Al-Aqsa Mosque Controversy: जाने क्यों हैं अल अक्सा मस्जिद को लेकर यहूदी और मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन
36 एकड़ में फैले अल-अक्सा मस्जिद परिसर में टेंपल माउंट, वेस्टर्न वॉल, डोम ऑफ दी रॉक और डोम ऑफ दी चेन को लेकर यहूदियों और मुसलमानों के बीच कई शताब्दियों से विवाद बना हुआ है।
Al-Aqsa Mosque Controversy: बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा इजरायल के प्रधानमंत्री के रुप में शपथ लेने के महज एक हफ्ते के भीतर ही फिर से अल-अक्सा का विवाद सुर्खियों में आ गया। दरअसल, यरूशलम अथवा जेरूसलम में इजरायल के सुरक्षा मंत्री इतमार बेन गिवीर के अल-अक्सा मस्जिद परिसर दौरे को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। फिलिस्तीन ने इस यात्रा को भड़काऊ बताया है जबकि सऊदी अरब, जॉर्डन, फिलिस्तीन, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), और पाकिस्तान समेत मुस्लिम देशों ने भी इसका विरोध किया है।
ताज्जुब की बात यह है कि चीन ने भी इजरायली मंत्री इतमार के दौरे पर आपत्ति जताई है, जिसका वास्तव में इस पूरे विवाद से कोई लेनादेना तक नहीं है। गौरतलब है कि चीन ने इस मामलें पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की बैठक बुलाये जाने की मांग तक कर दी है। यह जानना चाहिए कि अल-अक्सा से जुड़े वे कौन से पहलू हैं, जिसके कारण यहूदियों और मुसलमानों के बीच मतभेद हैं?
विवाद किन बातों और स्थानों को लेकर है
जेरूसलम को यहूदी (Jews), ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों में पवित्र शहर माना गया है। इस्लाम में मक्का और मदीना के बाद अल-अक्सा मस्जिद को तीसरी सबसे पवित्र मस्जिद का दर्जा दिया गया है। मुसलमानों के बीच यह 'अल-हरम अल-शरीफ' के नाम से मशहूर है। जबकि इसी स्थान पर यहूदी अपने टेंपल माउंट, वेस्टर्न वॉल, डोम ऑफ दी रॉक होने का दावा करते हैं। मुख्य विवाद इसी स्थान को लेकर यहूदी और मुसलमानों के बीच है।
दरअसल, पैगम्बर मुहम्मद के निधन के कुछ सालों बाद खलीफा उमर ने जेरूशलम पर कब्जा कर लिया। बाद में उम्म्यद खलीफाओं ने आठवीं शताब्दी की शुरुआत में यहां अल अक्सा नाम की मस्जिद बनवाई। इसी मस्जिद के सामने एक गुंबद वाली इमारत है, जिसे डोम ऑफ दी रॉक (इसके अंदर पत्थर या चट्टान जैसा कुछ है) कहा जाता है। मुसलमानों का मानना है कि पैगंबर साहब इसी चट्टान पर चढ़कर, अपने बराक घोड़े पर सवार होकर जन्नत गये थे।
इसी रॉक के ठीक सामने एक छोटे आकार की दीवार है जिसे डोम ऑफ दी चेन कहते है। मुसलमान मानते हैं कि डोम ऑफ दी रॉक बनाने वालों के आराम करने के लिये डोम ऑफ दी चेन को बनाया गया था। इसलिये कयामत के दिन डोम ऑफ दी चेन को जो क्रॉस करेगा, वही जन्नत जायेगा। जबकि यहूदियों का मानना है कि इजराइली साज्य के राजा सोलोमन 'डोम ऑफ दी चेन' में बैठकर न्याय किया करते थे। इसलिये यहूदी इस स्थान पर अपना दावा जताते हैं।
मुख्य विवाद का एक कारण वेस्टर्न वॉल भी है। यहूदियों के मुताबिक यह उस टेंपल माउंट का हिस्सा है, जिसे उनके पूर्वजों ने हजारों साल पहले बनवाया था और हजारों साल पहले वे वहां पूजा करते थे। यहूदियों का विश्वास है कि बाइबल में जिन यहूदी मंदिरों का जिक्र है, वे यहीं मौजूद थे। उनका मानना है कि इस्लाम और ईसाई धर्म के आने से पहले वेस्टर्न वॉल से सटा टेंपल माउंट ही उनका पवित्र मंदिर हुआ करता था। चूंकि अब टेंपल माउंट को नष्ट कर दिया गया है तो ऐसे में यहूदी वेस्टर्न वॉल की ही पूजा करते है।
यहां आने के लिये 11 दरवाजे बने हैं, जिसमें 10 मुसलमानों और सिर्फ एक दरवाजा यहूदियों के आने के लिये हैं। मतलब इसी एक दरवाजे के रास्ते वे वेस्टर्न वॉल तक पहुंच सकते हैं। यहूदी धर्म की मान्यताओं के मुताबिक यह इतनी पवित्र जगह है कि यहां सभी लोगों का प्रवेश नहीं होना चाहिए। अब यहां पर मुसलमानों का दावा है कि वेस्टर्न वॉल भी हमारा है क्योंकि मुहम्मद साहब ने यहीं पर बराक घोड़े को बांधा था। इसलिए यह वेस्टर्न वॉल नहीं बल्कि बराक वॉल है।
