भारत समेत एशियाई देशों की विद्युत इकाईयों को हो सकता है अरबों का नुकसान
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुए नये अध्ययन के अनुसार एशियाई देशों के कई विद्युत संयंत्रों को निकटतम भविष्य में भारी नुकसान हो सकता है। यह नुकसान हजारों लाखों में नहीं, अरबों में होगा।
डा. बेन कॉल्डिकोट
वर्ष 2005 और 2008 के बीच यूरोपीय इकाइयों ने कोयले से चलने वाले प्रमुख बिजली संयंत्र के निर्माण के प्रति संकल्प जाहिर किया था। उन्होंने कोयला आधारित 49 गीगावॉट ऊर्जा क्षमता के निर्माण की योजना की घोषणा की थी।
इसमें से अब तक 77 प्रतिशत नयी ऊर्जा क्षमता की योजना निरस्त हो चुकी है। बाकी बचा हिस्सा भी जल्द ही रद्द होने की सम्भावना है। अकेले जर्मनी में ही 20 गीगावॉट क्षमता की परियोजना का इरादा त्यागा जा चुका है। मौजूदा संयंत्रों की गणित भी डावांडोल है। उदाहरण के लिये वर्ष 2016 में ब्रिटेन में कोयले के इस्तेमाल में आधे से ज्यादा की गिरावट आयी है और वर्ष 1880 के दशक के बाद पहली बार देश का ऊर्जा तंत्र कोयला मुक्त दौर को जी रहा है।
उलटा पड़ा कोयले से बिजली बनाने का कदम
यूनीवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड स्मिथ स्कूल ऑफ एंटरप्राइजेज एण्ड द एन्वॉयरमेंट के एक नये अध्ययन से पता लगा है कि कम्पनी के स्तर पर कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं को लेकर गैर-वाजिब आशावादिता और क्षेत्रव्यापी खामख्याली भरे पूर्वानुमानों की वजह से ऐसी परियोजनाओं को प्रस्तावित किया गया था, मगर यह कदम बाद में अपने लिये ही उल्टा पड़ गया। आर्थिक रूप से कोयले के आकर्षण में गिरावट का पैमाना और उसकी तीव्रता खासतौर पर उल्लेखनीय है और यह एशियाई बिजली संयंत्रों और उनमें निवेश करने वालों को आगाह करने वाली कहानी भी है।
यूरोपीय बिजली इकाइयां कोयला आधारित नये बिजली उत्पादन की सम्भावनाओं को समझने में पूरी तरह नाकाम रही हैं और तब से वे इसकी कीमत भी चुका रही हैं। ऐसी परियोजनाओं में फंस चुकी सम्पत्ति, उत्पादकता में कमी और बैलेंस शीट के आकार में गिरावट इत्यादि ऐसी दिक्कतें हैं, जो अब भी इस क्षेत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं।
इसके अलावा, विकास की प्रक्रिया के जरिये इतनी बड़ी संख्या में कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं को आगे बढ़ाने से संगठनात्मक पूंजी भी बेकार गयी है। प्रस्तावित परियोजनाएं भी बड़े पैमाने पर अनचाही सी हो गयी हैं, क्योंकि यूरोप का ऊर्जा तंत्र प्रौद्योगिकी, नीति तथा बाजार नवोन्मेष के अप्रत्याशित युग में दाखिल हो चुका है।
सबसे अधिक जोखिम भरे होते हैं कोल पावर प्लांट
जहां यूरोप और एशिया अपने विकास के विभिन्न चरणों में हैं, वहीं यूरोप का अनुभव हमें कुछ सबक देता है। प्रौद्योगिकी को लेकर कम्पनी के अधिकारी कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाये हुए हैं। उन्हें लगता है कि प्रौद्योगिकी पूरी तरह से 'सुरक्षित' और 'जांची-परखी' है। दरअसल, कोयले से बिजली उत्पादन की प्रौद्योगिकी निम्न लागत वाले अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिये सबसे ज्यादा जोखिम भरी है। इसके अलावा वस्तु के मूल्य में अस्थिरता, वायु प्रदूषण को लेकर फिक्र, गैस आधारित परियोजनाओं से प्रतिस्पर्द्धा और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये जरूरी कदम उठाये जाने की आवश्यकता भी कोयला आधारित परियोजनाओं से तौबा करने की जरूरत बताती हैं।
