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सरकारी बैंकों के डूबे हुए कर्ज़ों की वसूली ये 'बैड बैंक' कैसे कर पाएंगे

सालों तक अविवेकपूर्ण तरीके से कर्ज़ देने वाले बैंक अब इस धन की वसूली नहीं कर पा रहे हैं. इस कारण उन पर अरबों डॉलर का दबाव पड़ रहा है.

By BBC News हिन्दी
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यस बैंक
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यस बैंक

डेढ़ लाख से अधिक शाखाओं में दो खरब डॉलर मूल्य के डिपॉज़िट और अरबों उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएं दे रहे भारतीय बैंकों की स्थिति कागज़ों पर मज़बूत दिखती है. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है.

सालों तक कई बैंकों ने अविवेकपूर्ण तरीके से ऐसे प्रोजेक्ट्स को कर्ज़ दिया है जो अब बेकार पड़ी हैं. ये कर्ज़ अब बढ़ कर अरबों डॉलर का हो चुका है, बैंक इस डूब गए कर्ज़ के कारण परेशान हैं. भरपाई न हो सकने वाले कर्ज़ में से साठ फीसदी सरकारी बैंकों ने दिए थे.

साल 2018 में सरकार ने ऐसे पांच बैंकों को डूबने से बचाया था. बैंकों के कर्ज़ की भरपाई के मामले में परंपरागत रूप से ये कम ही रही है, दिए गए कर्ज़ का केवल एक तिहाई ही वसूल हो पाता है.

साल 2016 में सरकार ने इन्सोल्वेंसी एंडी बैंकरैप्सी कोड (दिवाला एवं शोधन अक्षमता कोड) लागू किया जिसके बाद कर्ज़ वसूली की स्थिति थोड़ी बेहतर हुई और ये आंकड़ा 40 से 45 फीसदी तक पहुंचा.

इस क़ानून के अनुसार कंपनी के दिवालिया घोषित होने पर उसकी संपत्ति पर बैंक का कब्ज़ा हो जाता है और बैंक उसे बेच कर अपने कर्ज़ की भरपाई कर सकती है.

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कमर्शियल बैंको को बचाने के लिए

कोरोना महामारी के बाद कर्ज़ लेने वालों की स्थिति बिगड़ी है और इस बात की संभावना बढ़ गई है कि वो बैंक का पैसा लौटा सकें. ऐसे में आने वाले महीनों में बैंकों पर कर्ज़ का बोझ बढ़ने की पूरी संभावना है.

साल 2005 से 2009 के बीच सरकार ने टैक्सपैयर्स का 35 अरब डॉलर इन बैंकों की हालत बेहतर करने में लगाया, लेकिन इससे कुछ असर नहीं पड़ा.

बीते साल जुलाई में फिच रेटिंग्स ने कहा कि डूब गए कर्ज़ से परेशान बैंकों की स्थिति में सुधार के लिए साल 2022 तक सरकार को 15 अरब से लेकर 58 अरब डॉलर तक के ताज़ा निवेश की ज़रूरत होगी.

अब सरकार 27 अरब डॉलर के कर्ज़ के घाटे के कारण पैदा हुए दबाव से कमर्शियल बैंको को बचाने के लिए 'बैड बैंक' का सहारा लेने जा रही है. एक अनुमान के अनुसार ये कमर्शियल बैंकों के दिए सौ अरब के कर्ज़े का एक चौथाई होगा.

इस कारण कर्ज़ देने को लेकर बैंकों पर दबाव तो पड़ा ही है, बल्कि इससे विकास की गति भी धीमी हो गई है. अर्थव्यवस्था में निजी निवेश लगातार कम हो रहा है और जिन बैंकों पर दबाव अधिक है वो अब हड़बड़ी में कर्ज नहीं देना चाहते.

