Success Story : 3 हज़ार रुपये कमाने वाले दिलखुश कुमार अब हैं करोड़ों के मालिक, जानिए कैसे ?
आर्य गो कैब सर्विस के मालिक दिलखुश कुमार की जिन्होंने आर्थिक तंगी को मात देकर स्वरोज़गार किया औऱ आज अपनी कंपनी में लोगों को रोज़गार भी दे रहे हैं। आइए जानते हैं दिलखुश कुमार की कामयाबी की कहानी।
सहरसा, 1 जुलाई 2022। बिहार में प्रतिभा की कमी नहीं है, यहां के छात्र विभिन्ने क्षेत्रों में राज्य का नाम रोशन कर रहे हैं। वहीं बिहार के कुछ युवाओं की कामयाबी के किस्से आज के युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत भी है। इसी कड़ी में आज हम आपको एक ऐसे शख्स के बार में बताएंगे, जिन्होंने शुरुआती दौर में बहुत ही मुश्किलों का सामना किया लेकिन अपनी मेहनत और लगन से आज वह करोड़पतियों में शामिल हैं और समाज में उनकी एक अलग पहचान है। जी हां हम बात कर रहे हैं आर्य गो कैब सर्विस के मालिक दिलखुश कुमार की जिन्होंने आर्थिक तंगी को मात देकर स्वरोज़गार किया औऱ आज अपनी कंपनी में लोगों को रोज़गार भी दे रहे हैं। आइए जानते हैं दिलखुश कुमार की कामयाबी की कहानी।
दिलखुश कुमार की शुरुआती ज़िंदगी
दिलखुश कुमार की शुरुआती ज़िंदगी बहुत ही तंगी में गुज़री। आर्थिक तंगी इतनी ज्यादा थी कि आम तौर पर इंसान उस हालात से जूझते हुए पूरी ज़िंदगी गुजार देता है। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और खुद की एक अलग पहचान बनाई। दिलखुश कुमार की पढ़ाई की बात की जाए तो उनकी तालीम सरकारी स्कूल में हुई। थर्ड क्लास से मैट्रिक पास किया और बारहवीं में सेकेंड डिवीजन से पास हुए। आर्थिक तंगी का ये आलम था कि एक कपड़े को पहनकर पूरा सप्ताह गुज़ार देते थे।
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पटना से इंटरव्यू के लिए बुलाया गया
दिलखुश कुमार के पिता ड्राइवर थे, वह इतना ही कमा पाते थे कि बच्चे को दो वक्त की रोटी खिला सकें। वहीं दिलखुश कुमार की कम उम्र में शादी हो जाने की वजह से परिवारिक बोझ और ज्यादा बढ़ गया था। आर्थिक स्थिति को देखते हुए दिलखुश ने पढ़ाई छोड़ कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी थी। नौकरी की तलाश में वह जॉब फेयर गए जहां पर स्कूल में चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन भरा जा रहा था, उन्होंने आवेदन भर दिया। इत्तेफ़ाक से उन्हें पटना से इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।
आईफोन का लोगो नहीं पहचान पाए थे दिलखुश
दिलखुश कुमार किसी तरह से बिना प्रेस के पुराने कपड़े पहने हुए इंटरव्यू देने पहुंच गए। इंटरव्यूअर ने उनकी वेश भूषा देख कर रिजेक्ट करने का मन बना लिया था। उन्हें देखकर साक्षात्कारकर्ता के ज़ेहन में तरह-तरह के सवाल आने लगे कि क्या वह काम कर पाएगा , ठीक कैंडिडेट है या नहीं। वहीं साक्षात्कारकर्ता ने उसकी परीक्षा के लिए आईफोन दिखाते हुए कंपनी का नाम पूछ लिया। दिलखुश कुमार ने पहली बार आईफोन देखा था तो वह जवाब नहीं दे पाए। इस बात से ही उन्हें अंदाज़ा हो गया कि उनका चयन नहीं होगा।
सरकार नौकरी तलाश में बने ड्राइवर
