बिहार चुनाव के नतीजे रैलियों की भीड़ तय करेगी या सोशल मीडिया की लड़ाई?
सोशल मीडिया के लिए बिहार चुनाव में किस पार्टी ने की थी कैसी तैयारी, कौन किस पर पड़ा कितना भारी.
"मैं लकड़ी का बिज़नेस करता हूँ, साथ में समाज सेवा भी. सोशल मीडिया को समाज सेवा का ज़रिया बनाकर रखा है. 'अनुभव ज़िंदगी का' नाम से तीन व्हाट्सऐप ग्रुप चलाता हूँ. हर ग्रुप में 256 सदस्य हैं. मैं जहाँ रहता हूँ उसके 10 किलोमीटर के दायरे में किसी भी ग़रीब, बीमार को मदद की ज़रूरत होती है, वो मैं करता हूँ."
बिहार के सारण ज़िले के रहने वाले मनोज सिंह व्हाट्सऐप पर अपनी मौजूदगी को लेकर किसी पेशेवर की तरह संजीदा हैं.
वे बताते हैं कि इसके अलावा एक दर्जन और व्हाट्सऐप ग्रुप हैं जिनके वे सदस्य हैं. इनमें से एक ब्लड डोनेशन ग्रुप भी है.
वे कहते हैं, "यूपी-बिहार सीमा पर रहता हूँ, दोनों तरफ़ के तीन ग्रुप का मैं सदस्य हूँ. इतना ही नहीं, सारण में कुछ सात-आठ न्यूज़ ग्रुप में भी मैं मेंबर हूँ. उस ग्रुप में जो लिंक फॉरवर्ड होते हैं उससे पल-पल की ख़बर हमें मिल जाती है और मैं अपने ग्रुप में उसे तत्काल शेयर कर देता हूँ. चुनावी माहौल में मैसेज सेंड और रिसीव करने का सिलसिला थोड़ा ज़्यादा बढ़ गया है."
गाँव में अपने लोगों के बीच मनोज सिंह हैसियत किसी नेता से कम नहीं.
वो कहते हैं, "बिहार के सारण ज़िले में तकरीबन 3800 लोगों का व्हाट्सऐप नेटवर्क और 5000 लोगों का फ़ेसबुक नेटवर्क चलाना आसान काम नहीं है."
बिज़नेस के साथ-साथ व्हॉट्सऐप ऑपरेट करते हुए उनका दिन आराम से कट जाता है.
किसी भी राजनीतिक पार्टी के एक मैसेज को मिनटों में हज़ारों लोगों तक पहुँचाना हो तो मनोज सिंह जैसे लोग कारगर साबित होंगे.
बिहार चुनाव में ऐसे लोग कब राजनीतिक दलों के लिए 'सोशल मीडिया वॉरियर्स' बन जाते हैं, इसका उन्हें भी अंदाज़ा नहीं होता.
कोरोना महामारी के दौर में बिहार में भारत का पहला विधानसभा चुनाव हो रहा है. यहाँ वर्चुअल रैलियों की शुरुआत जून में ही हो चुकी थी जबकि चुनाव की घोषणा सितंबर महीने में हुई. तब लगा था, मानो ये पूरा चुनाव सोशल मीडिया पर ही लड़ा जाएगा.
हालांकि जब चुनाव आयोग ने फिज़िकल रैलियों की इजाज़त दी, तो वर्चुअल रैलियों का रंग फ़ीका पड़ गया.
अब तो आलम ये है कि राष्ट्रीय जनता दल के दावे के मुताबिक़ तेजस्वी यादव ने एक दिन में 19 चुनावी रैलियों को संबोधित करने का नया रिकॉर्ड बनाया है.
बताया जा रहा है कि इसके पहले ये रिकॉर्ड उन्हीं के पिता लालू यादव के नाम था, जिन्होंने एक दिन में 16 चुनावी रैलियों को संबोधित किया था.
लेकिन सब जनता रैलियों में तो पहुँचती नहीं है, यही वजह है कि मनोज सिंह जैसे लोग इस चुनाव में नेता से कम भूमिका नहीं निभा रहे.