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रियल इस्टेट कंपनी का बिल्डिंग प्रोजेक्ट
AFP
रियल इस्टेट कंपनी का बिल्डिंग प्रोजेक्ट

'बैड बैंक' क्या होते हैं?

'बैड बैंक' संपत्ति के पुनर्निमाण के लिए बनी कंपनी होती है जो बैंकों से एक तय कीमत पर कर्ज़ खरीद लेती है. इसके बाद वो कर्ज़ लेने के लिए दी गई गारंटी बेचती है, या फिर दिवालिया हुई कंपनी की संपत्ति बेचती है.

इन्हें बेचने से जो पैसा मिलता है उससे कुछ हद तक बैंकों के कर्ज़ की वसूली हो जाती है. ये पहली बार नहीं है जब भारत बैंक डूबे कर्ज़ की मुश्किल से परेशान हैं और उन्हें 'बैड बैंक' की ज़रूरत पड़ी है.

दरअसल, बीते दो दशकों में इस तरह की निजी 28 कंपनियां बनी हैं लेकिन कर्ज़ वसूली के मामले में स्थिति बेहतर नहीं हुई है. इस बार सरकार ने इस काम के लिए दो कंपनियां बनाई हैं- एक कंपनी बैंक का डूबा हुआ कर्ज़ खरीदेगी और ये सरकारी कंपनी होगी.

दूसरी कंपनी आंशिक रूप से निजी होगी और वो कर्ज़ लेने वाले की संपत्ति बेचने की कोशिश करेगी. कमर्शियल बैंकों द्वारा संपत्ति के अपेक्षित मूल्य और संपत्ति बेच कर मिले कुल पैसे के बीच जो फर्क रहेगा वो सरकार चुकाएगी.

जानकार मानते हैं कि ये काम कतई आसान नहीं होगा. सबसे पहले तो बैंकों को संपत्ति के मूल्य पर सहमत होना होगा.

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'द डर्टी डज़न'

इन्वेस्टमेंट एंड क्रेडिट रेटिंग्स एजेंसी आईसीआरए में फाइनेंस सेक्टर रेटिंग्स में उपाध्यक्ष अनिल गुप्ता कहते हैं, "मान लीजिए कि एक कंपनी कर्ज़ देने वाले 20 बैंकों का काम देख रही है. उन सभी को कुछ बातों पर सहमत होना होगा जैसे मौजूदा तारीख में कर्ज का मूल्य क्या है?"

"कर्ज़ लेने वालों से बैंक को जो गारंटी दी है उसका आज क्या मूल्य है? साथ ही बैंक को इस बात पर राज़ी करना कि वो सस्ते में घाटा सह कर कर्ज़ बेचे, ये भी अपने आप में मुश्किल काम है. कर्ज़ पर पैसा देने में बैंक बेहतर होते हैं, लेकिन उसी धन की वसूली में और डूबे कर्ज़ की भरपाई में वो बढ़िया नहीं हैं."

यहां दूसरी कंपनी हरकत में आती है. ये कंपनी बेकार हो गई कंपनियों या उसकी संपत्ति की नीलामी करती है, जैसे कि उसकी ज़मीन, कंपनी की मशीनरी और उसका स्क्रैप.

बैंकों से लिया 80 फीसदी कर्ज़ डूबने वाली कंपनियों में क़रीब एक दर्जन कंपनियां शुमार हैं, जिनमें लोहा और स्टील, विमानन, खनन, रोड, बिजली और दूरसंचार कंपनियां शामिल हैं.

इन 12 बड़ी कर्ज़ न चुका पा रही कंपनियों को 'द डर्टी डज़न' कहा जाता है. ये वो कंपनियां हैं जो स्टील. कपड़ा, बुनियादी ढांचा और जहाज़ बनाती थीं, बिजली की वितरण का काम करती थीं और रियल इस्टेट के काम में थीं.

