फ़ील्डमार्शल करियप्पा, जिनको पाकिस्तानी सैनिक भी करते थे सलाम
फ़ील्ड मार्शल के एम करियप्पा आज़ादी के बाद सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ़ थे. उन्हें 1986 में सेना का फ़ील्ड मार्शल बनाया गया. उनकी 27वीं पुण्य तिथि पर उन्हें याद कर रहे हैं रेहान फ़ज़ल विवेचना में.
भारतीय सेना को नेतृत्व प्रदान करने की बात आती है तो कोडांदेरा मदप्पा करियप्पा का नाम सबसे पहले लिया जाता है.
वो भारतीय सेना के पहले कमांडर इन चीफ़ थे. उनको 'किपर' के नाम से भी पुकारा जाता है. कहा जाता है कि जब वो फ़तेहगढ़ में तैनात थे तो एक ब्रिटिश अफ़सर की पत्नी को उनका नाम लेने में बहुत दिक्कत होती थी. इसलिए उन्होंने उन्हें 'किपर' पुकारना शुरू कर दिया.
1942 में करियप्पा लेफ़्टिनेंट कर्नल का पद पाने वाले पहले भारतीय अफ़सर बने. 1944 में उन्हें ब्रिगेडियर बनाया गया और बन्नू फ़्रंटियर ब्रिगेड को कमांडर के तौर पर तैनात किया गया.
फ़ील्डमार्शल करियप्पा की जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वी के सिंह बताते हैं, "उन दिनों एक गाँव से गुज़रते हुए करियप्पा ने देखा कि कुछ पठान औरतें अपने सिर पर पानी से भरे बड़े बड़े बर्तन ले कर जा रही हैं."
"पूछताछ के बाद पता चला कि उन्हें रोज़ चार मील दूर दूसरे गाँव से पानी लेने जाना पड़ता है. करियप्पा ने तुरंत उनके गाँव में कुँआ खुदवाने का आदेश दिया. पठान उनके इस काम से इतना खुश हुए कि उन्होंने उन्हें 'ख़लीफ़ा' कहना शुरू कर दिया."
लेह को भारत का हिस्सा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका
नवंबर 1947 में करियप्पा को सेना के पूर्वी कमान का प्रमुख बना कर राँची में तैनात किया गया.
लेकिन दो महीने के अंदर ही जैसे ही कश्मीर में हालत खराब हुई, उन्हें लेफ़्टिनेंट जनरल डडली रसेल के स्थान पर दिल्ली और पूर्वी पंजाब का जीओसी इन चीफ़ बनाया गया. उन्होंने ही इस कमान का नाम पश्चिमी कमान रखा.
उन्होंने तुरंत कलवंत सिंह के स्थान पर जनरल थिमैया को जम्मू कश्मीर फ़ोर्स का प्रमुख नियुक्त किया.
लेह जाने वाली सड़क तब तक नहीं खोली जा सकती थी जब तक भारतीय सेना का जोज़ीला, ड्रास और कारगिल पर कब्ज़ा नहीं हो जाता.
ऊपर के आदेशों की अवहेलना करते हुए करियप्पा ने वही किया. अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो आज लेह भारत का हिस्सा नहीं बना होता. उनकी बनाई गई योजना के तहत भारतीय सेना ने पहले नौशेरा और झंगर पर कब्ज़ा किया और फिर जोज़ीला, ड्रास और कारगिल से भी हमलावरों को पीछे धकेल दिया.
करियप्पा की जीप पर क़बाइलियों का हमला
कमांडर का पद संभालने के बाद करियप्पा ने नौशेरा का दौरा किया. यहां उस वक्त 50 पैराशूट ब्रिगेड का नियंत्रण था.
उन्होंने ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान से कहा कि वो उनसे एक तोहफ़ा चाहते हैं. जब उस्मान ने पूछा कि वो तोहफ़े में क्या लेना चाहेंगे, तो करियप्पा का जवाब था कि वो चाहते हैं कि वो कोट पर कब्ज़ा करें. उस्मान ने इस काम को सफलतापूर्वक अंजाम दिया.
बाद में जब कबाइलियों ने नौशेरा पर हमला किया तो उसी रक्षा में कोट पर भारतीय सैनिकों के नियंत्रण ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई.
उसी दौरान जीप से श्रीनगर से उरी जाते समय ब्रिगेडियर बोगी सेन ने करियप्पा को सलाह दी कि जीप से झंडे और स्टार प्लेट हटा लिए जाएं ताकि दुश्मन उनकी जीप को पहचान कर स्नाइपर फ़ायर न कर सके.
मेजर जनरल वी के सिंह बताते हैं कि "करियप्पा ने ये कहते हुए इस सलाह को मानने से कार कर दिया कि इसका उनके सैनिकों के मनोबल पर बुरा असर पड़ेगा जब वो देखेंगे कि उनके कमांडर ने डर की वजह से अपनी जीप से झंडे हटा लिए हैं."
