50 साल पहले 350 परिवार पाकिस्तान में सोए थे, आंख खुली तो उनके गांव भारत का हिस्सा बन चुके थे
लेह, 28 नवंबर: 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तानी कब्जे वाले गिलगित-बाल्टिस्तान के कई परिवार रातों-रात भारतीय बन गए थे। लेकिन, इसके साथ ही उनके जीवन में कभी ना बदलने वाला ऐसा परिवर्तन आया, जिससे वह अब किसी तरह से जीना सीख रहे हैं। कुछ लकीर तकनीक ने तोड़ी है तो कुछ बदलाव विकास की वजह से आ रहा है। लेकिन, अपनों से दूर होने की टीस आज भी उनके दिलों में जिंदा है। वह ऐसी रात थी, जिसने पति को पाकिस्तानी रहने दिया, लेकिन पत्नी भारतीय बन गई। पिता भारतीय बना, लेकिन बेटा पाकिस्तान में ही रह गया। उस रात की यादें आज भी करीब 38 गांवों के 9,000 परिवारों में जिंदा हैं।
पाकिस्तान में सोए थे, भारत में नींद खुली
लद्दाख में श्योक नदी के किनारे महज आधे घंटे का रास्ता 86 साल के बुजुर्ग हाजी शमशेर अली 50 साल में भी पार नहीं कर पाए। सीमा के उस पार पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके में उनके छोटे भाई हाजी अब्दुल कादिर का भी दर्द अलग नहीं है। दोनों देशों के बीच जमीन के एक छोटे से हिस्से पर एक रात ऐसा बदलाव हुआ कि परिवार के लोग एक-दूसरे से हमेशा के लिए दूर हो गए। वाक्या 16 दिसंबर, 1971 की है। भारत एक नए देश के जन्म लेने पर खुश था, लेकिन लद्दाख की नुब्रा घाटी के तुर्तुक गांव के लोगों की नागरिकता रातों-रात बदल चुकी थी। उस रात भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा (एलओसी ) आगे खिसक चुकी थी और उसके साथ ही नुब्रा वैली के तुर्तुक समेत तीन गांव के 350 परिवारों की किस्मत भी बदल चुकी थी। यह इलाका 1947 से पाकिस्तान के अवैध कब्जे में था, जो कि अब वापस भारत का हिस्सा बन गया था। लेकिन, इन गांवों के बाल्टी समुदाय के परिवारों का भी इसी के साथ दो मुल्कों में बंटवारा गया था।
'ये बॉर्डर हमारे दिलों पर एक लकीर बनकर रह गई।'
टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक शमशेर अली के ट्रैवेल एजेंट बेटे गुलाम हुसैन गुल्ली का कहना है कि उस दौर में ज्यादातर युवा पुरुष पढ़ाई या धंधे के सिलसिले में स्कार्दू या लाहौर जैसे शहरों में रहते थे। उन्होंने कहा, 'सिर्फ बेहद उम्र के लोग और बुजुर्ग ही गांव में बच गए थे।' यही वजह है कि जब युद्ध खत्म हुआ तो बीवियां, शौहर से जुदा हो चुकी थीं, पिता बेटों से अलग हो गए थे और भाई-भाई से दूर हो गया था। उन दिनों अली के भाई कादिर भी स्कार्दू में काम करते थे। गुल्ली ने याद किया कि, 'शुरू में तो हमें यह भी पता नहीं था कि वह जिंदा हैं। उनकी पत्नी यानी मेरी चाची यहां हमारे साथ थीं। हमने उनके इंतजार में लंबा वक्त गुजारा।' तब एक दिन स्कार्दू रेडियो पर कादिर का नाम घोषित हुआ और परिवार वाले रेडियो को सीने से लगाके उछल पड़े। गुल्ली कहते हैं, 'ये बॉर्डर हमारे दिलों पर एक लकीर बनकर रह गई।'
