Langa Music Festival: सारंगी और शहनाई की धुन से हुआ सुरीला 'बड़नावा जागीर'
पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर जिले का सुरीला गांव है बड़नावा जागीर। हाल ही राजस्थान के टूरिज्म विभाग और यूनेस्को की साझेदारी से इस गांव में लंगा म्यूजिक फेस्टिवल (Langa Music Festival) का आयोजन हुआ।
पश्चिमी राजस्थान की कल्चरल हेरिटेज को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई इस पहल में लंगा फेस्टिवल के लिए बड़नावा जागीर को चुनने की एक खास वजह यह रही कि यह लंगा समुदाय का सबसे बड़ा गांव है। करीब तीन सौ परिवार हैं यहां लंगा समुदाय के।
एक इत्तिफाक यह भी है कि हाल ही इस गांव ने अपने परंपरागत वाद्य सिंधी सारंगी को बनाना फिर से शुरू किया है। गांव के लंगा कलाकार सादिक खान इसे बना रहे हैं। दूसरा इत्तिफाक यह भी कि इसी गांव के आसीन खान लंगा को हाल ही में सिंधी सारंगी के लिए मस्कट में आगा खान अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
इन सुरीले संयोगों के साथ जब लंगा संगीत उत्सव शुरू हुआ तो सत्तार खान लंगा की आवाज ने अपना जादू बिखेरा। श्रेया घोषाल के साथ हाल ही सत्तार खान का एक गीत आया है, लौट आ मेरे देस...। बॉलीवुड में व्यस्त सत्तार खान अपने गांव की शान बढ़ाने के लिए मौजूद रहे और जमकर सुरों की बारिश की। जब वे गा रहे थे, ' बालम जी म्हारा, साहिब जी म्हारा झिरमिर झिरमिर बरसे मेघ... ' दर्शक-श्रोता सुरों में भीगते चले गए।
अगर आप भी राजस्थान के लोकगीतों को सुनने के शौकीन हैं, तो आपने इस गीत को मांगणियारों से भी सुना होगा। लंगा-मांगणियार समुदाय का नाम अक्सर साथ-साथ ही लिया जाता है। पश्चिम राजस्थान के इन दोनों सुरीले समुदायों को जजमानी प्रथा ने ही सरंक्षण दिया है।
जजमानों और लोक वाद्यों के आधार पर ही इन्हें पृथक किया जा सकता है, जहां मांगणियार समुदाय के जजमान हिंदू हैं और प्रमुख लोक वाद्य कमायचा है, वहीं लंगा समुदाय के जजमान सिंधी मुस्लिम होते हैं। लोक वाद्यों के आधार पर इनके दो वर्ग हैं- सारंगी लंगा और शहनाई लंगा।
सिंध से निकले हैं लंगा
लंगा समुदाय का ताल्लुक वर्तमान पाकिस्तान के सिंध प्रांत से बताया जाता है। ऐसा माना जाता है कि करीब पांच सौ बरस पहले सिंध के किसी इलाके से चार-पांच लंगा परिवार बाड़मेर के गांव बडऩावा जागीर और लखे की ढाणी में आकर बस गए थे।
करीब-करीब इसी समय फलौदी के बारह गांवों, देदासरी, बेगटी कलां, कालरा, बेगटी खुर्द, भूराज, कुशलावा, टेकड़ा, घाटोर, हिंदालगोल आदि में भी बसे। कुछ परिवार बाद में जोधपुर शहर में जाकर बसे और अपने परंपरागत संगीत के दम पर ही अपना निर्वाह किया।
कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी ने दिलाई पहचान
एक समय था जब लंगा-मांगणियार सिर्फ अपने जजमानों के लिए ही गाते थे, दूसरों समुदायों के लिए या मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन करने के बारे में उन्होंने जरा भी नहीं सोचा था। लेकिन संस्कृतिकर्मी कोमल कोठारी और राजस्थान के मूर्धन्य लेखक विजयदान देथा के प्रयासों से बात कुछ बनी।
