Bharat Bandh: उग्र दलित बीजेपी के लिए बुरा संकेत, 2019 में पलट सकती है बाजी
Bharat Bandh:उग्र दलित बीजेपी के लिए बुरा संकेत, 2019 में पलट सकती है बाजी
नई दिल्ली। राजनीति में संकेतों का बड़ा महत्व होता है। यही वजह है कि हर राजनीतिक दल वोटबैंक को एड्रेस करने के लिए अपनी-अपनी संकेतों की भाषा का प्रयोग करता है। बीजेपी के लिए भगवा, हिंदुत्व और राम मंदिर के संकेत बेहद अहम हैं तो कांग्रेस के लिए सेक्युलर शब्द बेहद महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार से सपा, बसपा, आरजेडी, जदयू और अन्य दलों की भी संकेतों की एक अलग डिक्शनरी है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी कानून में किए गए बदलाव के फैसले के विरोध में देशभर में दलित संगठनों ने आज भारत बंद का ऐलान किया है। इस बंद का व्यापक असर भी देखने को मिल रहा है। कई राज्यों में हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ हो रही है। बीजेपी अच्छी तरह समझ रही है कि SC/ST एक्ट में बदलाव को लेकर संकेत अच्छा नहीं जा रहा है। वहीं, बसपा, कांग्रेस और अन्य दलों अपनी भाषा में लोगों को बता रहे हैं कि SC/ST एक्ट में बदलाव का फैसला भले ही सुप्रीम कोर्ट का हो, लेकिन जनसंदेश यही कि बीजेपी और मोदी सरकार दलित विरोधी है।
भारत बंद का परसेप्शन आखिर क्या निकल रहा है?
बात सिर्फ आरोप भर की नहीं है, मामला चुनावी गणित का है। तभी तो भारत बंद के बीच मायावती टीवी पर आईं और संकेतों की अपनी भाषा में बीजेपी को दलित विरोधी बता डाला। हालांकि, यहां सवाल उनके कुछ कहने या ना कहने का नहीं है बल्कि अहम बात यह है कि आखिरकार किस घटना से क्या संकेत निकलकर जनता के बीच जाता है। मतलब परसेप्शन क्या निकल रहा है?
तात्कालिक संकेत तो बीजेपी के खिलाफ ही जा रहा है
2014 में कांग्रेस के साथ हुआ, बात भ्रष्टाचार की हुई और कांग्रेस के साथ विपक्ष ने इस शब्द को फेवीकॉल की तरह चिपका दिया और जनता ने इस बात को स्वीकार भी किया। ठीक वैसे ही आज भी स्थिति बदलती दिख रही है, संकेतों और परसेप्शन की इस लड़ाई में विपक्ष मोदी सरकार के साथ सांप्रदायिकता, दंगे, आरक्षण विरोधी, मुस्लिम विरोधी और अब दलित विरोधी जैसी बातों को जोड़ने के लिए प्रयास कर रहा है। अगर तात्कालिक संकेत की बात करें तो सड़कों पर उग्र भीड़ का उतरना यह बताता है कि विपक्ष के संकेतों की भाषा का जनमानस पर असर होता दिख रहा है।
बीजेपी के पास अब क्या विकल्प हैं?
अब सवाल यह उठ रहा है कि बीजेपी के पास अब क्या विकल्प हैं? कहीं ऐसा तो नहीं 2019 में मुस्लिम और दलित विरोधी छवि बीजेपी पर भारी पड़ जाएगी? हालांकि पार्टी और मोदी सरकार का स्पष्ट कहना होगा कि फैसला कोर्ट का है। यह बात सच है कि फैसला कोर्ट है, लेकिन संकेत यही जा रहा है कि मोदी सरकार दलित विरोधी है। जैसा कि बिहार चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार ने बिहार का डीएनए और लालू ने आरक्षण का मुद्दा उठाकर बीजेपी को चारों खाने चित कर दिया था। 2019 से पहले SC/ST एक्ट में हुए बदलाव को लेकर राष्ट्रव्यापी बंद का व्यापक असर राजनीति को 360 डिग्री घुमा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। यूं तो अन्य राज्यों में भी दलित निर्णायक हैं, लेकिन यूपी इकलौता ऐसा राज्य है, जहां राष्ट्रीय दलित चेहरे के तौर पर पहचान रखने वाली मायावती हैं। बसपा सुप्रीमो इस मुद्दे से कुछ वैसे ही परिणाम हासिल कर सकती हैं, जैसे बीजेपी और आरएसएस को आरक्षण विरोधी बताकर लालू ने किए थे।
क्या कहता है आंकड़ों का गणित
- 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत के पीछे दलितों की काफी अहम भूमिका रही।
- यही कारण है कि मोदी सरकार ने बिना देर किए हुए एससीएसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार दायर कर दी है।
- पंजाब में सबसे ज्यादा दलित आबादी है। यहां पर 31.9 फीसदी आबादी दलित है और 34 सीटें आरक्षित हैं।
- उत्तर प्रदेश में करीब 20.7 फीसदी दलित आबादी है और 14 लोकसभा 86 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। इनमें से लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सभी आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी। अब आप समझ सकते हैं कि दलित बीजेपी के लिए कितने अहम हैं।
- उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के चुनाव में दलित मतदाताओं की काफी अहम भूमिका रहती है।
- देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं। 31 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में अनुसूचित जातियां अधिसूचित हैं।
- बीजेपी की 2014 के लोकसभा चुनाव में कामयाबी में दलितों की अहम भूमिका रही है। इसीलिए बीजेपी पसोपेश में है कि कहीं दलितों की नाराजगी 2019 में उसके लिए महंगी न पड़ जाए. यही वजह है कि मोदी सरकार ने बिना देर किए हुए एससीएसटी एक्ट के लेकर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार दायर कर दी है।
- कुल 543 लोकसभा सीटों में से 80 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में इन 80 सीटों में से बीजेपी ने 41 सीट पर विजय प्राप्त की थी।
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