अगर मैं लड़ाई में मारा जाता हूँ तो मेरा अंतिम संस्कार यहीं युद्ध भूमि में किया जाए. मेरी प्रेयर बुक मेरी माँ के पास भिजवा दी जाए और मेरी सोने की चेन मेरी पत्नी को दे दी जाए. मेरी अंगूठी मेरी बेटी और मेरा फ़ाउंटेन पेन मेरे बेटे ज़र्ज़ीस को दे दिया जाए. उससे कहा जाए कि वो भी मेरी तरह भारतीय सेना में जाए.''

घायल होने पर भी मैदान से नहीं हटे

पाँच दिन बाद लेफ़्टिनेंट कर्नल अदी तारापोर पाकिस्तानी टैंक के गोले का शिकार हो गए.

इससे पहले भी उनकी बाँह में टैंक के गोले का एक शार्पनल आकर लगा था जिससे उसमें एक गहरा घाव हो गया था.

उन्होंने इलाज के लिए वापस जाने से इंकार कर दिया था और अपनी बाँह में स्लिंग लगाकर लड़ते रहे थे.

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तारापोर की बेटी ज़रीन जो इस समय पुणे में रहती हैं वो बताती हैं, ''चविंडा में उनके हाथ में स्नाइपर्स लगे थे. मेरे पिताजी बहुत वफ़ादार व्यक्ति थे. अपने सिर पर वो अक्सर ज़िम्मेदारियाँ लिया करते थे. उन्हें लगा कि अगर वो ज़ख़्मी होने के कारण मैदान से हट गए तो उनके सैनिकों को कौन देखेगा."

"वो बहुत बहादुर आदमी थे. मुझे उनके साथियों ने बताया कि उनको लगी चोट काफ़ी गंभीर थी और वो दर्द से बचने के लिए मार्फ़ीन के इंजेक्शन ले रहे थे. उस समय उनकी रेजिमेंट बहुत तेज़ी से अंदर जा रही थी और उन्हें लगता था कि अगर मैं हट गया तो उनकी रेजिमेंट की तेज़ी भी घट जाएगी.''

अपना टैंक लेकर ख़ुद आगे आए

अदी तारापोर के उस समय के साथी कैप्टन अजय सिंह जो बाद में लेफ़्टिनेंट जनरल और असम के राज्यपाल बने, याद करते हैं, ''ब्रिगेडियर केके सिंह ने आदेश दिया कि पूना हार्स चविंडा के आसपास एक रिंग डालेगी. 14-15 तारीख को हमने जसोरन और वज़ीरवाली पर कब्ज़ा कर लिया. फिर मेरी स्क्वार्डन को काम दिया गया कि हम भुट्टोडोगरानी पर कब्ज़ा करे. इस समय मेरे पास सात टैंक थे.''

वे बताते हैं, ''हमने उनको और 9 गढ़वाल की इंफ़ैंट्री को साथ लिया और उस पर कब्ज़ा कर लिया. थोड़ी देर बाद पाकिस्तानियों का जवाबी हमला आ गया टैंकों के साथ जिसमें हमारी और उनकी बहुत कैजुएल्टी हुई. मैंने सीओ साहब को एसओएस भेजा कि जल्दी से जल्दी और टैंक भेजें. उन्होंने आसपास खड़े सारे टैंकों को जमा किया और अपना टैंक लेकर ख़ुद आ गए और मेरे बगल में पोज़ीशन लेकर पाकिस्तानियों पर फ़ायर करने लगे.''

टैंक पर सवार तारापोर

जनरल अजय सिंह बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
BBC
जनरल अजय सिंह बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ

अजय सिंह आगे कहते है, ''उसी दौरान उन्हें पाकिस्तानी टैंक का गोला लगा जिससे वो घायल हो गए. शाम को हमें पता चला कि वो घायल नहीं हुए हैं बल्कि उनकी मौत हो गई है.""

"वो जिस टैंक पर चलते थे, उसका नाम ख़ुशाब था. वो चूँकि हिट हो चुका था और स्टार्ट नहीं हो रहा था. इसलिए हमें उसे वहीं छोड़कर आना पड़ा. उस टैंक को पाकिस्तानी उठाकर ले गए जो अब भी उनके वॉर मेमोरियल में रखा हुआ है.''

हमेशा कपोला के ऊपर खड़े रहते थे तारापोर

तारापोर अपने टैंक के कपोला पर खड़े होकर युद्ध भूमि का मुआयना करते थे. आखिरी दिनों में उनका बाँया हाथ भी स्लिंग में बंधा हुआ था.

ज़रीन बताती हैं, ''आमतौर से युद्ध के मैदान में कपोला बंद कर लड़ाई होती है लेकिन उन्होंने कभी भी अपना कपोला बंद नहीं किया. उन्हें देखकर उनके जूनियर्स भी अपना कपोला खुला रखते थे. जब वो इस तरह आगे गए तो पाकिस्तानी सैनिक भी आश्चर्य में पड़ गए कि सब लोग सिर ऊपर किए हुए चले आ रहे हैं.''