क्या बीजेपी, क्या आरजेडी, क्या जेडीयू और क्या कांग्रेस - सभी ने बिहार चुनाव के लिए अपने-अपने सोशल मीडिया वॉर रूम अलग से बनाए हैं.
- बिहार चुनाव के 'कुरुक्षेत्र' में राजनीतिक मुद्दों का 'महाभारत'
- बिहार चुनाव: तेजस्वी यादव अचानक नीतीश के लिए बड़ी चुनौती कैसे बने?
पसंदीदा है व्हाट्सऐप
बीबीसी ने चुनाव के दौरान चारों मुख्य पार्टियों के सोशल मीडिया प्रभारियों से बात की. चारों से बातचीत में एक ही निष्कर्ष निकला कि बिहार में ट्विटर और यू-ट्यूब से ज्यादा चलन व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक का है.
व्हाट्सऐप भले ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ना हो. आज भी उसकी गिनती मैसेजिंग ऐप में होती है, जिसमें मैसेज को प्राइवेट चैट माना जाता है. लेकिन अलग-अलग ग्रुप बना कर, जिस बड़े पैमाने पर इसका राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है उसने मैसेजिंग ऐप और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के भेद को ख़त्म कर दिया है.
आँकड़ों के मुताबिक़, दुनिया में तक़रीबन डेढ़ अरब लोग व्हाट्सऐप का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें 20 करोड़ लोग भारत में हैं.
यही वजह है कि हर पार्टी ने व्हाट्सऐप को अपने कैम्पेन का सबसे अहम ज़रिया बनाया है. ज़िला से लेकर पंचायत तक में व्हाट्सऐप नेटवर्क बनाया है और हर जगह मनोज सिंह जैसे लोगों को ढूंढकर ग्रुप में जोड़ा जाता है.
मनोज सिंह कहते हैं कि वो राजनीति से दूर हैं, नेतागिरी नहीं करते, केवल राजनीतिक मैसेज पढ़ते हैं और सच लगने पर, जाँच-परख कर ही आगे फ़ॉरवर्ड करते हैं.
लेकिन उनका दावा सच्चाई से बिल्कुल अलग है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया, "तेजस्वी ने भी रोज़गार देने का वादा किया है, बीजेपी ने भी. नीतीश जी स्थाई नौकरी तो नहीं दिए, लेकिन शिक्षा मित्र और स्वास्थ्य विभाग में ठेका वाला नौकरी दिए हैं. तेजस्वी जो कह रहे हैं, वो बात भी सच है कि सरकारी नौकरी में बहुत पद खाली है. इसलिए दोनों का वीडियो हम फॉरवर्ड करते हैं, अपनी तरफ़ से दो लाइन लिखकर."
और बस इतने से ही राजनीतिक पार्टियों का काम पूरा हो जाता है क्योंकि ऐसे लोग केवल वोटर नहीं होते बल्कि वोट मोबिलाइज़र का काम करते हैं.
बिहार चुनाव: वो एक सवाल जिसके चलते राजनीतिक घमासान हुआ बेहद दिलचस्प
चुनावों में सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप के इस्तेमाल के क्या तरीक़े हैं और इसका फ़ायदा होता भी है या नहीं, इस पर जर्मन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ग्लोबल एरिया स्टडी की रिसर्च एसोसिएट संगीता महापात्रा ने शोध किया है.
भारत, अमरीका और इसराइल के साथ-साथ दक्षिण-पश्चिम एशियाई देशों में सोशल मीडिया पर उन्होंने अध्ययन किया है.
वो मानती हैं कि सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप के जरिए जनता किसी मुद्दे पर कोई नई राय नहीं बनाती, लेकिन पहले से मौजूद सोच के लिए ऐसे मैसेज, उत्प्रेरक का काम ज़रूर करते हैं. सोशल मीडिया के ज़रिए आप 'मास मैसेज़िंग' और 'माइक्रो टारगेटिंग' दोनों काम एक साथ कर सकते हैं.
