छत्तीसगढ़ः एक सरकारी आदेश से उलझी आदिवासियों की ज़िंदगी
छत्तीसगढ़ के ये आदिवासी किस वजह से एक गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं.
बिलासपुर ज़िले के घने जंगलों के बीच बसे नेवसा गांव के समारू बैगा ने इस बार फिर से अपनी पत्नी को जंगली जड़ी बुटियां खिलाई हैं ताकि वे गर्भवती होने से बच सकें.
47 साल के समारू और उनकी पत्नी चैती बाई के 11 बच्चे हैं और वे अभी कम से कम बारहवां बच्चा नहीं चाहते क्योंकि उनका छोटा बेटा राकेश केवल डेढ़ साल का है.
समारू की बड़ी बेटी के भी दो बच्चे हैं और उससे छोटी के भी दो. अब समारू की चिंता में उनकी बेटियां भी शामिल हो गई हैं. समारू नहीं चाहते कि उनकी बेटी के भी ऐसे ही बच्चे होते चले जायें और फिर उन्हें भी ग़रीबी, अशिक्षा और कुपोषण समेत दूसरी स्वास्थ्यगत समस्याओं से जूझना पड़े.
समारू कहते हैं, "पांचवीं संतान के बाद हम पति-पत्नी नसबंदी के लिए अस्पताल गए थे, लेकिन अस्पताल वालों ने मना कर दिया. कहा कि बैगा जाति की नसबंदी नहीं हो सकती. उसके बाद बच्चे होते चले गए."
छत्तीसगढ़ में समारू अकेले नहीं हैं जिनके सामने ये समस्या है. छत्तीसगढ़ में अविभाजित मध्यप्रदेश के ज़माने का एक आदेश फांस की तरह राज्य की आदिम जनजातियों की ज़िंदगी में गड़ा हुआ है.
क़ानूनी फांस
जिस दौर में देश भर में नसबंदी की लहर थी, लगभग उसी समय 13 दिसंबर 1979 को मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने एक आदेश जारी करते कुछ आदिम जनजातियों की नसबंदी को प्रतिबंधित कर दिया था.
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आदेश के अनुसार, "ऐसे आदिवासी उप समूहों के बीच नसबंदी साधन पर बिल्कुल ज़ोर नहीं दिया जाना है जिनकी जनसंख्या वृद्धि नगण्य है अथवा जनसंख्या बढ़ाने की बजाय कम हो रही है. प्रदेश में ऐसी कुछ उपजातियां आदिम जाति शोध संस्थान तथा आदिम जाति एवं हरिजन कल्याण विभाग के सहयोग से चिन्हित की गई हैं. इन उपजातियों के सदस्यों की नसबंदी नहीं की जानी है."
इस सरकारी आदेश के बाद राज्य के बैगा, बिरहोर, पहाड़ी कोरबा, अबूझमाड़िया और मांझी आदिवासियों की नसबंदी पर रोक लग गई. छत्तीसगढ़ राज्य अलग हो गया और मध्यप्रदेश में इस आदेश पर रोक लग गई. लेकिन छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की नसबंदी पर प्रतिबंध जारी रहा. 2015 में तो राज्य के मुख्य सचिव विवेक ढांड ने राज्य के सभी कलेक्टरों को इन निर्देशों की कड़ाई से पालन करने के लिये लिखित निर्देश जारी किए.
छत्तीसगढ़ में लंबे समय से जनता का अस्पताल संचालित कर रहे और दूसरी स्वास्थ्य सुविधाओं पर काम कर रही जन स्वास्थ्य सहयोग के स्वास्थ्य कार्यकर्ता हरेंद्र सिंह सिजवाली बैगा आदिवासियों के बीच ही काम करते हैं. उन्होंने बैगाओं के साथ मिल कर इस मुद्दे पर छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की है.
समस्या
हरेंद्र का दावा है कि लंबे समय से छत्तीसगढ़ के आदिवासी पड़ोसी राज्य मध्य-प्रदेश में नसबंदी करा रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में उन्हें इसके लिए मना कर दिया जाता है. हरेंद्र ने प्रशासनिक अधिकारियों और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से बैगाओं की नसबंदी के लिए अनुमति और दिशा निर्देश मांगे, लेकिन पुराने आदेश का हवाला दे कर उन्हें टाल दिया गया.
हरेंद्र कहते हैं-"एक-एक आदिवासी के 10-10 बच्चे हुए लेकिन कुपोषण और ग़रीबी के कारण इन आदिवासियों में बच्चों की मृत्युदर बहुत अधिक है. ग़रीबी और अशिक्षा के कारण महिलाओं को दूसरी समस्याओं से भी जूझना पड़ता है. कई बार खुद ही गर्भपात के लिए दवाओं के उपयोग से इनकी ज़िंदगी जोख़िम में पड़ जाती है."
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छत्तीसगढ़ में सरकार सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए राज्य भर में 60 हज़ार से अधिक महिलाओं को मितानीन बना कर स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध करा रही है. नेवसा गांव की मितानीन रामेश्वरी यादव का कहना है कि बैगा आदिवासी अपनी पहचान छुपा कर निजी अस्पतालों में नसबंदी करा रहे हैं.
वे कहती हैं-"बैगा आदिवासी प्राइवेट क्लिनिक में जाते हैं और नसबंदी करवाते हैं. वे भी अब समय के साथ बदल रहे हैं. हां, जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनकी नसबंदी नहीं हो पाती."
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की अधिवक्ता रजनी सोरेन पूरे मामले को समानता के अधिकार से जोड़ती हैं. रजनी का यह भी कहना है कि सरकार आदिवासियों से जुड़ी योजनाओं की असफलता को छुपा कर ऐसी मान्यता स्थापित करना चाहती है कि आदिवासियों की जनसंख्या सबसे बड़ी समस्या है.
रजनी कहती हैं-"गैर आदिवासियों और आदिवासियों के लिए नसबंदी के अलग-अलग नियम समानता के अधिकार का उल्लंघन है. कौन कितने बच्चे पैदा करे या न करे, यह उसका व्यक्तिगत निर्णय होना चाहिए. सरकार यह कैसे तय कर सकती है कि किसी खास समुदाय को लगातार बच्चे पैदा करते रहना है?"
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हालांकि बैगा आदिवासियों की जनहित याचिका के बाद राज्य सरकार ने एसडीएम द्वारा नसबंदी कराए जाने की अनुमति देने दावा किया है, लेकिन सरकारी आदेश और ज़मीनी हक़ीक़त अलग-अलग हैं.
राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर मानते हैं कि उन्होंने आदिम जातियों की नसबंदी से संबंधित आदेश नहीं देखे हैं.
चंद्राकर कहते हैं- "अब वो खुद मांग करते हैं कि साहब, हमारा किया जाए. तो उन परिस्थितियों में हम उनको सहमति देंगे, उनकी नसबंदी करेंगे. वो जमाना दूसरा था, आज से लगभग चार दशक पहले की बात है. चार दशक और आज की परिस्थितियों में ज़मीन-आसमान का अंतर आया है. अब वो खुद मांग करने लगे हैं, तो नई परिस्थितियों में सरकार तो विचार करेगी और संरक्षण देगी."
अदालत और सरकार के बीच फंसी आदिवासियों की नसबंदी का मामला कब सुलझेगा, यह बता पाना तो मुश्किल है, लेकिन जब तक फ़ैसला नहीं आता, तब तक तो इन आदिवासियों की ज़िंदगी उलझी रहेगी.