जनरल अजय सिंह याद करते हैं, ''वो कपोला में इसलिए नहीं घुसते थे क्योंकि उनका मानना था कि कमांडर को हमेशा दिखाई देते रहना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हो तो उसके और दूसरे टैंकों में फ़र्क क्या रह जाएगा. वो हमेशा ऊपर काला चश्मा लगाकर ये दिखाने के लिए खड़े रहते थे कि मैं तुम्हारे साथ हूँ. उनको डर तो लगता ही नहीं था.''

ग्रेनेड से बचाया

कर्नल तारापोर पूना हॉर्स में संयोगवश ही आए थे. वो हैदराबाद स्टेट की सेना में काम करते थे.

एक बार भारतीय स्टेट फ़ोर्सेज़ के कमांडर इन चीफ़ मेजर जनरल एल एदरोस उनकी बटालियन का निरीक्षण कर रहे थे.

ग्रेनेड फेंकने के अभ्यास के दौरान एक युवा सिपाही घबरा गया और उसने वो ग्रेनेड उस स्थान पर फैंक दिया जहाँ बहुत से लोग बैठे हुए थे. इससे पहले कि वो फटता तारापोर बिजली की तेज़ी से दौड़े और ग्रनेड को उठाकर दूसरी तरफ़ फेंक दिया.

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फेंकने से पहले ही वो ग्रेनेड उनके हाथों में ही फट गया और उसके शार्पनेल उनके सीने में घुस गए.

ज़रीन बताती हैं, ''कुछ दिनों बाद जब वो ठीक हो गए तो जनरल एदरोस ने उन्हें बुलावा भेजा. उन्होंने उनसे पूछा कि मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ. तारापोर ने कहा कि उनका तबादला आर्मर्ड डिवीजन में कर दिया जाए. दूसरे दिन मेरे पिताजी का तबादला हैदराबाग लाँसर्स में कर दिया गया. आज़ादी के बाद जब हैदराबाद का भारत में विलय हुआ तो उन्हें पूना हॉर्स में तैनात किया गया.''

हमेशा आगे आगे

कर्नल तारापोर की बहादुरी का ज़िक्र करते हुए जनरल अजय सिंह कहते हैं, ''उनको भुट्टोडोगरानी में ख़ुद आने की क्या ज़रूरत थी? वो किसी और स्क्वार्डन को वहाँ नहीं भेज सकते थे ? मुझे याद है लड़ाई के दौरान मेरे साथी अफ़सर ने उनसे कहा कि आप अपनी पोज़ीशन बदल कर कवर में चले जाइए. उन्होंने कहा नहीं. जहाँ तुम रहोगे वहाँ मैं रहूँगा. अगर तुम्हें गोला लगेगा तो मुझे भी गोला लगेगा.''

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लड़ाई के दौरान उनकी कमांड का लोहा उनका सामना कर रहे पाकिस्तानियों ने भी माना था. 1965 में पाकिस्तानी सेना के निदेशक, मिलिट्री ऑप्रेशन, गुल हसन ख़ाँ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "25 केवेलरी के कमांडर कर्नल निसार ख़ाँ ने मुझे बताया था कि तारापोर के वायरलेस इंटरसेप्ट को सुनना... हम लोगों के लिए बहुत बड़ी सीख होती थी. उनका अपने लोगों को कमांड देना सुनते ही बनता था."

नेपोलियन थे उनके हीरो

ज़रीन बताती है कि उनके पिता के हीरो नेपोलियन थे. उनके पास नेपोलियन पर बहुत सी किताबें थी. उन्हें संगीत का भी बहुत शौक था. हर रात को वो अंग्रेज़ी क्लासिकल संगीत सुना करते थे. कर्नल तारापोर चाइकोस्की को बहुत पसंद करते थे.

लेफ़्टिनेंट जनरल चीमा की पत्नी ऊषा चीमा बताती हैं, ''65 की लड़ाई पर जाने से पहले मैं अपने पति को पूना रेलवे स्टेशन छोड़ने आई थी. ट्रेन छूटने ही वाली थी कि तारापोर मेरे पास आए. बोले ऊषा तुम चिंता मत करो मैं निरंजन (मेरे पति) का ख़्याल रखूँगा. उन्होंने अपना वादा पूरा किया. मेरे पति लड़ाई से सुरक्षित वापस लौटे लेकिन तारापोर हमेशा के लिए इस दुनिया से चले गए.''

कर्नल तारापोर की बेटी ज़रीन को अभी तक याद है, ''1966 के गणतंत्र दिवस पर हम दिल्ली गए थे. मेरी माताजी को कर्नल ऑफ़ द रेजीमेंट के पास बैठाया गया था. हम बच्चे लोग आगे के इनक्लोजर में थे. मेरी मां 41 साल की थीं. जब उनका साइटेशन पढ़ा गया तो वो हम सब लोगों के लिए बहुत मुश्किल और भावुक क्षण था जब राधाकृष्णन ने पुरस्कार देने के बाद संवेदना में मेरी माँ के हाथ को थपथपाया. माहौल इस तरह का हो गया कि हम अपने आँसू नहीं रोक पाए.''

(मूल रूप से ये लेख साल 2015 में छपा था)

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English summary
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