"बोगी सेन का अंदेशा सही निकला. उनकी जीप पर फ़ायर आया लेकिन सौभाग्य से किसी को चोट नहीं लगी. लौटते समय भी उनकी जीप पर फिर फ़ायर किया गया जिससे उसका एक टायर फट गया लेकिन करियप्पा पर इसका कोई असर नहीं हुआ."
करियप्पा ने मेहर सिंह को महावीर चक्र दिलवाया
एक और अवसर पर टिथवाल के दौरे के दौरान करियाप्पा अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना एक पहाड़ी पर चढ़ गए जिस पर कबाइली नज़र रखे हुए थे.
उनके वहां से हटने के कुछ मिनटों के भीतर ही जहां वो खड़े हुए थे उस स्थान पर तोप का एक गोला आकर गिरा.
बाद में करियप्पा ने हँसते हुए कहा, "दुश्मन के गोले भी जनरल का सम्मान करते हैं."
इसी अभियान के दौरान ही एयर कॉमोडोर मेहर सिंह पुँछ में हथियारों समेत डकोटा विमान उतारने में सफ़ल हो गए, वो भी रात में. कुछ समय बाद उन्होंने लेह में भी डकोटा उतारा जिस पर जनरल थिमैया सवार थे.
करियप्पा ने न सिर्फ़ मेहर सिंह को महावीर चक्र देने की सिफ़ारिश की बल्कि ये भी सुनिश्चित किया कि ये सम्मान उन्हें मिले भी.
अजीब बात ये थी कि वायु सेना को अपने ही अफ़सर को महावीर चक्र देना पसंद नहीं आया और इसके बाद उन्हें कोई पदोन्नति नहीं दी गई.
पहले भारतीय कमांडर इन चीफ़
1946 में अंतरिम सरकार में रक्षा मंत्री रहे बलदेव सिंह ने उस समय ब्रिगेडियर के पद पर काम कर रहे नाथू सिंह को भारत का पहला कमांडर इन चीफ़ बनाने की पेशकश कर दी थी.
करियप्पा की जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी अपनी किताब 'फ़ील्ड मार्शल के एम करियप्पा हिज़ लाइफ़ एंड टाइम्स' में लिखते हैं, "नाथू सिंह ने विनम्रतापूर्व इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनका मानना था कि वरिष्ठ होने के कारण करियप्पा का उस पद पर दावा अधिक बनता था."
"नाथू सिंह के बाद राजेंद्र सिंहजी को भी ये पद देने की पेशकश हुई लेकिन उन्होंने भी करियप्पा के सम्मान में उस पद को स्वीकार नहीं किया. तब जा कर 4 दिसंबर, 1948 को करियप्पा को सेना का पहला भारतीय कमांडर इन चीफ़ बनाया गया."
उस समय करियप्पा की उम्र थी 49 साल. ब्रिटिश शासन के 200 साल बाद पहली बार किसी भारतीय को भारतीय सेना की बागडोर दी गई थी.
15 जनवरी, 1949 को करियप्पा ने इस पद को गृहण किया. तब से लेकर आज तक इस दिन को 'आर्मी डे' के रूप में मनाया जाता है.
अनुशासन पसंद करियप्पा
करियप्पा का सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने भारतीय सेना को राजनीति से दूर रखा.
शायद यही कारण था कि उन्होंने आईएनए के सैनिकों को भारतीय सेना में लेने से इंकार कर दिया. उनका मानना था कि अगर वो ऐसा करते हैं तो भारतीन सेना राजनीति से अछूती नहीं रह सकेगी.
अनुशासन का पालन करने में करियप्पा का कोई सानी नहीं था. यही कारण था कि उनके नज़दीकी दोस्त भी उनसे आज़ादी लेने में थोड़े झिझकते थे.
मेजर जनरल वी के सिंह अपनी किताब 'लीडरशिप इन इंडियन आर्मी' में लिखते हैं, "एक बार श्रीनगर में जनरल थिमैया जो उनके साथ दूसरे विश्व युद्ध और कश्मीर में साथ काम कर चुके थे, उनके साथ एक ही कार में बैठ कर जा रहे थे. थिमैया ने सिगरेट जला कर पहला कश ही लिया था कि करियप्पा ने उन्हें टोका कि सैनिक वाहन में धूम्रपान करना वर्जित है."
"थोड़ी देर बाद आदतन जनरल थिमैया ने एक और सिगरेट निकाल ली लेकिन फिर करियप्पा की बात को याद करते हुए वापस पैकेट में रख दिया. करियप्पा ने इसको नोट किया और ड्राइवर को आदेश दिया कि वो कार रोकें ताकि थिमैया सिगरेट पी सकें."
