उसूलों के लिए ठुकरा दी सांसदी, जब मौत हुई तो पास में थे सिर्फ 7 रुपये
आइआइएम, इंदौर के एक सर्वे में सांसद शंकर लालवानी को कोरोना काल का सर्वश्रेष्ठ सांसद चुना गया है। शंकर लालवानी इंदौर से भाजपा के सांसद हैं। सर्वे के मुताबिक उन्होंने कोरोना महामारी के दौरान आपदा प्रबंधन की दृष्टि से सबसे बेहतर काम किया है। सर्वश्रेष्ठ सांसद कौन है ? इस सवाल के कई पहलू हैं। सबसे अच्छा सांसद वह है जो अपनी सादगी और समर्पण से जनता का दिल जीत ले। उसका जीवन शान-शौकत वाला नहीं बल्कि आम जनता की तरह साधारण हो। भारत में कई ऐसे सांसद हैं जिन्होंने अपनी सादगी और ईमानदारी की मिसाल कायम की है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री जैसे नेताओं के त्याग और तपस्या से तो सभी वाकिफ हैं लेकिन कुछ ऐसे नायक भी हैं जिन्होंने गुमनाम रह कर बड़ी लकीर खींच दी।

भारतीय राजनीति का वो हीरा जो गुमनाम है
1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की लहर थी। कांग्रेस को 518 सीटों में से 352 पर जीत मिली थी। बिहार में भी कांग्रेस के आगे विरोधी दलों की हालत पतली हो गयी थी। यहां कांग्रेस को 39 सीटें मिली थीं। उस समय संसोपा के कुल तीन ही सांसद जीते थे जिसमें दो बिहार के थे। खगड़िया से संसोपा के शिवशंकर प्रसाद यादव और महाराजगंज से रामदेव सिंह जीते थे। शिवशंकर यादव खांटी समाजवादी नेता थे। उन्होंने कांग्रेस की सुमित्रा देवी को हरा कर चुनाव जीता था। उनकी सादगी और ईमानदारी इंदिरा लहर पर भारी पड़ गयी। उनके साथ जनता का भरपूर समर्थन था जिसकी वजह से वह जीते थे। शिवशंकर यादव सहज, सरल और सर्वसुलभ सांसद थे। वे दिल्ली पहुंचे तो क्षेत्र के लोग उनके पास पैरवी -पैगाम के लिए जुटने लगे। अधिकतर लोग वैसी सिफारिश के लिए कहते जो ठीक नहीं होता। इससे शिवशंकर यादव की आंतर्आत्मा कचोटने लगी। लेकिन वे अपने क्षेत्र के लोगों की उपेक्षा भी नहीं करना चाहते थे। इस कश्मकश के बीच उनका राजनीति से जी उचटने लगा।

सामने जीत थी फिर भी मुंह मोड़ लिया
1977 में जनता पार्टी बन चुकी थी। इमरजेंसी को लेकर इंदिरा गांधी के खिलाफ जनता में जबर्दस्त गुस्सा था। जनता पार्टी की जीत की परिस्थितियां बनने लगीं थीं। संसोपा भी जनता पार्टी में समाहित हो चुकी थी। जनता पार्टी ने शिवशंकर यादव को फिर खगड़िया से टिकट देने का मन बना लिया था। वे सीटिंग सांसद भी थे। उनके जैसा योग्य उम्मीदवार मिलना मुश्किल था। उनकी जीत एक तरह से पक्की लग रही थी। लेकिन तमाम संभावनाओं को दरकिनार करते हुए शिवशंकर यादव ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने अपने दिल की आवाज सुनी और एक बड़ा फैसला ले लिया। वे लोगों को तो बदल नहीं सकते थे इसलिए खुद को ही बदल लिया।
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गलत सिफारिश से तंग हुए तो छोड़ दी सांसदी
उन्होंने पार्टी के नेताओं से कहा था, एक सांसद के रूप में मेरा अनुभव बहुत कड़वा रहा है। ऐसे सांसद होने का क्या मतलब है जब मुझे अपने क्षेत्र के मतदाताओं के गलत काम के लिए पैरवी करनी पड़े ? मैं गलत सिफारिश करते-करते तंग हो गया हूं। इसलिए मैं न टिकट लूंगा और न चुनाव लड़ूंगा। मेरी अंतर्आत्मा अब मुझे ऐसे काम की इजाजत नहीं देती। आखिरकार उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। 1977 में चुनाव के बाद जब रिजल्ट निकला तो खगड़िया सीट पर जनता पार्टी के ज्ञानेश्वर प्रसाद यादव को जीत मिली थी। यानी शिवशंकर यादव ने अपने उसूलों के लिए सांसदी ठुकरा दी। कहा जाता है कि जब शिवशंकर यादव की मौत हुई थी तब उनके पास सिर्फ सात रुपये थे। क्या आज के दौर में ऐसे सांसद की कल्पना की जा सकती है ? सर्वश्रेष्ठ सांसद के रूप में शिवशंकर यादव का इतिहास में भले जिक्र न हो लेकिन वे भारतीय राजनीति के ऐसे नायक हैं जिन पर हर किसी को गर्व है।

जनता गरीब, प्रतिनिधि अमीर
जनता गरीब हो और उसका प्रतिनिधि अमीर हो, क्या यह उचित है ? भारत की राजनीति में यह विसंगति कई दशक से कायम है। बल्कि कहें तो बदलते वक्त के साथ यह और बढ़ी है। अब भारत के करीब 88 फीसदी सांसद करोड़पति हैं। वक्त कितना बदल गया है। आज राजनीति में धन बल का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। अब तो सांसदी हैसियत और चमक दमक का प्रतीक है। सभी दलों में अमीर सांसदों की धमक हैं। गरीबों की राजनीति करने वाले दलों में भी अमीरों का बोलबाला है। बसपा और शिवसेना के सभी सांसद करोड़पति हैं। इस मामले में लगभग सभी दलों की एक जैसी कहानी है।