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अमेरिकी पूंजी की बाढ़ में डूबता भारत

By Staff
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नई दिल्ली, 14 सितम्बर (आईएएनएस)। जिस प्रकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने निर्धारिक हदों व नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर विश्वास मत हासिल किया, उससे तय हो गया है कि भारतीय राजनीति के मूल व सैद्धांतिक आधार का विचारधारा से कोई वास्ता नहीं है।

नई दिल्ली, 14 सितम्बर (आईएएनएस)। जिस प्रकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने निर्धारिक हदों व नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर विश्वास मत हासिल किया, उससे तय हो गया है कि भारतीय राजनीति के मूल व सैद्धांतिक आधार का विचारधारा से कोई वास्ता नहीं है।

सत्ता में बने रहने के गणित ने सत्ताधारियों और सत्ता को टिकाए रखने वालों को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि उन्होंने देश पर निरंतर कसते जा रहे अमेरिकी पूंजी के शिकंजे की तरफ से आंखें ही मूंद ली हैं। परमाणु करार के परिणाम तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन वामपंथियों का अंकुश हट जाने से विदेशी पूंजी भारतीय बाजार पर जिस आक्रामकता से हमला बोलने वाली है, उसके नतीजे बहुसंख्यक आबादी के हित साधने वाले कतई नहीं हैं। उनके लिए तो जल, जमीन और जंगल के संकट गहराते ही जा रहे हैं।

कुछ भूलें हम लोगों ने देश विभाजन की शर्त पर मिली आजादी के समय की थीं, जिनका खामियाजा हम लोग आज भुगतने को विवश हैं। दूसरी बड़ी भूल बाजारवाद और भूमंडलीकरण के साथ आर्थिक विकास के बहाने अमेरिकी मॉडल अपना कर की है। लिहाजा अमेरिकी पूंजी का प्रवाह भी बढ़ गया। नतीजतन आजादी से पहले जहां भारतीय जनमानस पर ब्रितानी प्रभाव था, वहीं अब अमेरिकी प्रभाव कायम हो गया। इन पूंजीवादी नीतियों के विस्तार की निरंतरता से उत्तरोत्तर असमानता की खाई प्रशस्त होते जाने से असंतोष बढ़ता रहा।

आज यही असंतोष भयानक अराजकता की स्थिति में है। आगजनी, लूट-मार, हिंसा और बलात्कार की घटनाएं जिस तरह से रोजमर्रा की चीज हो गई हैं, उससे जाहिर है कि देश में प्रशासन और कानून व्यवस्था जैसी कोई चीज अस्तित्व में ही नहीं है। आतंकवादियों द्वारा किए जा रहे विस्फोटों ने लोकतंत्र की चूलें हिला दी हैं। सुरक्षा एजेंसियों और पुलिसबलों के खुफिया तंत्र नाकारा साबित हो रहे हैं।

देश में जिस तेजी से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पूंजी निवेश बढ़ा उतनी ही तेजी से सांप्रदायिक सद्भाव और सामाजिक न्याय के हित हाशिए पर चले गए। खुद को राष्ट्रवादी राजनीतिक शक्ति कहने वाले संप्रदायवाद की गिरफ्त में आ गए। सामाजिक न्याय के समाजवादी पुरोधा अवैधानिक तरीकों से हाथ में लगी पूंजी के मार्फत राजनीतिक हथकंडों के खिलाड़ी बन गए। ऐसी ही दूषित मानसिकता के चलते लालूप्रसाद यादव जब मुस्लिम बहुल इलाकों में प्रचार के लिए निकलते हैं तो एक ऐसे शख्स को साथ लेकर चलते हैं जिसकी शक्ल और कद-काठी ओसामा बिन लादेन से मेल खाती है। क्या यह हथकंडा मुस्लिम मानसिकता के दोहन का प्रतीक नहीं है?