सरकारी कार का निजी इस्तेमाल करने पर बवाल
फ़ील्डमार्शल करियप्पा के बेटे एयर मार्शल नंदू करियप्पा अपने पिता की जीवनी में लिखते हैं, "एक बार जब मैं दिल्ली के नवीन भारत हाई स्कूल में पढ़ रहा था, एक दिन हमें लेने सेना का ट्रक स्कूल नहीं आ पाया. मेरे पिता के एडीसी ने मुझे स्कूल से वापस लेने के लिए स्टाफ़ कार भेज दिया. मैं बहुत खुश हो गया."
"कुछ दिन बाद जब मेरे पिता नाश्ता कर रहे थे तो इस घटना का ज़िक्र हुआ. ये सुनते ही मेरे पिता आगबबूला हो गए और उन्होंने अपने एडीसी को लताड़ते हुए कहा कि सरकारी कार का किसी भी हाल में निजी इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. उन्होंने फ़ौरन उसका बिल बनवाया और एडीसी से कहा कि इसे उनके वेतन से काट लिया जाए."
अयूब ख़ाँ की पेशकश को किया नामंज़ूर
1965 में पाकिस्तान से लड़ाई के समय वायुसेना में फ़ाइटर पायलट उनके बेटे नंदू करियप्पा का युद्धक विमान पाकिस्तान में मार गिराया गया. उन्हें युद्ध बंदी बना लिया गया.
एयरमार्शल नंदू करियप्पा ने बीबीसी को बताया, "पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ाँ और मेरे पिता के बीच बहुत दोस्ती थी क्योंकि 40 के दशक में अयूब उनके अंडर में काम कर चुके थे. मेरे पकड़े जाने के बाद रेडियो पाकिस्तान से ख़ासतौर से ऐलान करवाया गया कि मैं सुरक्षित हूँ और ठीक ठाक हूँ."
"एक घंटे के अंदर दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने मेरे पिता से टेलिफ़ोन पर बात की और कहा अयूब ख़ाँ ने उन्हें संदेश भिजवाया है कि अगर आप चाहें तो वो आपके बेटे को तुरंत भारत वापस भेज सकते हैं. तब मेरे पिता ने जवाब दिया था, "सभी भारतीय युद्धबंदी मेरे बेटे हैं. आप मेरे बेटे को उनके साथ ही छोड़िए." यही नहीं जब मैं रावलपिंटी की जेल में बंद था बेगम अयूब मुझसे मिलने आईं मेरे लिए स्टेट एक्सप्रेस सिगरेट का एक कार्टन और पी जी वोडहाउज़ का एक उपन्यास ले कर आईं ."
पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियार किए नीचे
भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़्तम होने के बाद करियप्पा भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने भारत-पाकिस्तान सीमा पर गए थे.
इस दौरान उन्होंने सीमा पार कर 'नो मैन लैंड' में प्रवेश कर लिया था.
नंदू करियप्पा अपने पिता की जीवनी में लिखते हैं, "उन्हें देखते ही पाकिस्तनी कमांडर ने आदेश दिया कि वो वहीं रुक जाएं, वरना उन्हें गोली मार दी जाएगी. भारतीय सीमा से किसी ने चिल्ला कर कहा ये जनरल करियप्पा हैं. ये सुनते ही पाकिस्तानी सिपाहियों ने अपने हथियार नीचे कर लिए."
"उनके अफ़सर ने आ कर जनरल करियप्पा को सेल्यूट किया. करियप्पा ने पाकिस्तानी सैनिकों से उनका हालचाल पूछा और ये भी पूछा कि उन्हें अपने घर से चिट्ठियाँ मिल रही हैं या नहीं ?"
हिंदुस्तानी बोलने में मुश्किल
करियप्पा का हिंदुस्तानी बोलने में हाथ थोड़ा तंग था, इसलिए लोग अक्सर उन्हें 'ब्राउन साहब' कह कर पुकारते थे. दरअसल वो अंग्रेज़ी में सोचा करते थे.
आज़ादी के तुरंत बाद करियप्पा को सीमा के पास सैनिकों को संबोधित करना था. वो उनसे कहना चाह रहे थे कि अब देश आज़ाद है. आम और हम भी आज़ाद हैं.
लेकिन करियप्पा ने कहा, "इस वक्त आप मुफ़्त, मुल्क मुफ़्त है, सब कुछ मुफ़्त है."
करियप्पा परिवार नियोजन के बहुत पक्षधर थे. एक बार अमृतसर में फ़ेमिली वेल्फ़ेयर सेंटर में सैनिकों की पत्नियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, "माताओं और बहनों, हम चाहता है कि आप दो बच्चा पैदा करो, एक अपने लिए, एक मेरे लिए."