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बैंकों पर कर्ज़ का बोझ

इन कंपनियों की कुछ संपत्ति बेच कर कर्ज़ की भरपाई की जा सकती है, लेकिन कोरोना की मार झेल रही अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ चुकी है और ऐसे में इन्हें बेच कर अधिक कुछ मिल पाएगा ऐसा नहीं लगता.

लंबे वक्त में भारत को अपनी बैंकिंग व्यवस्था को इन सब परेशानियों से दूर कर उसे दुरुस्त करना होगा.

भारत के क्रेडिट और जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात को देखा जाए तो ये 60 फीसदी पर है, और काफी कम है. लेकिन कर्ज़ डूबने के मामले में ये दुनिया के सबसे आगे रहने वाले कुछ देशों में शुमार है.

भारत में साल 2006 और 2008 के बीच बैंकों पर कर्ज़ का बोझ पड़ना शुरू हुआ. ये वो वक्त था जब अर्थव्यवस्था में उछाल था और बैंकों से कर्ज़ लेना आसान था.

साल 2007-2008 के बीच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक संकट आया और वैश्विक अर्थव्वस्था की विकास की दर धीमी हुई. लेकिन इसका असर भारत पर नहीं पड़ा और यहां निवेश में किसी तरह की कमी नहीं आई.

भारतीय रिज़र्व बैंक के पू्व गवर्नर सी रंगराजन कहते हैं, "आज जो कर्ज़ डूब गया है उसके बीच अच्छे वक्त में पड़े थे."

जानकार कहते हैं कि "इसका नतीजा हुआ तर्कहीन तरीके से अधिक पैसे देना."

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जादू की गोली

'पेन्डेमोनियम: द ग्रेट इंडियन बैंकिग ट्रैजडी' के लेखक तमाल बंदोपाध्याय कहते हैं कि तेज़ी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था, क्रेडिट ग्रोथ में बढ़ोतरी, कम महंगाई और वित्तीय घाटे में कमी के कारण कंपनियां और बैंक दोनों ही जोखिम उठाने को तैयार थे.

कई बार आत्मविश्वास से भरे बैंकरों ने लोन देने के मामले में पूरी सतर्कता नहीं बरती. बैंक "इस उम्मीद से भरे थे" कि कंपनी को ताज़ा कर्ज़ देने से वो मुनाफा कमाएंगी और उन्हें उनके पुराने कर्ज़ का ब्याज वापस मिल सकेगा.

बंदोपाध्याय कहते हैं, "भारतीय पूंजीपतियों ने अपनी परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए बैंक के कर्ज़े का इस्तेमाल न केवल डेट बल्कि इक्विटी के रूप में किया. हालांकि पूंजीवादी व्यवस्था में माना जाता है कि इक्विटी लाना पूंजीपति का काम है न कि बैंक का."

जानकार कहते हैं कि ऐसी स्थिति में भारतीय बैंकों के साथ जुड़ी इस प्रक्रियागत समस्या के निदान के लिए 'बैड बैंक' कोई जादू की गोली नहीं साबित होगी.

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सरकारी बैंकों को सही मायनों में स्वतंत्र होना पड़ेगा, उन्हें अपने काम करने के तरीकों में बदलाव करना होगा और कर्ज़ देते वक्त बाज़ार की स्थिति और जोखिम को सही से आंकते हुए खुद को बेहतर कर्ज़दाता बनाना होगा. साथ ही उन्हें ये भी देखना होगा कि वो कितना जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं.

रिज़र्व बैंक द्वारा बेहतर नियमन से इस दिशा में मदद मिलेगी. साथ ही कर्ज़ देने के मामले में बैंकों को अधिक पारदर्शिता भी अपनानी होगी.

अनिल गुप्ता कहते हैं कि "बैड बैंक इस दिशा में सही कदम है, लेकिन ये सफल हो पाएगा या नहीं, ये वक्त बताएगा."

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English summary
How will these 'bad banks' be able to recover the bad loans of public sector banks?
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