'हिजड़ा माराथल्ली': हिजड़ा होने की त्रासद कहानी, उसी की जुबानी
बैंगलुरु।
उसने
मुझे
अपना
नंबर
बताया।
मैंने
डायल
किया
जिससे
कि
उसके
पास
भी
मेरा
नंबर
पहुंच
जाए।
वो
स्क्रीन
देख
कर
घबरा
गई
और
उसने
कहा
कि
'ऐसा
नाम
क्यों
आ
रहा
है?
मैंने
स्क्रीन
देखी।
ट्रू
कॉलर
पर
कोई
नाम
चमक
रहा
था,
पर
नाम
कन्नड़
में
था।
मैं
समझी
नहीं।
उसने
धैर्य
को
दरकिनार
करते
हुए
पूछा,
"क्यों
आ
रहा
है?
ये
बदल
नहीं
सकता
क्या?
इसको
ठीक
कर
दो
प्लीज!"
मैंने
पूछा,
"अरे
हुआ
क्या?
क्या
मतलब
है
इस
नाम
का?
क्या
ये
तुम्हारा
नाम
नहीं
है?"
उसने
कहा,
'हिजड़ा
माराथल्ली'।
माराथल्ली बैंगलुरु की एक जगह है। वह उसी जगह रहती थी लेकिन ट्रू कॉलर पर उसका नाम हिजड़ा माराथल्ली के नाम से ही था। हम सब ऐसे ही तो कहते हैं न, हिजड़ा...हिजड़े। हमारे लिए हिजड़ों के नाम नहीं होते। हम सब के लिए हिजड़े बस हिजड़े होते हैं। इतना काफी होता है। हम कभी नहीं सोचते कि उनका कोई नाम होगा। और हमें सबसे बड़ी गलतफहमी ये होती है कि उन्हें आदत होगी ऐसे सुनने की।
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हमें लगता है कि हम जब उन्हें हिजड़ा कह रहे होते हैं तो उनकेलिए कोई नई बात नहीं है। और हम इतने मूर्ख हैं कि हमें लगता है कि किसी का लगातार तिरस्कार करने से उसको तिरस्कार की आदत पड़ गई होगी और हम उससे घृणा,अपमान करते जाते हैं। हम उससे ऐसा बर्ताव करते जाते हैं जो दरअसल अपराध घोषित कर दिया जाना चाहिए। हम सब धूर्त और मक्कार लोग हैं। हमने बचपन छोटे शहरों में बिताया। संघर्ष किया। पढ़े-लिखे। बाहर निकले।
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हमने अपने घरों के पुराने टूटे दरवाजे और निशान वाले बाथरूम देखे। हमने सीखा कि टॉयलेट कहना बुरा होता है। वॉशरूम कहना चाहिए, डीसेंट लगता है। थोड़ी और दुनिया देखी तो पता चला कि वॉशरूम से भी अच्छा शब्द है 'लू'। फिर टॉयलेट जिंदगी से बाहर हो गया और 'लू' और 'रेस्टरूम' शामिल हो गया पर......पर हिजड़ा.. हिजड़ा ही रहा। हमने बाथरूम के सलीके सीखे लेकिन इंसान के साथ कैसे जीना है वो अभी भी नहीं मालूम।
हम सब दरअसल इतनी बेवकूफाना और सीमित जिंदगियां जी रहे हैं कि हमें अपने ठीक बगल के इंसान के बारे में नहीं पता। कभी किसी यूनक (अर्थ वही है लेकिन हर शब्द से भाव जुड़े हैं और यूनक कम हिकारत भरा और हिजड़े से हर हाल में बेहतर शब्द लगता है। शायद इसलिए क्योंकि अंग्रेजी का है और हम हर संवेदनशील जानकारियों को अंग्रेजी में उच्चारित करके संतोष कर लेते हैं कि हम अश्लील या अभद्र होने से बच गए। तो कभी किसी यूनक से बात करिए हो सकता है वो आपको बताए।
मेरा नाम गौरी है, पूरा नाम गौरी कनकदुर्गा राज राजेश्वरी
मेरा नाम गौरी है, पूरा नाम गौरी कनकदुर्गा राज राजेश्वरी। कर्नाटक में ही पैदा हुई। पर पापा ने निकाल दिया घर से ये बोल के कि 'ऐसा' है। 14 साल की थी। मैं बस स्टॉप पर रो रही थी, वहां मम्मी ने देखा। फिर मम्मी के साथ रहने लगी।" मम्मी जिन्होंने कई गौरियों को पाला। गौरी उन्हें मम्मी कहती है। "फिर कुछ साल बैंगलोर रही फिर मुम्बई चली गई"।
