किसान आंदोलन: कॉन्ट्रैक्ट खेती से कितना फ़ायदा, कितना नुक़सान
किसानों को लगता है कि छोटे जोतदार बड़ी कंपनियों के ग़ुलाम हो जाएंगे, पर सरकार इसे फ़ायदेमंद बता रही है. कॉन्ट्रैक्ट खेती के पक्ष और विपक्ष में क्या हैं तर्क?
देश में हाल में लाए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध जारी है. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे पंजाब के किसानों की आशंका है कि इन कानूनों की वजह से उनकी खेती पर कॉर्पोरेट कंपनियों का कब्ज़ा हो जाएगा.
किसानों का यह भी कहना रहा है कि कंपनी के साथ किसी विवाद की हालत में अदालत का दरवाज़ा खटखटाने का विकल्प बंद कर दिया गया है, स्थानीय प्रशासन अगर कंपनियों का साथ दें तो किसान कहाँ जाएगा.
किसानों को लगता है कि छोटे जोतदार उनके गुलाम हो जाएंगे. इन तीन कानूनों में एक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की इजाज़त देता है. इसे लेकर किसान खासे आशंकित हैं.
इसके उलट सरकार को लगता है कि यह किसानों को उनकी फसलों की कीमतों में उतार-चढ़ाव से बचाएगी. साथ ही, उन्हें खेती के नए तरीकों और टेक्नोलॉजी से रूबरू कराएगी.
सरकार और किसानों के बीच जारी विवाद का हल क्या और कैसे निकलेगा यह जानने में अभी समय लगेगा, लेकिन कॉन्ट्रैक्ट खेती के फ़ायदे और नुक़सान क्या हैं, समझने के लिए बीबीसी ने दो जानकारों से बात की जिनके नज़रिए एक दूसरे से भिन्न हैं.
क्या हैं फ़ायदे:
वरिष्ठ पत्रकार विवियन फर्नांडीस का मानना है कि देश में पहले से चल रहे कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के कुछ मॉडलों पर एक नज़र डालने पर कई बातें समझ में आती हैं.
पहले से तय हो जाती है कीमतें
विवियव फर्नांडीस के मुताबिक, "इस तरीके का समर्थन करने वालों का कहना है कि बुआई या रोपाई के वक्त ही फसलों की कीमत तय करके खरीद की गारंटी देने की वजह से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करने वालों किसानों का जोखिम कम हो जाता है इसलिए वे बेफ़िक्र होकर अपना पूरा ध्यान खेती में लगाते हैं. खेती के तरीकों और पैदावार बढ़ाने पर कंपनियों का पूरा जोर होता है."
"हालांकि किसान मौसम, कीड़ों और फसलों को लगने वाली बीमारियों के हमले की ज़द में बने रह सकते हैं. वैसे अगर फसलों को सिंचाई का बढ़िया पानी मिलना तय है तो मौसम की मार से कुछ हद तक बचा जा सकता है."
उनके मुताबिक पारंपरिक ब्रीडिंग और एडवांस बायोटेक्नोलॉजी के जरिए किए जाने वाले जीन सुधार और जीन एडिटिंग से फसलों को रोग प्रतिरोधी बनाया जा सकता है.
"जो कंपनियां किसानों से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कराएँगी वे चाहेंगी की उपज बढ़े. फसलों की क्वालिटी अच्छी रहे और बर्बादी कम हो ताकि कंपनियों को घाटा न उठाना पड़े."
हरित क्रांति से बहुत अलग नहीं
फर्नांडीस इसकी तुलना हरित क्रांति से करते हैं. उनके मुताबिक हरित क्रांति की "व्यवस्था के तहत किसानों ने जो उगाया, सरकार ने उसे एमएसपी देकर खरीद लिया. सरकार की इस गारंटी की वजह से किसानों ने साल दर साल सिर्फ गेहूं और धान पैदा किया. वह बाजार के उतार-चढ़ाव से निश्चित रहा क्योंकि फसलों की खरीद की गारंटी सरकार ने दे दी थी."
