62 की जंग के गवाह बने पूर्व सैनिक ने बताया, इस बार India-China के बीच जंग में टिक नहीं पाएगा चीन
नई दिल्ली। भारत-चीन के बीच पूर्वी लद्दाख स्थित वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सब-कुछ ठीक नहीं है। जहां भारत चीन से निकले कोरोना वायरस से जूझ़ रहा है तो वहीं पांच मई से लद्दाख में चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (पीएलए) के जवान अड़े हुए हैं। स्थितियां एकदम वैसी ही हैं जैसी सन् 1962 में थीं जब भारत और चीन के बीच पहली जंग हुई थी। 15 जून को गलवान घाटी हिंसा के करीब ढाई महीने बाद फिर से एलएसी पर पिछले दो हफ्तों से तनाव है। ऐसे में वनइंडिया हिंदी ने एक ऐसे सैनिक से बात की जिन्होंने 62 की जंग में हिस्सा लिया था। उन्होंने इस युद्ध को करीब से देखा है और इस बार एलएसी पर चीन जिस तरह से भारत को भड़काने में लगा है, उसके पीछे की असलियत से भी वह अच्छी तरह से वाकिफ हैं।
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टेरीटोरियल आर्मी के साथ थे तैनात
मध्य प्रदेश के छोटे से जिले कटनी में रह रहे 90 वर्षीय संतराम शुक्ला ने टेरीटोरियल आर्मी (टीए) को अपनी सेवाएं दी हैं। वह भारतीय रेलवे से रिटायर हैं और सन् 1962 में जब चीन के साथ जंग छिड़ी तो उन्हें सेना की मदद के लिए भेजा गया। उन्होंने बताया, 'उस समय मैं झांसी में था और हमें बताया गया कि हमें सेना की मदद के लिए निकलना होगा। टीए का गठन, युद्ध और युद्ध जैसे हालातों के दौरान भारतीय सेना की मदद के लिए किया गया था। उस समय उनकी उम्र 30 वर्ष थी। संतराम शुक्ला और उनके साथी सिलीगुड़ी स्थित चिकन्स कॉरिडोर पर तैनात थे। वह यहां पर करीब एक माह तक रहे। आपको बता दें कि जंग की हालात में टीए के सैनिक किसी साइलेंट सोल्जर्स से कम नहीं होते हैं। सिलीगुड़ी पश्चिम बंगाल में है और चिकेन्स नेक वह जगह है जो भारत के लिए रणनीतिक तौर पर काफी अहमियत रखती है।
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असम तक जाने वाली ट्रेनों की सुरक्षा में तैनात
भारत और चीन के बीच 20 अक्टूबर 1962 को युद्ध की शुरुआत हुई थी और 21 नवंबर 1962 को युद्ध खत्म हुआ। चीन के साथ जंग के समय भारतीय सेना के पास उपकरण और बाकी साजो-सामान की सख्त कमी थी। सिलीगुड़ी से उस समय ट्रेन को सेना की मदद के लिए असम रवाना किया जाता था। संतराम और उनके साथियों पर जिम्मा था कि ट्रेन के रवाना होने से पहले वह इसकी सुरक्षा से जुड़े सभी जरूरी मसलों पर ध्यान दें। इन ट्रेनों में कभी-कभी रसद होती थी मगर ज्यादातर ट्रेनें गोला-बारूदों से लदी होती थीं। वह कहते हैं, '62 के समय स्थितियां बहुत ही खराब थीं। हमारी सेना के पास हथियार नहीं थे और जरूरी सामान की भी कमी थी। बहुत मुश्किलों में वह जंग लड़ी गई थी।' जिस समय जंग हो रही थी, उस समय पूरे देश में ब्लैक आउट कर दिया जाता था।
बिना संसाधनों के भी बहादुरी से लड़े थे सैनिक
उन्हें आज भी याद है कि बिना संसाधनों की कमी के भी हर सैनिक ने पूरे जज्बे के साथ उस जंग को लड़ा था। उनके शब्दों में, 'हर सैनिक को हकीकत मालूम थी कि हालात मुश्किल हैं और संसाधन नहीं हैं लेकिन इसके बाद भी मैं जिस सैनिक को देखता उसके चेहरे पर मुस्कान और चमक होती थी।' उन्होंने बताया कि टीए की तरफ से उन्हें और बाकी साथियों को बस एक थ्री नॉट थ्री राइफल दी गई थी। कुछ ऐसे ही स्थितियां सेना के जवानों के साथ भी थीं। उन्हें याद है कि चीन ने अचानक ही भारत पर हमला किया था और सेना भी हैरान थी कि कैसे एक देश जंग थोप सकता है। हालांकि वह मानते हैं कि अगर उस समय भारतीय वायुसेना की मदद ली जाती तो चीन मुंह की खाता। वह कहते हैं कि चीन इस बार भी अपनी उसी रणनीति को दोहरा रहा है।
इस बार जीत नहीं सकता चीन
संतराम शुक्ला कहते हैं कि जंग इस बार चीन के लिए आसान नहीं है और इस बात को चीन भी अच्छी तरह जानता है। उन्होंने कहा, 'अगर इस बार जंग हुई तो फिर यह एक तरह से एरियल वॉर होगा और सभी जानते हैं कि चीन की हालत इसमें खराब हो जाएगी। चीन इस बार जंग की स्थिति में नहीं है। सेना के पास हथियार हैं और हमारी वायुसेना भी बेहतर स्थिति में है। भारत भी अब पहले की तरह रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक भूमिका में है।' लेकिन क्या भारत इस स्थिति में है कि वह अभी जंग कर सके? इस सवाल का जवाब भी उन्होंने अपने ही तरीके से दिया। संतराम शुक्ला ने कहा, 'भारत कभी जंग नहीं चाहता है और हमनें कभी जंग की शुरुआत नहीं की। ऐसे हालातों में जब कोरोना वायरस की वजह से अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है तो जंग भी एक बेहतर विकल्प नहीं है। लेकिन हम अपनी जमीन भी दुश्मन को लेने नहीं दे सकते हैं। कोई हमारे घर से अगर नहीं निकलेगा तो फिर एक ही ऑप्शन बचता है युद्ध। लेकिन भारत जैसा समझदार देश इससे बचेगा।'