पटना से घर लौटने के बाद दिलखुश कुमार काफ़ी उदास हो गए कि आगे क्या करेंगे, कैसे करेंगे ? फिर उन्होंने गाड़ी ड्राइव करने का फ़ैसला लिया। इस बाबत उन्होंने अपने पित जी कहा कि उन्हें ड्राइव करने सिखा दें लेकिन उनके पिता नहीं चाहते थे कि दिलखुश ड्राइवर बने, इसलिए वह ड्राइविंग सिखाने से कतराने लगे। लेकिन दिलखुश ने पिता जी को सरकारी नौकरी में ड्राइवर की सीटें आने का हवाला दे कर ड्राइविंग सीख ली। कहीं किस्मत की बाज़ी पलटी और उन्हें सरकारी ड्राइवर की ही नौकरी मिल जाए। लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई।
दिल्ली से काम छोड़ कर वापस गांव आ गए
ड्राइविंग सीखने के बाद दिलखुश कुमार ने कुछ दिनों तक तीन हज़ार रुपये प्रति महीना ड्राइवर की नौकरी की। बाद में उन्होंने गांव में गाड़ी चलाना छोड़ कर दिल्ली का रुख कर लिया तकि दिल्ली में ज़्यादा पैसे मिलेंगे। लेकिन दिल्ली पहुंचने के बाद उनकी दूसरी मुश्किल बढ़ गई कि उन्हें दिल्ली में रास्ता नहीं मालूम था। ऐसे में कोई भी उन्हें ड्राइवर की नौकरी पर नहीं रखता। इसके बाद उन्होंने एक जानने वाले से दिल्ली का रास्ता समझने का उपाय पूछा तो परिचित ने रिक्शा चलाने का मशवरा दिया। दिलखुश को उनका आइडिया पसंद आया और वह 20 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से रिक्शा किराये पर लेकर चलाने लगे। 13 दिन तक तो रिक्शा चलाया ही था कि उनके सेहत ने जवाब दे दिया और फिर वह दिल्ली से काम छोड़ कर वापस गांव आ गए।
गांव में खोली कैब सर्विस कंपनी
गांव वापस लौटने के बाद फिर से दिलखुश को नौकरी की तलाश सताने लगी। सेहत ठीक होने के बाद उन्होंने फिर से रोज़गार की तलाश शुरू की। चूंकि दिलखुश कुमार को बिजली के क्षेत्र में शुरू से ही दिलचस्पी थी। इसलिए उन्होंने अनुबंध के आधार पर एक कंस्ट्रक्शन कंपनी के लिए काम करना शुरू किया। काम सही ढंग से चलने लगा। आमदनी अच्छी होने पर होने 2016 में उन्होंने एक कार ख़रीदी और गांव वापस आ गए। फिर उन्होंने देखा कि गांव में कैब व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं है। कैब वाले ज्यादा चार्ज भी वसूल रहे हैं। इन सब को देखते हुए उनके दिमाग़ में आर्यगो कैब सर्विस खोलने का आईडिया आया, उन्होंने आर्यगो कंपनी खोल ली।
बिहार के 8 जिलों में है आर्यगो कैब सर्विस
दिलखुश कुमार ने जब आर्यगो कपंनी खोली तो गांव के लोगों ने उनका खूब मज़ाक उड़ाया। लेकिन फिर भी उन्होंने सब को दरकिनार करते हुए अपने काम की शुरुआत की। उन्होंसे सबसे पहले अपने कैब सर्विस में प्रति घंटा और मिनट के हिसाब से चार्ज का सिस्टम लागू किया जो कि लोगों को काफ़ी पसंद आया। अकसर गांव में कैब बुक करने पर पूरे दिन का चार्ज देना होता था लेकिन आर्यगो ने मार्केट की इस परंपरा को ही बदल दिया। इससे लोगों ने ज़रूरत के मुताबिक ही कैब की बुकिंग की जिससे कंपनी का और लोगों का पैसा और वक़्त भी बचा। अच्छी कैब सर्विस गांव में नहीं होने की वजह से ग्रामीण इलकों को आर्यगो कैब का कारोबार काफ़ी बढ़ता गया। आज आर्यगो कंपनी के पास बिहार के 8 ज़िलो में 600 के क़रीब कैब है। हज़ार की तादाद में लोग काम कर रहे हैं।
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