शायद करियप्पा ये कहना चाह रहे थे कि आपके दो बेटे होने चाहिए. उनमें से एक परिवार के साथ रहे और दूसरा भारतीय सेना का हिस्सा बने.
सूट-बूट के शौकीन
फ़ील्डमार्शल करियप्पा हमेशा अच्छे कपड़े पहनते थे. डिनर में वो हमेशा काले रंग के सूट या बंदगले में दिखाई देते थे.
वो हमेशा डिनर के समय कपड़े बदलते थे, चाहे वो अपने घर में अकेले डिनर कर रहे हों.
उनकी बेटी नलिनी बताती हैं, "एक बार उन्होंने एक अमरीकी डिपलॉमेट को रात्रि भोजन पर बुलाया. उस मेहमान को करियप्पा के ड्रेस कोड का पता नहीं था. वो सादी कमीज़ पहनकर घर पहुंच गए. मेरे पिता ने मडिकेरी के ठंडे मौसम का बहाना दे कर उन्हें अपना कोट पहनने के लिए मजबूर किया. तब जा कर वो खाने की मेज़ पर बैठे."
"एक बार और मेरे मंगेतर एक पारिवारिक लंच पर सिर्फ़ कोट पहनकर बिना टाई लगाए आए. मेरे पापा ने मुझसे कहा कि अपने होने वाले पति को बता दो कि उनके दामाद और सेना के एक अधिकारी के तौर पर उन्हें ढ़ंग के कपड़े पहनकर भोजन की मेज़ पर आना चाहिए."
"क़ायदे से दिखाई देने के प्रति वो इतने सजग थे कि जब भी वो कार से किसी शहर में घुस रहे होते थे तो वो कार रुकवा कर अपने इक्का-दुक्का बालों पर कंघा करते थे और अपनी कार पर लगी धूल को अपने हाथों से पोछते थे."
करियप्पा का सनकपन
करियप्पा अपनी सनक के लिए मशहूर थे, और वो भी एक नहीं, कई.
उदाहरण के लिए उन्हें बर्दाश्त नहीं था कि कोई अपनी वर्दी की कमीज़ की आस्तीनों को मोड़े.
नंदू करियप्पा बताते हैं कि 'मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने उन्हें कभी आधी आस्तीन की कमीज़ या बुशर्ट में देखा हो. बुशर्ट को बहुत हिकारत से 'मैटरनिटी जैकेट' कहा करते थे. कोई खेल खेलते समय भी उनकी गर्दन में हमेशा एक स्कार्फ़ बँधा होता था. हमारे यहाँ खाने पर आने वाले हर शख़्स से अपेक्षा की जाती थी कि वो सूट पहन कर आए. दूसरे अगर किसी ने अपने कोट के बटन खोल रखे हैं तब भी वो बुरा मान जाते थे.
पता नहीं क्यों उन्हें हारमोनियम से भी बहुत चिढ़ थी. सेना के समारोहों में जब भी कोई संगीत का आइटम होता था, उसमें हारमोनियम बजाने की मनाही होती थी. उनके लिए ट्रांजिस्टर दुनिया का सबसे बड़ा आविष्तार था. उसको वो हमेशा अपने पास रखते थे. टीवी देखने में उनकी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही.'
87 साल की उम्र में बने फ़ील्ड मार्शल
15 जनवरी 1986 को वो सेना दिवस की परेड के लिए दिल्ली आए हुए थे.
परेड के बाद उस समय के सेनाध्यक्ष जनरल के सुंदरजी ने घोषणा की कि सरकार ने जनरल करियप्पा को फ़ील्डमार्शल बनाने का फ़ैसला किया है.
उनके बेटे एयरमार्शल नंदू करियप्पा बताते हैं, "जिस दिन ये कार्यक्रम होना था उस दिन उनके दाहिने पैर की छोटी उंगली में बहुत दर्द था. उन दिनों घर पर वो बाएं पैर में जूता और दाहिने पैर पर चप्पल पहना करते थे. हम सबने उन्हें सलाह दी राष्ट्रपति भवन के समारोह में वो जूते न पहने लेकिन वो हमारी कहाँ सुनने वाले थे. उन्होंने हमेशा की तरह अपने नोकदार जूते पहने. और तो और जब वो राष्ट्पति से अपना फ़ील्डमार्शल का बेटन लेने गए तो उन्होंने वॉकिंग स्टिक का भी इस्तेमाल नहीं किया."
"राष्ट्रपति के एडीसी ने उन्हें सहारा देने की पेशकश की लेकिन उन्होंने उसे भी स्वीकार नहीं किया."
"उस समय उनकी उम्र थी 87 साल. ये पूरा समारोह क़रीब 10 मिनट चला. लेकिन इस दौरान करियप्पा खड़े रहे, हाँलाकि उनके पैर में बहुत तेज़ दर्द हो रहा था."