स्वतंत्रता के समय कश्मीर में संप्रदायवाद नहीं था। सिख संप्रदायवाद और पंजाब को खालिस्तान के रूप में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग ब्रिटिश पूंजी और देश विभाजन के कारण ही संकट के रूप में उपजे। यूरोप के अनेक देशों और सोवियत संघ का विघटन विदेशी पूंजी के कारण ही हुआ और हम हैं कि विदेशी पूंजी के आगमन के लिए नीति दर नीति बनाए जा रहे हैं।

वर्ष 1991 में वर्तमान प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने भूमंडलीकरण और मुक्त बाजारवादी व्यवस्था संबंधी नीतियों की शुरुआत की थी। इन्हीं नीतियों के चलते एक ओर तो देश के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बेचने के लिए पूंजी विनिवेश का सिलसिला शुरू किया गया, वहीं दूसरी ओर सरकारी नौकरियों में भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया गया। शिक्षित बेरोजगारों को नए अवसर न मिलें इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों के सेवारत कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाई गई।

विदेशी पूंजी के प्रभाव में ही एक ओर तो हम दयालुता बरतते हुए केंद्र व राज्य सरकारों के पेंशनधारियों की पेंशन में वृद्धि के साथ अन्य सुविधाओं पर खर्च बढ़ाते जा रहे हैं। दूसरी ओर युवा शक्ति को बेरोजगार बनाए रखते हुए अराजक पृष्ठभूमि तैयार करने में लगे हैं। बुजुर्गो के तारतम्य में संवेदनशीलता बरतना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन मात्र अनुकंपा के आधार पर कोई नीति ही बना ली जाए तो उससे समाज का ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता चला लाएगा।

जब हम अपने जल, जंगल और जमीन विदेशी शक्तियों और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करते जा रहे हैं तो परमाणु ताकत चाहे वह बम के रूप में हो अथवा बिजली के रूप में, किसके लिए उपयोगी साबित होगी? फिर इस परमाणु ऊर्जा से हमारी कितनी जरूरत की पूर्ति हो पाएगी? वह भी तब जब बीस साल बाद परमाणु ऊर्जा को उपयोग में लाए जाने का सिलसिला शुरू होगा। इस नाभिकीय ऊर्जा से उत्पन्न होने वाले खतरों की भी हम अनदेखी कर रहे हैं। जिन क्षेत्रों में यूरेनियम संवर्धन का काम होता है और जहां परमाणु संयंत्र लगाए जाएंगे वहां के निवासियों के स्वास्थ्य पर परमाणु विकिरण का क्या दुष्प्रभाव पड़ता है?

फिलहाल तो हम प्लास्टिक, कंप्यूटर और इलेक्ट्रानिक कचरे को ही ठिकाने लगाने का कोई कारगर उपाय नहीं खोज पा रहे हैं, तब परमाणु कचरे के निपटान का क्या कोई रास्ता तलाश पाएंगे?

विदेशी पूंजी के बहाने जो उदारवादी बाजार सुरसा के मुख की तरह फैल रहा है वह हमारी स्वदेशी शक्तियों और आत्मनिर्भरता के मंत्र को लगातार निगलता जा रहा है। इन्हें बचाना वक्त की जरूरत और नीति नियंताओं के समक्ष सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती है। आर्थिक उपलब्धियों की चकाचौंध ने देश की आंतरिक समस्याओं से ध्यान हटा दिया है। इनके समय रहते हल नहीं ढूंढ़े गए तो सोवियत संघ जैसे शक्तिशाली देश के विखंडन का हश्र हमारे सामने है।

किसी भी देश का तकनीकी विकास राष्ट्र की नैतिक व सांस्कृतिक धरोहर की शर्त पर नहीं किया जाता? लेकिन तकनीकी होड़ के विस्तार के चलते देश पर आर्थिक पूंजी का शिकंजा इसी तरह से कसता चला गया तो युवा पीढ़ी को दो तरह के खतरे झेलने होंगे। एक तो यह पीढ़ी इस विकास का हिस्सा बनकर व्यक्तिगत उपभोग में लग जाएगी और दूसरी इस विकास से न जुड़ पाने के रंज में कुंठित होती चली जाएगी। दोनों ही खतरे युवा पीढ़ी को अकेलेपन का शिकार बना देने के रास्ते पर डालने वाले हैं। जबकि किसी भी देश का राष्ट्रीय व समग्र विकास एकाकीपन से नहीं सामुदायिकता से होता है। इस सामुदायिक भावना को हम अपने ही बीच से विलोपित करते जा रहे हैं।

(सर्वोदय प्रेस सर्विस से साभार)

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस ।

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