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Ordinance: बेसहारा सरकारें क्यों लेती हैं अध्यादेश का सहारा?

अध्यादेशों की भारतीय कहानी ऐसी हो गई है जिसमें संविधान का अर्थ ही खो गया है। नेहरू जी ने इसके दुरुपयोग की शुरुआत की और उनके उत्तराधिकारी आज तक इसका अनुसरण कर रहे हैं।

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Why governments resort to ordinance purpose and its history

Ordinance: दिल्ली सरकार पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को केन्द्र की मोदी सरकार ने अध्यादेश लाकर पलट दिया। लेकिन यह कोई पहली बार ऐसा नहीं हो रहा। इसे भारत के संवैधानिक लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 26 जनवरी 1950 को जिस दिन संविधान का शासन लागू हुआ था उसी दिन नेहरु सरकार ने तीन अध्यादेश (Ordinance) जारी किए गए थे। अकेले उसी साल 1950 में कुल 21 अध्यादेश या आर्डिनेन्स जारी किये गये थे। आर्डिनेन्स के जरिए राजनीति करने की जो शुरुआत नेहरुजी ने की थी, उसके बाद फिर वह कभी रुकी नहीं।

मई 1964 में अपनी मृत्यु तक नेहरूजी भारतीय संविधान के अंतर्गत 102 अध्यादेश जारी कर चुके थे। उनके मंत्रिमंडल ने अनुच्छेद 123 की मर्यादाओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया। उनके लिए हर समय परिस्थितियां ऐसी ही बनी रही कि तत्काल कार्रवाई आवश्यक है। और जब एक बार यह परिपाटी बन जाए तो जाहिर है कि उसे बदलना संभव नहीं होता।

नेहरु के बाद के प्रधानमंत्रियों ने तो अनुच्छेद 123 की नेहरू परंपरा का नियमित रूप से आगे ही बढ़ाया। 1971-77 के दौरान तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी के कार्यकाल में (99) और 91-96 के दौरान नरसिंह राव के कार्यकाल में (108) अध्यादेश जारी किए गए। मोरारजी भाई (21), चरण सिंह (7), राजीव गांधी (37), वी पी सिंह (10) देवगोड़ा (23), इंद्र कुमार गुजराल (23), अटल बिहारी वाजपेई (58), मनमोहन सिंह (42), और नरेंद्र मोदी सरकार ने 2020-21 तक (76) अध्यादेश जारी किये हैं। यानी सभी ने अनुच्छेद 123 का दुरुपयोग किया।

वर्ष 1950 से 2010 के बीच प्रतिवर्ष 10.86 की औसत से अध्यादेश जारी किए जाते रहे हैं। अब इसे थोड़ा अलग ढंग से देखें तो हर साल भारत के राष्ट्रपति लगभग 11 बार इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि परिस्थितियां ऐसी आ गई है कि तत्काल कार्रवाई आवश्यक है। असल में सबसे पहले तो अध्यादेश जारी करने का निर्णय मंत्रिमंडल द्वारा ही किया जाता है लेकिन उसे अमलीजामा पहनाने के लिए राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है। याद रखें इसका जवाब "इस्तेमाल केवल उन परिस्थितियों में ही वाजिब है जब तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक है।"

संविधान सभा की बहस के दौरान कानून बनाने के औजार के रूप में अध्यादेश का सहारा लेने के बारे में आशंका उभरी थी। सभा के एक सदस्य के टी शाह ने कहा था कि, "यह कानून के शासन की उपेक्षा जैसा होगा।" उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि असाधारण परिस्थितियों के नाम पर लाए गए अध्यादेश से हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि यह बगैर चर्चा के पास किया गया है। एक तरह से यह अस्वीकार्य है क्योंकि यह विधायी निकाय को खत्म करने का प्रतिनिधित्व करता है जो संसदीय लोकतंत्र में कानून बनाने के अधिकार का प्राथमिक स्त्रोत है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अधिकार है कि यदि वह इस बात से संतुष्ट हो कि तत्काल कार्रवाई के लिए परिस्थितियां अनुकूल है, और इस कारण अध्यादेश जारी करना आवश्यक है तो वह अध्यादेश जारी करने के लिए अनुमोदन प्रदान कर सकते हैं। यह अध्यादेश संसदीय विधेयक की तरह ही होते हैं, जिन्हें ऐसे समय में जारी किया जा सकता है जब संसद का कोई सत्र न चल रहा हो। अध्यादेश अस्थाई प्रकृति के होते हैं और उन्हें तभी अस्थाई किया जा सकता है जब 6 महीने की अवधि के अंदर उसे संसद के सत्र में पारित करवा लिया जाए, अन्यथा ऐसे अध्यादेश 6 महीने बाद निष्प्रभावी हो जाते हैं।