"यहाँ केवल एक बुनियादी अंतर याद रखना चाहिए कि कंपनी का लक्ष्य मुनाफ़ा होता है, और सरकार का लक्ष्य जन कल्याण का या फिर राजनीतिक, दूसरा अंतर यह भी है कि कंपनियाँ सरकार के मुकाबले, अपने फ़ायदे को लेकर अधिक चुस्त होती हैं."
टमाटर की कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग
पंजाब के पेप्सिको के प्लांट का उदाहरण देते हुए फर्नांडीस कहते है कि सरकार के नियमों के कारण पेप्सिको को टमाटर का प्रोसेसिंग प्लांट लगाना पड़ा, लेकिन यहां के टमाटर प्रेसेसिंग के लिए ठीक नहीं थे, लिहाजा पेप्सी ने अपनी ज़रूरत और पसंद के हिसाब से टमाटर के बीज बाहर से मंगाए.
किसानों के खेतों में इनके पौधे तैयार किए गए. पौधों को पाले से बचाने के लिए प्लास्टिक की सुरंगें बनाई गईं. यह पक्का किया गया बीजों का ज़्यादा से ज़्यादा अंकुरण हो क्योंकि हाइब्रिड काफी महंगे थे.
एग्रीकल्चरल एक्सपोर्ट डेवलमेंट अथॉरिटी (अपीडा) के चेयरमैन और सरकारी अधिकारी गोकुल पटनायक बताते हैं कि पेप्सी के लिए टमाटरों की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करने वाले पंजाब के उन किसानों का तर्जुबा अच्छा रहा था. पटनायक उन दिनों पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन के एमडी थे.
फर्नांडीस के मुताबिक मैक्केन ने गुजरात के बनासकांठा जिले में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग शुरू करवाई, जिसका फ़ायदा भी किसानों को मिला.
"अगर महाराष्ट्र आज केला पैदा करने वाला तीसरा सबसे बड़ा राज्य बन गया है तो सिर्फ जलगांव की बदौलत. महाराष्ट्र में केले की कुल पैदावार में अकेले जलगांव की हिस्सेदारी 70 फीसदी है. और यह सब जैन इरिगेशन का कमाल है. "
"कंपनी ने नब्बे के दशक में 1990 में इसराइल की एक कंपनी से केले की तीन प्रजातियां मंगाई थी. यह इसराइली कंपनी पौधा प्रजनन और टिश्यू कल्चर में माहिर है. यह एक साल में तैयार हो जाता है जबकि परंपरागत भारतीय प्रजातियों के केले डेढ़ साल में तैयार होते हैं. इन पौधों से जो दूसरे पौधे अंकुरित होते थे उनसे भी दो फसलें हो जाते थीं. "
आईटीसी कंपनी ने राजस्थान में तेज़ हवा में गेहूं के पौधे खड़े रह पाएं इसलिए उसने रिसर्च करवाया. रिसर्च के दौरान पता चला कि कम ऊंचाई के पौधे तैयार किए जाएं तो हवा में गिरने से बचे रहेंगे.
फर्नांडीस कहते हैं, "कंपनी ने इस रणनीति के तहत शरबती गेहूं की खेती में निवेश शुरू किया है. अपने आशीर्वाद ब्रांड आटा के लिए वह मध्य प्रदेश और राजस्थान में गेहूं की खेती करवा रही है."
अमूल के मॉडल की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से तुलना
फर्नांडीस का मानना है कि भारत में अमूल की अगुआई में जो श्वेत क्रांति हुई वह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का ही उदाहरण है जिसे सहकारी संगठनों के ही एक नेटवर्क ने अंजाम दिया था.
फर्नांडीस कहते हैं, "जो लोग कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का विरोध कर रहे हैं वह ऐसा जता रहे हैं मानो कंपनियां इस तरह की खेती कराने के लिए कूद पड़ने को तैयार हैं जबकि हकीकत यह है कि बहुत सी कंपनियां इसमें आने से हिचकिचा रही हैं. "
"उन्हें लगता है कि वह जितनी पूंजी और साधन लगाएंगे उसके हिसाब से फायदा नहीं होगा. इसमें वही कंपनी उतरेंगी जिन्हें कुछ खासियतों वाले खाद्य उत्पादों की एक निश्चित सप्लाई की जरूरत है. या फिर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में वहीं उतरेंगी जिन्हें पक्का भरोसा होगा कि इस जटिल कारोबार में वह अपनी प्रतिष्ठा बनाए रख सकेंगी."