"वहां मुझे किसी ने कहा कि तुम्हारा ऑपरेशन करा देते हैं। तुमको लेडीज की तरह रहना अच्छा लगता है तो ऐसे ही रहो। तो फिर ऑपरेशन कराया। और दो साल घूम-घूम कर जितना कमाया सब पैसा वहीं दे दिया, कम से कम दो लाख रुपए। फिर वापस बैंगलोर आई। यहां कई जगह काम किया।"
अब उसकी भाषा में मुंबइया लहज़ा साफ झलकता है, "मैं इन्फोसिस में काम की। हाउस क्लीनिंग का। पर वहां मेरा सेक्शुअल हरासमेंट हुआ फिर मैं काम छोड़ दी।" "बहुत खुश थी मैं। इन्फोसिस के सीईओ ने रास्ते से बुलाकर काम दिया था। 50 हजार से ज्यादा सैलरी देते थे उस समय। पर सुपरवाइजर हमेशा तंग करता था। मेरी शिफ्ट हमेशा रात 3 से सुबह 9 तक लगाता था। फिर मैंने छोड़ दी काम जब वो (सेक्शुअल हरासमेंट) हुआ तो।
फिर मैं कहीं काम नहीं की। बहुत काम किया। चार नौकरियां की। पर हर जगह ऐसा ही करते हैं। सब लोग हिजड़ा-हिजड़ा बोलते हैं। वो कौन सुनेगा। अब कोई नौकरी नहीं करनी मुझे। मैं भीख मांगती है। ठीक है। पर कहीं काम नहीं करेगी। बार-बार ऐसे सुनेगी नहीं। मैं एकदम परेशान हो जाती है वही सुनसुन के। माथा खराब हो जाता है। दीदी की बेटी की शादी कराई है। 25 लाख खर्च हुआ। लोन पे करना है। रोज सुबह से रात तक सिग्नल पर रहती हूं तब कुछ पैसा मिलना है। पर क्या करे....। थोड़ा रुककर वो आगे कहती है, "जिंदगी बहुत कठिन है। पैदा होने से मरने तक। पर क्या करे। जीना तो है।"
"दीदी का पति नहीं है। दीदी के साथ रहती है।"
"वो तो लोन चुकाना है इसिलए दीदी के साथ है वरना दीदी मेरे पैसे कीएक भी चीज नहीं लेती है। कहती है, 'भीख का है' कभी-कभी लड़ाई मेंवो भी कह देती है हिजड़े का पैसा नही लेती मैं..."
"...और मैं जाती है क्योंकि सिग्नल पर लौटना है मेरेको "
वो सिग्नल जहां गौरी पैसे इकठ्ठे करती है और जहां रोज आते जाते मेरी उससे मुलाक़ात हो गई थी। वह रोज मिलती तो एक दिन उसे देखकर चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। फिर एक सिलसिला बन गया।
वह रोज मेरे पास आती। एकाध दिन जब उसके पास पैसे नहीं होते तो मेरे पास रुककर हाथ फ़ैला देती। मैं सौ पचास जो हाथ आता उसे दे देती। फिर एक दिन बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ।
उस समय तो अपनी बात कहकर गौरी चली गई, पर गौरी मेरे दिमाग में बची रह गई।
मुझे नहीं पता क्या लिखूं। कैसे अपने लिखे में हिजड़ा शब्द न लाऊं। औरदो दिन इसी उलझन में बीते। कई लोगों से बात हुई जिसमें बेसिक समझकी ये बात भी शामिल थी कि।।। ट्रांसजेंडर वो होते हैं जो अपनी पसंद सेविपरीत लिंग की तरह रहते/जीते हैं। दूसरी तरफ हिजड़े वे जो हर हाल मेंशारिरिक विकार का शिकार होते हैं।
मैं सोच रही हूं कि अगर हम सब मानसिक विकार के शिकार हैं तो हम क्या हैं? क्या हम भी हिजड़े हैं? हम सब? या फिर ये कि हम सब हिजड़ेक्यों नहीं हैं? ये जिस मानसिक विकार के साथ हम सब जी रहे हैं ये हमें हिजड़ा नहीं बनाता?
हम सब हिजड़े ही हैं।
नोट: यह लेखक के अपने अनुभव और विचार हैं जिसे उन्होंने साझा किया है।