पीएफ़आई पर प्रतिबंध लग तो गया पर क्या जारी रह पाएगा?
केंद्र सरकार ने पीएफ़आई और उसकी सहयोग संस्थाओं पर पाँच साल के लिए बैन लगा दिया है. ये बैन तत्काल प्रभाव से लागू भी हो गया है. पर मामला क्या यहीं ख़त्म हो जाता है?
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) और उसकी आठ सहयोगी संगठनों पर पांच साल का प्रतिबंध भले ही लगा दिया है लेकिन ये मामला यहीं ख़त्म नहीं हो जाता.
जिस अनलॉफुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट या ग़ैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम के तहत केंद्र सरकार ने ये प्रतिबंध लगाया है, उसी के प्रावधानों के मुताबिक अब केंद्र सरकार को 30 दिनों के भीतर इस प्रतिबंध की अधिसूचना को एक ट्राइब्यूनल के सामने पेश करना होगा. वो ये तय करेगा कि पीएफ़आई और उसकी आठ सहयोगी संगठनों को ग़ैरकानूनी घोषित करने के लिए पर्याप्त वजहें हैं या नहीं.
इस एक-सदस्यीय ट्राइब्यूनल को अनलॉफुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन ट्राइब्यूनल कहा जाता है जिसका गठन केंद्र सरकार समय-समय पर करती है. क़ानून के मुताबिक इस ट्राइब्यूनल में हाई कोर्ट के न्यायाधीश से कम ओहदे के व्यक्ति की नियुक्ति नहीं की जा सकती.
जैसे ही ये मामला ट्राइब्यूनल के सामने पहुंचेगा तो ट्राइब्यूनल पीएफ़आई और उसके आठ सहयोगी संगठनों को एक कारण बताओ नोटिस जारी करके पूछेगा कि क्यों उन्हें अवैध घोषित नहीं किया जाना चाहिए.
अगर पीएफ़आई या उसके सहयोगी संगठनों के पदाधिकारी या सदस्य ऐसी कोई वजहें बता पाते हैं कि क्यों उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए तो ट्राइब्यूनल एक जांच करेगा.
इस जांच के दौरान ट्राइब्यूनल पीएफ़आई और उसके सहयोगी संगठनों के साथ-साथ केंद्र सरकार से ज़रूरी जानकारियां मांगेगा और यह तय करेगा कि इन संगठनों को ग़ैरकानूनी घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण उपलब्ध हैं या नहीं.
उसके पास यह तय करने के लिए छह महीने का समय होगा कि केंद्र सरकार ने जो प्रतिबंध लगाया है उसे बरक़रार रखा जाए या रद्द किया जाए.
इस पूरी प्रक्रिया के दौरान जहां केंद्र सरकार ट्राइब्यूनल के सामने सबूत पेश कर ये साबित करने की कोशिश करेगी कि इन संगठनों पर लगाया गया बैन जायज़ है, वहीं दूसरी तरफ पीएफ़आई और उसके सहयोगी संगठनों को भी ट्राइब्यूनल के सामने अपना पक्ष रखने और खुद को निर्दोष साबित करने का मौका मिलेगा.
पीएफ़आई - पॉपुलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया
- 2006 में केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के तीन संगठनों के विलय से बना
- ख़ुद को ग़रीबों के लिए काम करने वाला ग़ैर-सरकार सामाजिक संगठन बताता है
- दो साल बाद गोवा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मणिपुर के पाँच संगठन पीएफ़आई में मिले
- अभी पीएफ़आई के 23 राज्यों में फैले होने और चार लाख सदस्य होने का दावा
- हाल में देश के कई राज्यों में पीएफ़आई के दफ़्तरों और जुड़े लोगों के घरों पर एनआईए, ईडी और प्रदेश पुलिस के छापे
- 29 सितंबर को केंद्र सरकार ने पीएफ़आई और उससे जुड़े 8 संगठनों पर 5 साल के लिए लगाया प्रतिबंध
क्या हैं क़ानूनी प्रावधान
गौरतलब है कि ग़ैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम, 1967 के सेक्शन 3 सब-सेक्शन 3 में ये कहा गया है कि किसी संगठन पर प्रतिबंध लगाने की अधिसूचना तब तक प्रभावी नहीं होगी जब तक ट्राइब्यूनल उस पर अपनी मुहर न लगा दे.
लेकिन साथ ही इस बात का प्रावधान भी दिया गया है कि अगर केंद्र सरकार का ये मानना है कि ऐसे हालात मौजूद हैं जिनमे किसी संगठन को तत्काल प्रभाव से ग़ैरकानूनी घोषित करने की ज़रुरत है तो केंद्र सरकार उन वजहों को लिखित में बताकर निर्देश दे सकती है. ऐसे में ये प्रतिबंध लगाने की अधिसूचना आधिकारिक राजपत्र में छपने वाली तारीख़ से ही लागू मानी जाएगी लेकिन ये उस आदेश के अधीन होगी जो आख़िरकार ट्राइब्यूनल सुनाएगा.
आसान शब्दों में कहा जाए तो केंद्र सरकार ने पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर जो प्रतिबंध लगाया है वो तत्काल प्रभाव से लागू ज़रूर हो गया है लेकिन ये प्रतिबंध जारी रहेगा या नहीं इसका फैसला ट्राइब्यूनल का अंतिम आदेश आने के बाद ही हो पायेगा.