करीब साठ बरस पहले कोमल कोठारी के अथक प्रयासों से लंगा-मांगणियार कलाकार अपने लोकगीतों को रिकॉर्ड करवाने के लिए तैयार हुए। इस पहल के बाद से ही दूसरे समुदायों के बीच इन कलाकारों की लोकप्रियता में इजाफा हुआ।
बडऩावा जागीर के कलाकार नेक मोहम्मद लंगा कहते हैं कि कोमल कोठारी हमारी उम्मीद थे, उनके साथ ही हमारे अच्छे दिन चले गए। असकर खान बताते हैं कि कोमल कोठारी ने लंगा कलाकारों को रिकॉर्डिंग के लिए तैयार किया, वे ऐन मौके पर रिकॉर्डिंग से भागने लगे थे, लेकिन कोमल कोठारी उन्हें समझाते रहे और आखिरकर उनके प्रयासों से गीत रिकॉर्ड हुए।
जब तक कोमल कोठारी थे, तब तक हर पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को लंगा-मांगणियार कलाकारों को मंच मिलता रहा, अन्य मौके भी मिले, लेकिन उनके बाद स्थिति खराब ही रही। कोरोना काल में लोक कलाकारों के लिए काम कर रही संस्था बंगलानाटक डॉट कॉम मदद कर रही है। संस्था के फाउंडर अमिताव भट्टाचार्य की कोशिशों से ही बड़नावा जागीर में लंगा फेस्टिवल संभव हो सका।
सिंधी सारंगी की धुन पर राधा-कृष्ण के गीत
लंगा समुदाय मुस्लिम धर्म का पालन करता है, लेकिन यह दावा भी करता है कि कृष्ण के जितने भजन उनके पास हैं, उतने किसी के पास नहीं। सिंधी सारंगी की धुन पर जब वे मिणहार गाते हैं, तो एक पूरा दृश्य सामने प्रस्तुत हो जाता है कि किस तरह राधा व्याकुल होकर कृष्ण को खोज रही है, एक गलतफहमी ने दोनों को दूर कर दिया था।
गीत
के
बोल
कुछ
यूं
हैं-
इन
सिंधणी
रे
जूने
मार्ग
जिणी
उडै
लाल
गुलाल
का
तो
आओ
दिल्ली
रो
बादशाह
का
आवे
मिणहार
जसोदा
और
राधा
का
गीत
भी
लंगा
गाते
हैं।
वे
गाते
हैं-
मथुरा
घाटों
से
गूजरी
उतरी
माथे
मईडे
री
माठ
म्हारा
गैहलो
छोड़
दे
ग्वालिया
बरजो
नी
जसोदा
आपने
कान्हूणे
ने
कान्हूणा
म्हारा
अडाणो
मार्ग
बांधे
गैली
ग्वालन
झूठ
मत
बोल
कान्हूणो
म्हारा
छोटो
सो
बाल
है
महिलाओं को गुरु मानते, पर मंच नहीं देते
लंगा समुदाय के लोग अपने समुदाय की महिलाओं का विशेष सम्मान करते हैं। वे मंच से अक्सर अपने परिवार की महिलाओं, जैसे मां, चाची आदि का नाम लेते हैं, बताते हैं कि उन्होंने संगीत उनसे ही सीखा है। वे इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि उनके परिवार की सभी स्त्रियां सुरीली हैं, बावजूद इसके वे अभी तक उन्हें मंच पर लेकर नहीं आए हैं। वे कहते हैं कि स्त्रियां परिवार में ही गा सकती हैं, दूसरों के सामने गाना हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं है।
हर साल लंगा म्यूजिक फेस्टिवल में सैलानी लंगा-मांगणियारों को सुनना पसंद करते हैं, लेकिन स्थानीय लोगों से इन्हें समुचित सम्मान नहीं मिलता। कलाकारों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए होने वाले प्रयास भी नाकाफी हैं।
युवा कलाकार सत्तार कहते हैं, इस बार यूनेस्को और टूरिज्म की तरफ से गांव में कार्यक्रम की शुरुआत हुई है। हम चाहते हैं कि 12-13 नवंबर के दो दिन स्थायी रूप से टूरिस्ट कैलेंडर में हों, ताकि लोग इस गांव की ओर रुख करे। लौट कर आएं... क्योंकि दुनिया भर में सराहे जा रहे यहां के कलाकार भी लौटकर यहीं आते हैं और अपनी कला का प्रदर्शन कर सुरीली रेत का कर्ज चुकाते हैं।