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भारत के संविधान के अनुच्छेद 123 को परिभाषित करने का विलक्षण अवसर पंडित नेहरू को प्राप्त हुआ था, लेकिन उन्होंने इस काम को हल्के ढंग से किया। लोकसभा के पहले अध्यक्ष जी वी मावलंकर इस रवैये से बहुत नाराज हुए थे और उन्होंने चिंतित होकर इस बारे में नेहरू जी को लिखा था कि "अगर अध्यादेशों को इसी तरह से जारी किया जाता रहा तो संसद अप्रासंगिक हो जाएगी।" श्री मावलंकर ने एक बार फिर 1954 में नेहरू जी को आगाह किया कि अध्यादेश का इस्तेमाल केवल बहुत ही आवश्यक, आपात स्थिति में ही किया जाना चाहिए लेकिन उनके पत्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

दरअसल अनुच्छेद 123 की त्रासदी यह नहीं रही कि इस प्रावधान का बार-बार इस्तेमाल किया गया बल्कि इसकी त्रासदी यह है कि जिन परिस्थितियों में इसका इस्तेमाल हुआ उनमें इसकी आवश्यकता नहीं थी। 1952 से 2020 के बीच लगभग 185 अध्यादेश उन दिनों में जारी किए गए जब संसद का सत्र 15 दिन बाद शुरू होने वाला था या जिसका अंत हुए सिर्फ 15 दिन ही पूरे हुए थे। उसके बाद कुछ ऐसे भी मौके आए हैं जब यह जानते हुए कि संसदीय अनुमोदन के लिए आवश्यक बहुमत नहीं है मंत्रिमंडल ने अध्यादेश जारी कर दिया।

रोचक तथ्य है कि उच्चतम न्यायालय ने परोक्ष रूप से इस प्रवंचना में मदद ही की है। जब आरसी कपूर बनाम भारतीय संघ 1970 के मामले में अनुच्छेद 123 को अनुचित और कपट पूर्ण बताकर चुनौती दी गई तो न्यायालय ने इसमें दखल देने से इंकार कर दिया। अधिकांश न्यायाधीशों का मत था कि यह निर्णय करना मंत्रिमंडल का काम है कि तत्काल आवश्यकता किसे माना जाए।

न्यायालय ने तत्काल आवश्यकता के प्रश्न को सुलझाने का काम राजनीतिज्ञों को सौंप दिया और अनुच्छेद 123 की सीमाओं के निर्धारण का दायित्व भी उन पर ही छोड़ दिया। 80 के दशक तक इसे मानक माना जाने लगा। यही कारण है कि आज यदि किसी अध्यादेश को अनुचित मानकर चुनौती दी जाती है तो अक्सर न्यायालय इस प्रश्न पर विचार करने से इंकार कर देता है।

दिल्ली सरकार में अधिकारियों की तैनाती और तबादले को लेकर सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ का फैसला आया तो लगा कि अब केंद्र और दिल्ली के सरकार के बीच टकराव की नौबत नहीं आएगी। लेकिन केंद्र सरकार ने आनन-फानन में अध्यादेश लाकर दिल्ली की केजरीवाल सरकार की हदबंधी तो कर ही दी, विपक्षी दलों के हाथ एक मुद्दा भी थमा दिया है।

केंद्र सरकार के पक्ष में खड़े लोग सुप्रीम कोर्ट के फैसले को असंवैधानिक बताते हुए अध्यादेश को जायज ठहरा रहे हैं, वही विपक्ष अध्यादेश को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बता रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि जब हमारे पास संविधान, संसद से सुसज्जित लोकतांत्रिक व्यवस्था है तो सरकारें अध्यादेश लाकर मनमानी क्यों करती हैं? सवाल यह भी है कि आखिर केंद्र सरकार क्यों इस जिद पर अड़ी है कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार को उसके अधिकार हासिल ना होने पाए? केंद्र सरकार दिल्ली की सारी प्रशासनिक शक्तियां अपने हाथ में क्यों रखना चाहती है?

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में उप-राज्यपाल और चुनी हुई सरकार की शक्तियों की स्पष्ट व्याख्या कर दी थी। लेकिन जिस तरह से अध्यादेश लाकर केन्द्र की मोदी सरकार ने इसको पलट दिया है उससे लगता है कि बेसहारा होने के बाद सरकारों को आर्डिनेन्स का ही सहारा होता है। यह परिपाटी नेहरु से शुरु हुई और मोदी तक बदस्तूर जारी है।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

English summary
Why governments resort to ordinance purpose and its history
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