क्या ट्राइब्यूनल महज़ एक औपचारिकता?
अक्सर ऐसा देखा गया है कि केंद्र सरकार के किसी संगठन पर प्रतिबंध लगाने के बाद जब मामला ट्रिब्यूनल के सामने पहुंचा तो ट्राइब्यूनल ने केंद्र सरकार के फैसले को बरक़रार रखा. इस वजह से ये सवाल भी उठता है कि क्या संगठनों पर लगे प्रतिबंधों के मामलों का ट्राइब्यूनल के सामने जाना महज़ एक औपचारिकता है?
सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वरिष्ठ वकील कॉलिन गोन्साल्वेज़ अनलॉफुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट से जुड़े मामलों पर लगातार काम करते रहे हैं. वे कहते हैं कि संभवतः 90 फीसदी मामलों में ट्राइब्यूनल महज़ एक औपचारिकता हो सकते हैं लेकिन 10 फीसदी मामलों में ट्राइब्यूनल के फैसले सरकार के खिलाफ भी हो सकते हैं.
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वे कहते हैं, "यह ट्राइब्यूनल का नेतृत्व करने वाले न्यायाधीश पर निर्भर करता है. जज अगर सरकार समर्थक हैं तो यह औपचारिकता होगी. लेकिन अगर जज एक स्वतंत्र जज हैं तो सरकार के लिए मुश्किल हो सकती है क्योंकि इनमें से कई मामले केवल कहानी सुनाने वाले मामलों जैसे होते हैं और जब आप ठोस सबूत ढूंढेंगे तो आपको कुछ भी नहीं मिलेगा."
गोन्साल्वेज़ कहते हैं कि ये निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए न्यायाधीश वही करेंगे जो केंद्र सरकार कहेगी. वे कहते हैं, "असाधारण रूप से स्वतंत्र न्यायाधीश भी होते हैं जो सरकार द्वारा नियुक्त किए जाने के बावजूद उसी सरकार के खिलाफ़ आदेश पारित करते हैं."
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सरकार को क्या साबित करना होगा?
पीएफ़आई और उसके सहयोगी संगठनों पर लगे प्रतिबंध का मामला जब ट्राइब्यूनल के सामने आएगा तो केंद्र सरकार को वो सभी आरोप साबित करने होंगे जिनके आधार पर इस प्रतिबंध को लगाने की अधिसूचना जारी की गई है.
केंद्र सरकार का कहना है कि पीएफ़आई और इसके सहयोगी संगठन सार्वजनिक तौर पर एक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संगठन के रूप में काम करते हैं लेकिन ये एक गुप्त एजेंडा के तहत समाज के एक वर्ग-विशेष को कट्टर बनाकर लोकतंत्र को कमज़ोर करने का काम करते हैं और देश के संवैधानिक ढांचे के प्रति घोर अनादर दिखाते हैं.
केंद्र का ये भी आरोप है कि ये संगठन ऐसे कामों में शामिल हैं जो भारत की अखंडता, सम्प्रभुता और सुरक्षा के खिलाफ हैं और जिससे शांति और सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल ख़राब होने और देश में उग्रवाद को प्रोत्साहन मिलने की आशंका है.
केंद्र सरकार का कहना है कि पीएफ़आई के कुछ संस्थापक सदस्य स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (सिमी) के नेता रहे हैं और पीएफ़आई का सम्बन्ध जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश से भी रहा है और ये दोनों संगठन प्रतिबंधित हैं.
सरकार का ये भी दावा है कि पीएफ़आई के इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आइसिस) जैसे वैश्विक आतंकवादी समूहों के साथ संपर्क के कई उदाहरण हैं.
आरोप ये भी है कि पीएफ़आई और इसके सहयोगी संगठन चोरी-छिपे देश में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा देकर एक समुदाय के कट्टरपंथ को बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं. केंद्र सरकार का ये भी कहना है कि इस आरोप की पुष्टि इस "तथ्य" से होती है कि इन संगठनों के कुछ सदस्य अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठनों से जुड़ चुके हैं.
केंद्र सरकार ने ये आरोप भी लगाया है कि पीएफ़आई के काडर बार-बार "हिंसक और विध्वंसक कार्यों में संलिप्त रहे हैं".
सरकार के मुताबिक इन हिंसक कार्यों में एक कॉलेज प्रोफेसर का हाथ काटना, अन्य धर्मों का पालन करने वाले संगठनों से जुड़े लोगों की निर्मम हत्या करना, प्रमुख लोगों और स्थानों को निशाना बनाने के लिए विस्फोटक हासिल करना और सार्वजानिक संपत्ति को नुक्सान पहुँचाना शामिल हैं.
पीएफ़आई पर एक और बड़ा आरोप ये है कि इसके पदाधिकारी, काडर और इससे जुड़े हुए लोग बैंकिंग चैनल, हवाला और दान के ज़रिये सुनियोजित आपराधिक षडयंत्र के तहत भारत के भीतर और बाहर से धन इकट्ठा कर रहे हैं जिसका इस्तेमाल आपराधिक और आतंकी गतिविधियों में किया जा रहा है.
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