थोड़ा अब इतिहास को भी समझें
हिब्रू बाइबिल के अनुसार ईसा पूर्व 10वीं शताब्दी में राजा डेविड की जेरूसलम की विजय से पहले यह शहर यबूसियों का था। हिब्रू बाइबिल के अनुसार शहर को भारी और मजबूत दीवारों से घेरा गया था। इस तथ्य की पुरातत्व सर्वेक्षणों में भी पुष्टि की गयी है। इस जगह पर डेविड के बेटे सोलोमन ने एक नगर बसाया, जिसे सिटी ऑफ डेविड कहा जाता है। इस प्राचीन शहर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। आज इसी शहर को जेरूसलम के नाम से जाना जाता है।
हिब्रू बाइबिल के अनुसार सोलोमन ने इसी शहर में एक पवित्र मंदिर बनवाया था। वास्तव में इसी मंदिर को टेम्पल ऑफ माउंट के नाम से पहचाना गया है जोकि यहूदियों से संबंधित था। साथ ही मंदिर में पर्वत को शामिल करने के लिये शहर की दीवारों का विस्तार किया गया। बाद में इस मंदिर को नष्ट कर दिया गया। आखिरकार जब इस्लाम के दूसरे खलीफा उमर इब्न अल-खत्ताब ने 637 में जेरूसलम पर कब्जा कर लिया तो उसी दौरान धार्मिक उत्पीड़न के डर से यहूदियों ने अपने पवित्र एवं ऐतिहासिक शहर को छोड़ दिया। उसके बाद मुस्लिम खलीफाओं ने यहाँ मस्जिद का निर्माण करा दिया।
यहूदियों का यह मानना है कि उनके पूर्वजों द्वारा बनाये पवित्र मंदिर की जगह पर ही यह मस्जिद खड़ी है। गौरतलब है कि इस्लाम के आने से पहले यहां यहूदी और ईसाई धर्मों के बीच विवाद था। बाद में इस्लाम आया और यह विवाद यहूदी और मुसलमानों के बीच ज्यादा हो गया।
ईसाईयों के लिए क्यों है पवित्र यह स्थान?
ईसा मसीह का जन्म एक यहूदी परिवार में ही हुआ था और उन्हें जेरूसलम में ही मौत की सजा सुनाई गयी थी। जब उन्हें यहां सूली पर चढ़ाया गया तो ईसाईयों का दावा है कि वे दोबारा जी उठे थे। ईसाई मानते हैं कि ईसा मसीह ने इसी शहर में इन्ही स्थानों पर उपदेश भी दिये थे। ऐसे में जेरूसलम और टेंपल माउंट का क्षेत्र ईसाइयों के लिये भी बेहद पवित्र स्थान है।
यहूदियों के अपने देश - इजरायल का गठन
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जेरूशलम पर ब्रिटेन का कब्जा था। दूसरी तरफ जर्मनी में हिटलर ने लाखों यहूदियों को मार डाला। जिसके बाद, यहूदी अपने लिये इजराइल नाम के एक मुल्क की मांग करने लगे। फिर साल 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने फिलिस्तीन के विभाजन की योजना बनाई। इस प्रकार इस विभाजन से यहूदियों के लिये इजरायल देश का गठन किया गया। विभाजन में 55 प्रतिशत जमीन यहूदियों को और 45 प्रतिशत फिलिस्तीनियों को मिली। हालांकि, जेरूशलम किसके पास रहेगा, उसके लेकर विवाद बना हुआ था, इसलिये संयुक्त राष्ट्र संघ ने उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय का क्षेत्र घोषित कर दिया।
इजरायल का गठन मुस्लिम राष्ट्रों को रास नहीं आया, इसलिये जून 1967 में इजरायल की अरब देशों मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की संयुक्त सेनाओं के बीच एक जंग छिड़ गयी। छह दिन चली इस जंग को इजराइल जीत गया और इजराइल ने गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरूसलम (अल-अक्सा परिसर सहित) को वापस ले लिया। दरअसल, अभी तक जेरूसलम पर फिलिस्तीन का कब्जा था और अल-अक्सा की सुरक्षा की जिम्मेदारी जॉर्डन पर थी।
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वहां शांति बनाये रखने के लिये UN ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया और पवित्र स्थानों पर यथास्थिति न बिगड़े इसके लिए एक सिस्टम बनाया गया। जिसके तहत जॉर्डन को कस्टोडियन बनाया गया, जबकि इजरायल को उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई। गौर करने वाली बात यह है कि उस समय भी सिर्फ मुस्लिमों को ही यहां नमाज पढ़ने की इजाजत मिली। जबकि यहूदियों के लिये भी यह स्थान पवित्र है। तब से अभी तक यहां गैर-मुसलमानों को प्रार्थना करने पर पाबंदी है। हालांकि, यहूदी मस्जिद परिसर में जा सकते हैं, लेकिन वहां वे अपनी प्रार्थना नहीं कर सकते।
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