जर्मनी के हैम्बर्ग शहर से बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा कि व्हाट्सऐप के साथ कुछ ऐसी बातें हैं जो राजनीतिक दलों को काम लायक लगती है.
वो कहती हैं,"मसलन, अगर आप बेरोज़गारी की वजह से पहले से दुखी हैं, तो रोज़गार के वादे अगर आपको व्हाट्सऐप पर मिलते हैं या फ़ेसबुक पर दिखते हैं, तो आपकी पहले से बनी सोच उस पार्टी के लिए और पुख़्ता होती है."
संगीता कहती हैं, "भारत में हर इलाके में लोगों तक खबरें अलग-अलग माध्यमों से पहुँचती है. बिहार के लिए ये अलग है और दिल्ली के लिए अलग. दिल्ली में जनता ख़बरों के लिए कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करती है, जैसे ट्विटर, यूट्यूब, गूगल, फ़ेसबुक. लेकिन बिहार की बात करें तो वहाँ मैसेजिंग ऐप व्हाट्सऐप का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है. ये पर्सनलाइज़्ड होता है और इसमें क्षेत्रीय बोलियो में कंटेंट ऑडियो और वीडियो फॉर्म में आसानी से भेजे जा सकते हैं. बिहार में साक्षरता दर कम है, इस वजह से भी व्हाट्सऐप पर लोगों से जुड़ना ज्यादा आसान होता है. इतना ही नहीं, मैसेज कितना सच है या कितना झूठ, व्हाट्सऐप फॉरवर्ड में अंतर करना मुश्किल हो जाता है. व्हाट्सऐप के बाद बिहार के लोग न्यूज़ के लिए फ़ेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल प्लेटफॉर्म पर जाते हैं."
राजनीतिक पार्टियों की रणनीति
अमृता भूषण चुनाव में बिहार बीजेपी का सोशल मीडिया देख रही हैं. वो प्रदेश में पार्टी की महामंत्री भी हैं. पटना से बीबीसी से फ़ोन पर बात करते हुए उन्होंने कहा, "बीजेपी के हर बूथ पर 21 वॉलेंटियर मौजूद हैं जो सोशल मीडिया से फ़ेसबुक, ट्विटर और दूसरे माध्यमों से जुड़े हुए हैं."
बिहार में कोचिंग के चंगुल से छात्रों को निकालेगा कौन?
वे कहती हैं, "लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में इनकी अहम भूमिका है. बिहार में बीजेपी ने पंचायत के स्तर पर शक्ति केंद्र का गठन किया है. हर शक्ति केंद्र में बीजेपी का एक आईटी इंचार्ज है. इससे ऊपर ज़िला स्तर पर आईटी सेल और फिर प्रदेश स्तर पर भी अलग से सेल हैं. केंद्र की सोशल मीडिया सेल भी प्रदेश के सोशल मीडिया सेल की मदद करती है. कुल आँकड़े को जोड़ दें तो बिहार में बीजेपी के 60 हज़ार आईटी संचालक हैं."
इस अभियान का पैमाना कितना बड़ा है, ये बताते हुए वे कहती हैं, "यही नहीं, ख़ास तौर पर विधानसभा चुनाव को देखते हुए तक़रीबन 72 हज़ार व्हाट्सऐप ग्रुप बनाए हैं जो ज़िला और बूथ लेवल पर काम करते हैं. इनमें से कुछ में बीजेपी के कार्यकर्ता हैं और कुछ में हमारे समर्थक जुड़े हुए हैं."
आरजेडी का सोशल मीडिया का कामकाज संजय यादव देखते हैं, जो तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार भी हैं.
अपने नहीं, लालू यादव के 15 साल क्यों याद दिला रहे हैं नीतीश कुमार?