फर्नांडीस मानते हैं कि कंपनियों के पास सौदेबाज़ी की ज्यादा ताकत होती है लेकिन अक्सर किसान भी कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों से मुकर जाते हैं, खास कर ऐसे वक्त में जब बाज़ार में कीमतें ज्यादा मिल रही हों.
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"कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन करना नहीं चाहेंगी क्योंकि उन्हें अपनी सप्लाई के लिए पूरे गांव के किसानों से खेती करवानी होगी. अलग-अलग गांवों के किसानों को चुन कर खेती कराना उनके लिए संभव नहीं होगा. उन्हें इकट्ठा करने की लागत ज्यादा पड़ जाएगी."
वो कहते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग दोनों ओर से भरोसे पर निर्भर है. इसमें कंपनी और किसानों दोनों को फायदा होना चाहिए.
क्या हैं नुकसान?
कृषि मामलों के जानकार देवेंद्र शर्मा कॉन्ट्रैक्ट खेती के पक्ष में दिए जा रहे तर्कों से बिल्कुल सहमत नहीं है. वो कहते हैं कि ये कहना ग़लत है कि इससे फ़सल की पैदावार में इज़ाफा होगा और क्वालिटी बेहतर होगी.
वो इसे अमेरिका से कॉपी किया हुआ मॉडल बताते हैं.
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा, "अगर इससे किसानों का फ़यादा होता है, तो फिर अमेरिका का किसान आज क्यो दुखी है."
मैक्कैन जैसे कंपनियों के उदाहरण को लेकर वो कहते हैं कि अगर इन उदाहरणों से ये पता चलता है कि किसानों को बहुत फ़ायदा हुआ है, तो फिर किसान सड़कों पर क्यों है.
वो कहते हैं, "फायदा होता तो किसान ज़्यादा से ज़्यादा कॉन्ट्रैक्ट खेती की बात कर रहे होते."
एमएसपी ज़रूरी है
कॉन्ट्रैक्ट खेती के समर्थन में ये तर्क दिए जा रहे हैं कि कॉन्ट्रैक्ट में उत्पाद की कीमत पहले से लिखी होती है और ये एक तरह से गारंटी है. लेकिन शर्मा मानते हैं कि बिना एमएसपी के किसानों को किसी तरह की गारंटी नहीं मिल सकती.
वो कहते हैं, "अगर ऐसा है तो एमएसपी का प्रावधान कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए क्यों नहीं लाया जा रहा, अगर ये प्रावधान आ जाए तो कंपनियाँ अपने हाथ पीछे खींच लेंगी."
उदाहरण देते हुए शर्मा कहते हैं, "मूंग की दाल का एमएसपी 72 रुपये प्रति किलो है, मार्केट में 50 रुपये है, आप कॉन्ट्रैक्ट 52 रुपये पर कर लेंगे और कहेंगे कि ये तो 2 रुपये ज़्यादा है, लेकिन कीमत 72 रुपये मिलनी चाहिए थी."
सहकारी खेती और कॉन्ट्रैक्ट खेती अलग-अलग है
अमेरिका में हो रही कॉन्ट्रैक्ट खेती का उदाहरण देते हुए शर्मा कहते हैं, "100 डॉलर में खरीदे गए किसी प्रोडक्ट का सिर्फ 8 डॉलर किसानों के पास पहुंचता है. अमूल की बात करें तो, 100 रुपये के दूध के 70 रुपये किसानों को मिलते हैं. हम सहकारी सिस्टम का समर्थन करते हैं, लेकिन ये कहना कि ये कॉन्ट्रैक्ट खेती की तरह ही है, बिल्कुल गलत है."
शर्मा के मुताबिक अमूल की तर्ज पर खेती के लिए मॉडल बनाए जा सकते हैं, इससे किसानों का फायदा होगा.
वो कहते हैं, "जब हम दूध में ये कर सकते हैं, तो यही सिस्टम सब्जियों और दालों के लिए क्यों नहीं बना सकते."