ताइवान ने उठाया बड़ा कदम
ऐसा लगता है कि कुछ एशियाई देशों ने इस सूरतेहाल को पहले ही समझ लिया है। दक्षिण कोरिया के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मून जे-इंस के कोयला आधारित परियोजनाओं को चरणबद्ध तरीके से बंद करके सौर तथा वायु निर्मित ऊर्जा पर निर्भरता लाने के कदम से उनके देश को यूरोपीय इकाइयों की गलतियां दोहराने से बचने में मदद मिलेगी। ताइवान अपने अक्षय ऊर्जा सम्बन्धी योजनाओं का दायरा बढ़ा रहा है, वहीं कोयले पर अपनी निर्भरता में एक तिहाई की कमी लाकर इसे वर्ष 2025 तक 45 प्रतिशत से घटाकर 30 फीसद करने की दिशा में काम कर रहा है। इसके अलावा चीन भी कोयले पर अपनी निर्भरता में लगातार कमी ला रहा है। वुड मैकेंजी के अनुसार चीन पिछले पांच वर्षों में कोयले के इस्तेमाल में 40 प्रतिशत तक की गिरावट ला चुका है।
भारत में बंद होंगी कोयले की कई खानें
भारत भी कोयला आधारित नयी परियोजनाओं का इरादा छोड़ने के मामले में चीन और अन्य पूर्वी एशियाई देशों के साथ हो लिया है। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के मसविदे के अनुसार आने वाले दशक में कोयला आधारित कोई भी नया संयत्र नहीं लगने जा रहा है। साथ ही कोयले से चलने वाले 37 गीगावॉट उत्पादन क्षमता वाले संयंत्र बंद किये जा सकते हैं, वहीं कोल इण्डिया ऐसी 37 कोयला खदानों को बंद करने जा रहा है, जो अब अपनी व्यावहारिकता खो चुकी हैं। अगर भारतीय बिजली कारोबार ने कोयले पर अपनी निर्भरता को कम नहीं किया तो उसे भी अपने यूरोपीय समकक्षों जैसी वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
इसके विपरीत, जापान और इंडोनेशिया कोयले से चलने वाले दर्जनों बिजली संयंत्र लगाने की योजना बना रहे हैं। इससे बुनियादी ढांचे में उनके अरबों डॉलर फंस जाने का खतरा है। जापान में 49 नये कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की स्थापना एवं 28 गीगावॉट की अतिरिक्त उत्पादन क्षमता की योजना आर्थिक रूप से तर्कसंगत नहीं हो सकतीं और इससे पुराने संयंत्रों को बदलने की स्थिति में जरूरी उत्पादन क्षमता में 191 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। इसके परिणामस्वरूप पैदा होने वाले हालात और सौर तथा अन्य अक्षय ऊर्जा माध्यमों से मिलने वाली कड़ी प्रतिस्पर्द्धा की वजह से कम्पनियों द्वारा लगायी गयी उस पूंजी के फंसने का जोखिम पैदा हो सकता है, जो विभिन्न बिजली कम्पनियों की कुल बाजार पूंजी का करीब 25 प्रतिशत है।
मौजूदा और भविष्य के अनुमानित हालात के मद्देनजर एशियाई इकाइयों तथा उनमें निवेश करने वालों पर पड़ने वाले प्रभाव बिल्कुल स्पष्ट हैं। अब कोयले पर दांव लगाना मुनाफे का सौदा नहीं है। एक फिक्र पैदा करने वाली धारणा बनी हुई है कि तापीय कोयला संयंत्रों के लिये बिजली का क्षेत्र एक स्थिर और 'सुरक्षित' ठिकाना है। इस धारणा के एक जोखिम भरा मुगालता होने का सुबूत हमने यूरोप में देख लिया है।
नोट: यह लेख डा. बेन कॉल्डिकोट के अंग्रेजी में लिखे लेख का हिन्दी अनुवाद है।