संजय मानते हैं कि सोशल मीडिया का चुनावी लोकतंत्र में एक अपना स्थान है. लोगों तक आसान शब्दों में आप अपनी बात को वीडियो और ऑडियो के ज़रिए पहुँचा सकते है. काम की वजह से कई लोग टीवी नहीं देख पाते और रैलियों में हिस्सा लेने नहीं जा सकते. सोशल मीडिया के कई माध्यम हैं - कुछ लोग ट्विटर पर नहीं तो फे़सबुक पर हैं, कुछ इन दोनों पर नहीं तो यूट्यूब देखते हैं और कुछ तीनों पर नहीं हैं तो कम से कम व्हाट्सऐप पर तो ज़रूर हैं. बुजुर्ग तो सबसे ज्यादा व्हाट्सऐप पर ही हैं.
संजय मानते हैं कि आरजेडी सबसे ज्यादा मज़बूत व्हाट्सऐप पर है, फिर फे़सबुक पर, फिर ट्विटर और सबसे अंत में यूट्यूब पर.
बिहार में जेडीयू सोशल मीडिया पर आरजेडी और भाजपा के मुकाबले थोड़ी पिछड़ती दिखाई पड़ती है. ट्विटर हो या फ़ेसबुक दोनों ही जगह उन्होंने मैदान में उतरने में देरी की है. लेकिन समय रहते फॉलोअर्स का बेस बना लिया है.
व्हाट्सऐप पर उन्होंने काम देर से शुरू किया, पर हर पंचायत तक 200 सदस्य जोड़ने में सफल हुए, ऐसा उनका दावा है.
बिहार चुनाव में किस पार्टी के साथ जाती दिख रही है कौन सी जाति?
उनके सोशल मीडिया टीम के सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "मई के महीने में जनता दल यूनाइडेट ने सोशल मीडिया पर पकड़ मज़बूत करने के लिए दिल्ली से टीम बुलाई. 15 लोगों की टीम ने फ़ेसबुक लाइव के साथ-साथ व्हाट्सऐप ग्रुप में सदस्यों को जोड़ने का काम मई के अंत में शुरू कर दिया था. पार्टी के लिए 53 फ़ेसबुक पेज तैयार किए गए और सबमें तकरीबन 15 हज़ार से 20 हज़ार लोगों को जोड़ा गया. 'नीतीशकेयर्स' और 'बिहारजेडीयू' जैसे बिना ब्लू टिक वाले कई फ़ेसबुक पेज इसी मुहिम के तहत लॉन्च किए गए.
दिल्ली वाली टीम ने फेसबुक पर लाइव करवाने का सिलसिला 24 मई से शुरू किया, जिसमें मुख्यमंत्री जैसे बड़े नेता शामिल नहीं होते थे, पर इलाके के छोटे नेता (बूथ अध्यक्ष, प्रखंड अध्यक्ष, ज़िला अध्यक्ष) शामिल होते थे, जो कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद करते थे. ऐसा करने पर इस बात की आशंका भी नहीं होती थी कि दर्शकों की संख्या कम रहने पर बड़े नेता की किरकिरी हो जाएगी. है
सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर जेडीयू के एक नेता ने बीबीसी से कहा, "जेडीयू में एक धारणा है कि बिहारी जनता ट्विटर पर चुनाव नहीं लड़ती. जैसे चुनावी रैलियों में जमा भीड़ वोट में तब्दील हो जाए इसकी गारंटी नहीं देती वैसे ही सोशल मीडिया के फॉलोअर्स, ट्वीट, रीट्वीट, लाइक्स, कमेंट और शेयर अच्छे चुनाव प्रचार का पैमाना नहीं हो सकते."
यही वजह है कि ख़ुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अपने ट्विटर पर शोक संदेश और बधाई संदेश लिखने की जगह मुख्यमंत्री कार्यालय की तरफ़ से जारी पीडीएफ़ पेज ही ट्वीट कर देते हैं.
बिहार चुनाव के बारे में वो ख़ास बातें जो जानना ज़रूरी हैं
रही बात कांग्रेस की तो उन्होंने चुनाव से चार महीने पहले बिहार में सोशल मीडिया यूजर्स का डेटा बेस तैयार करने का काम शुरू कर दिया था. सबसे पहले एक कंट्रोल रूम में 40 लोगों की टीम तैयार की गई. डिजिटल मेंबरशिप ड्राइव शुरू किया और छह लाख ऑनलाइन मेंबर बनाए.
कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रभारी रोहन गुप्ता कहते हैं, "हमने बिलकुल अलग तरीके से व्हाट्सऐप नेटवर्क तैयार किया."
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया कि कांग्रेस ने अपने एक नंबर को अपने लोकल उम्मीदवारों से कहकर लोकल व्हाट्सऐप ग्रुप में ऐड करवाया. उनका कहना है कि मैसेज फॉरवर्ड के लिए व्हाट्सऐप ग्रुप सही है. लेकिन जब पार्टी के प्रोग्राम को लाइव करने की बात आती है तो उसके लिए फ़ेसबुक पेज और यूट्यूब की ज़रूरत पड़ती है. जिसके लिए उन्होंने कुछ 'इंफ्लूएंसर्स' की मदद ली, जो कांग्रेस की विचारधारा से सहमति रखते हैं.
इसके अलावा कांग्रेस ने प्रवासी मज़दूरों का एक डेटाबेस बनाकर रखा था. उनसे भी इन चुनावों में सम्पर्क साधा गया.
तेजस्वी यादव: क्रिकेट की अधूरी ख़्वाहिश राजनीति की पिच पर पूरी होगी?
फ़ेसबुक का इस्तेमाल
व्हाट्सऐप ग्रुप का कौन कैसे इस्तेमाल कर सकता है इसे सारण के मनोज सिंह के जरिए समझा जा सकता है.
राजनीतिक पार्टियाँ कैसे किसी फे़सबुक पेज का इस्तेमाल कर सकती हैं, इसे भी एक मिसाल से आप समझिए.
'भक बुड़बक' नाम का बिहार का एक फ़ेसबुक पेज इन दिनों काफ़ी चर्चा में है. इस पेज को तकरीबन साढ़े चार लाख लोग फॉलो करते हैं. ये फ़ेसबुक पेज वैरिफाइड नहीं है. सबसे बड़ी बात ये है कि इस पेज़ को इसी साल फरवरी में लॉन्च किया गया है और मार्च में नाम बदला गया है यानी चुनाव से बस आठ महीने पहले.
इस पेज पर जो सबसे पॉपुलर वीडियो पोस्ट किया गया है उस वीडियो को तकरीबन 48 हज़ार बार शेयर किया जा चुका है और तकरीबन 30 लाख लोग उसे देख चुके हैं.
फ़ेसबुक पन्ने को देखकर ये समझने ज़्यादा वक्त नहीं लगता कि ये फ़ेसबुक पन्ना किस पार्टी के समर्थन और किस पार्टी के विरोध में चल रहा है.
ऐसे पेज प्रॉक्सी पेज की तरह काम कहते हैं. संगीता इस तरह के साइट्स के लिए 'इम्पोस्टर' शब्द का इस्तेमाल करती हैं.
उनका कहना है कि ये साइट बहरूपिया होते हैं, देखने में लगेगा कि किसी राजनीतिक पार्टी के हैं, लेकिन असल में होते नहीं हैं. इनके कंटेंट नौजवान वोटरों के लिए बनाए जाते हैं, जिसमें मीम और शॉर्ट वीडियो होते हैं. अक़्सर ऐसे पेज कुछ सही जानकारी के साथ ग़लत जानकारी, अधूरी जानकारी परोसते हैं. इसलिए ये किसी भी चुनाव में चिंता का सबब होते हैं.
अब कुछ आँकड़े
बिहार में तक़रीबन छह करोड़ मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल करने वाले हैं, जिनमें से तकरीबन चार करोड़ लोग मोबाइल इंटरनेट का भी इस्तेमाल करते हैं.
इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सोशल मीडिया पर कंटेंट पोस्ट कर कितनी आसानी से मिनटों में कितने लोगों तक पहुँचा जा सकता है.
चुनावी मौसम में ऐसे पेज हज़ारों की संख्या में बनाए जाते हैं. ज़रूरी नहीं कि ये पेज बिहार से ही बने, दुनिया के किसी भी कोने में ये बन सकते हैं.