42 साल बाद हुई दो भाइयों की मुलाकात
बाद में खतों का आदान-प्रदान शुरू हुआ, लेकिन यह भी आसान नहीं था। वीजा पाना तो और भी मुश्किल था। चिट्ठियां आती थीं, लेकिन कभी-कभी इतने दिन हो जाते थे कि परिवार में किसी के जन्म या निधन की खबर मिलने में भी वर्षों निकल जाते थे। अली और कादिर दोनों भाइयों की मुलाकात आखिरकार 1989 में तब हुई जब दोनों हज के लिए मक्का गए थे। अली आज भी उस पल को याद करके भावुक हो जाते हैं कि कहीं वह उनकी अंतिम भेंट ही ना साबित हो जाए। 49 साल के फाजिल अब्बास ज्यादा भाग्यशाली रहे। उनके भाई मोहम्मद बशीर जो उस वक्त पाकिस्तान में पढ़ते थे, उन्हें वीजा मिला और 2013 में वह फाजिल के परिवार से मिलने आ गए। अब्बास कहते हैं, 'मेरे अब्बा उनको याद करते हुए चल बसे। लेकिन मेरी मां अपने सबसे बड़े बेटे से मिलने में सफल हुई और मैं 42 साल बाद अपने भाई से मिला।' फाजिल पुलिस में हैं और द्रास में तैनात हैं। दो महीने बाद बशीर को अपने मुल्क लौटना पड़ा।
टेक्नोलॉजी के चलते मिट रही हैं दूरियां
ज्यादातर लोगों ने अब हालात को कबूल कर लिया है। बिजली विभाग के रिटायर्ड अधिकारी सनउल्ला के भाई पाकिस्तान में फंस गए थे और उन्हें तुर्तुक में रह गईं अपनी बीवी से मुलाकात के लिए 12 साल इंतजार करना पड़ा। सनउल्ला कहते हैं, 'हमने सोचा फिर मिलना होगा.....तब मेरा भाई हार मान गया और तलाक की चिट्ठी भेज दी। आप कितने दिनों तक झूठी उम्मीदों में जी सकते हैं। ' हालांकि, हाल के वर्षों में टेक्नोलॉजी ने अपनों के बीच खींची गई दूरियां मिटाने का काम जरूर किया है। अब्बास कहते हैं, 'अब हम फोन पर चैट कर सकते हैं, हालांकि नेटवर्क की दिक्कत है, लेकिन कम से कम एक-दूसरे की जिंदगी से कटे तो नहीं हुए हैं।'
कौन है बाल्टी समुदाय ?
बाल्टी मूल रूप से शिया मुसलमान हैं। संगीत और शायरी भी इस समुदाय को पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले गिलगित-बाल्टिस्तान से लेकर भारत के लद्दाख, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड के बीच एक सूत्र में जोड़े रखा है। इनकी भाषा, संस्कृति और खानपान अलग है। भारत-पाकिस्तान के बीच की दूरियों की वजह से 38 गांवों के 9,000 बाल्टी परिवारों ने अब इन्हीं मजबूरियों में रहना सीख लिया है। बाल्टी समुदाय और संस्कृति के विद्वान और विभाजित परिवार समन्वय समिति के सदस्य सादिक हरदास्सी कहते हैं, 'दोनों देशों के बीच की दुश्मनी में समुदाय को भुला दिया गया है।' हालांकि, 2010 में तुर्तुक को पर्यटकों के लिए खोल दिया गया था और 100 किलोमीटर दूर उसके सबसे नजदीकी कस्बे डिस्किट से उसे हर मौसम में इस्तेमाल लायक एक संपर्क सड़क भी मौजूद है। गर्मियों के दिनों में अब रोजाना 100 से ज्यादा टूरिस्ट तुर्तुक पहुंचते हैं। (आखिर की तीनों तस्वीरें- सांकेतिक)