ट्विटर, फ़ेसबुक पर कौन सी पार्टी कितनी दमदार
राष्ट्रीय जनता दल
आरजेडी के ट्विटर एकाउंट के 3 लाख 77 हज़ार फॉलोअर्स हैं. 2014 के चुनाव में उन्होंने अपना ट्विटर एकाउंट बनाया था और अब तक इस हैंडल से लगभग 32 हज़ार ट्वीट किए गए हैं.
आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव के ट्विटर पर 26 लाख फॉलोअर्स हैं. उनके बड़े भाई तेज प्रताप को तक़रीबन 7 लाख 80 हज़ार लोग फॉलो करते हैं. ट्विटर पर लालू यादव को फॉलो करने वाले तक़रीबन 50 लाख लोग हैं.
आरजेडी के फ़ेसबुक पेज को 2012 में लॉन्च किया गया था और तकरीबन 6 लाख उनके फॉलोअर्स हैं.
आरजेडी के बिहार के हर ज़िले में वेरिफाइड फ़ेसबुक पेज हैं. उनका दावा है कि आरजेडी के अलावा बिहार में कोई पार्टी नहीं है जिसके सभी ज़िला फ़ेसबुक पेज वेरिफाइड हों.
भारतीय जनता पार्टी
बीजेपी बिहार ट्विटर हैंडल की बात करें तो उनके तक़रीबन 2 लाख फॉलोअर्स हैं. 2016 में ये अकाउंट बना और अब तक 21 हज़ार ट्वीट कर चुके हैं.
बिहार बीजेपी पेज़ के 5 लाख से ज्यादा फॉलोअर्स हैं और 2015 में उन्होंने अपना अकाउंट खोला है. यानी दोनों ही प्लेटफॉर्म पर आरजेडी के बाद इनका अकाउंट बना है.
आरजेडी की तरह ही बीजेपी के लाइक्स कमेंट और शेयर हज़ारों में रहते हैं. वीडियो, रैली और इंटरव्यू के क्लिप्स ही ज्यादातर सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं.
सुशील मोदी बिहार बीजेपी के बड़ा चेहरा माने जाते हैं - इनके ट्विटर पर 20 लाख फॉलोअर्स हैं. लेकिन ज्यादातर तस्वीरें और ट्वीट लिख कर पोस्ट करते हैं. बीजेपी के कुछ हैंडल के वीडियोज़ को रीट्वीट ज़रूर करते हैं.
जनता दल (यूनाइटेड)
जनता दल यूनाइटेड के ट्विटर हैंडल को केवल 43 हज़ार लोग फॉलो करते हैं. इस हैंडल से अब तक तक़रीबन 7 हज़ार ट्वीट हुए हैं और 2018 में ये अकाउंट बना है.
15 साल से सत्ता में रहने के बाद सत्ताधारी पार्टी ट्विटर अकाउंट इतनी देरी से बना, ये अपने आप में आश्चर्य की बात है.
नीतीश कुमार, बिहार के मुख्यमंत्री हैं इस नाते ट्विटर पर उनके फॉलोअर्स की संख्या 60 लाख है, जो कि प्रदेश के किसी नेता के मुकाबले ज़्यादा है.
केवल रैलियों के सीधे प्रसारण के अलावा इक्का-दुक्का अख़बार की कतरन देखने को मिलेगी. सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए ख़ास तौर पर कोई अलग से वीडियो बनाया गया हो ऐसा कम देखने को मिलता है.
जनता दल यूनाइटेड का फ़ेसबुक पेज 2018 में बना है. हालाँकि देर से अकाउंट खोलने के बाद भी 5 लाख फॉलोअर्स इनके भी हैं.
संगीता का कहना है कि बिहार का चुनाव जितना रैलियों के ज़रिए लड़ा गया उतना ही व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक और यूट्यूब पर भी लड़ा गया.
ज़मीन पर होने वाली रैलियों की जगह ये नहीं ले सकते मगर रैलियों के प्रचार प्रसार में मददगार हैं, जिससे वोटरों तक पहुँच कई गुना बढ़ जाती है.