Uniform Civil Code: टुकड़ों टुकड़ों में समान नागरिक संहिता की तरफ बढ़ेगा देश?
भारत एक सेक्यूलर यानी धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और ईसाईयों को कई विशेष अधिकार हैं। पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है, वहां अल्पसंख्यकों को कोई विशेष अधिकार नहीं।
आप जानकर हैरान होंगे कि पाकिस्तान में समान नागरिक संहिता लागू है, लेकिन भारत में नहीं है। मुस्लिम देश बांग्लादेश और मलेशिया में भी समान नागरिक संहिता लागू है, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान और इजिप्ट जैसे कई देशों में भी समान नागरिक संहिता लागू है। लेकिन भारत में मुस्लिम विरोध करते हैं, इसलिए संविधान में समान नागरिक संहिता लागू करने का संकल्प लिए जाने के बावजूद वह कागजी दस्तावेज बन कर रह गया।
सुप्रीमकोर्ट ने कई मौकों पर सरकार को संविधान का अनुच्छेद 44 याद करवाया है, जिसमें कहा गया है कि शासन भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
भारतीय जनता पार्टी के तीन मुख्य एजेंडे थे, श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर बनाना, 370 हटाना और समान नागरिक संहिता को लागू करवाना। श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर बन रहा है, 370 हट गई है, जम्मू कश्मीर सीधे केंद्र सरकार के अधीन भी आ गया है।
लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ हुए हिंसक विरोध के कारण मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता पर अपने कदम धीमे कर लिए हैं। इसी महीने ही समान नागरिक संहिता को लेकर लंबित तीन याचिकाओं पर मोदी सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में लिखित में कहा कि न्यायालय देश में समान नागरिक संहिता पर क़ानून बनाने का संसद को निर्देश नहीं दे सकता है।
इससे संकेत यह गया कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने के चुनावी वायदे से पीछे हट गई है। लेकिन यह सच नहीं है, मोदी सरकार वक्त का इन्तजार कर रही है।
राज्यों
से
लागू
करवाने
की
रणनीति
रणनीति
के
तहत
भाजपा
ने
अपनी
राज्य
सरकारों
को
समान
नागरिक
संहिता
के
मुद्दे
पर
आगे
बढने
की
हरी
झंडी
दी
हुई
है।
सुप्रीमकोर्ट
में
लंबित
याचिकाओं
के
संदर्भ
में
जब
संसद
के
पिछले
सत्र
में
ही
एक
सवाल
पूछा
गया
था
तो
विधि
मंत्री
किरिन
रिजीजू
ने
लोकसभा
में
लिखित
उत्तर
में
कहा
था
कि
सरकार
की
अब
तक
देश
में
इसे
लागू
करने
की
कोई
योजना
नहीं
है।
लेकिन इसी के साथ ही उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि वसीयतनामा और उत्तराधिकार, संयुक्त परिवार और विभाजन, विवाह और तलाक जैसे व्यक्तिगत कानून संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची- III की प्रविष्टि 5 से संबंधित हैं। राज्यों को भी उन पर कानून बनाने का अधिकार है।"
उनके जवाब को समझने की जरूरत है, मोदी सरकार समान नागरिक संहिता के लिए टुकड़ों टुकड़ों में आगे बढ़ रही है। रणनीति के तहत ही भाजपा शासित सभी राज्य धीरे धीरे समान नागरिक संहिता का वातावरण बनाने की शुरुआत कर रहे हैं।
भाजपा
शासित
राज्यों
की
पहल
गोवा
में
1961
से
ही
समान
नागरिक
संहिता
लागू
है।
उतराखंड
में
सुप्रीमकोर्ट
की
रिटायर्ड
जस्टिस
रंजना
प्रकाश
देसाई
की
रहनुमाई
में
कमेटी
काम
कर
रही
है,
इस
कमेटी
को
एक
लाख
से
ज्यादा
लोगों
ने
अपने
सुझाव
भेजे
हैं।
उत्तराखंड के बाद हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी कदम आगे बढाने का संकेत दिया था, लेकिन उन्होंने कोई कमेटी नहीं बनाई, अब वहां आचार संहिता लागू हो चुकी है। कर्नाटक सरकार ने भी ऐसे संकेत दिए हैं।
गुजरात मंत्रिमंडल ने राज्य विधानसभा के चुनावों की घोषणा से ठीक पहले 29 अक्टूबर को समान नागरिक संहिता बनाने के लिए हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में कमेटी बनाने का प्रस्ताव पास कर दिया है। इस कमेटी का गठन भी चुनावों की घोषणा से पहले हो जाएगा।
अंग्रेजों
ने
नहीं
दिया
परंपराओं
में
दखल
समान
नागरिक
संहिता
का
सीधा-सा
मतलब
है
सभी
नागरिकों
के
लिए
समान
कानून।
फिर
चाहे
वह
किसी
भी
धर्म
या
जाति
से
हो।
जैसा
कि
किरिन
रिजीजू
ने
संसद
में
कहा
था
शादी-विवाह
से
लेकर
तलाक,
संपत्ति
बंटवारे
और
बच्चा
गोद
लेने
तक
सभी
नागरिकों
के
लिए
नियम-कानून
एक
समान
होंगे।
अंग्रेजों ने आपराधिक और राजस्व से जुड़े कानूनों को भारतीय दंड संहिता 1860, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, विशिष्ट राहत अधिनियम 1877 आदि के माध्यम से सारे समुदायों पर लागू किया, लेकिन शादी-विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति, गोद लेने आदि से जुड़े मसलों को धार्मिक समूहों के लिए उनकी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया था।
इसमें मुस्लिमों के निकाह, तलाक, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, संपत्ति का अधिकार, बच्चा गोद लेना आदि आता है, जो इस्लामी शरिया 1937 के कानून के तहत संचालित होते हैं।
नेहरू
का
दोहरापन
आज़ादी
के
बाद
प्रधानमंत्री
जवाहर
लाल
नेहरू
ने
हिंदुओं
के
पर्सनल
लॉ
को
खत्म
कर
दिया,
लेकिन
मुस्लिमों
के
कानून
को
जस
का
तस
बनाए
रखा।
हिंदुओं
की
धार्मिक
प्रथाओं
के
तहत
जारी
कानूनों
को
निरस्त
कर
हिंदू
कोड
बिल
के
जरिए
हिंदू
विवाह
अधिनियम
1955,
हिंदू
उत्तराधिकार
अधिनियम
1956,
हिंदू
नाबालिग
एवं
अभिभावक
अधिनियम
1956,
हिंदू
दत्तक
ग्रहण
और
रखरखाव
अधिनियम
1956
लागू
कर
दिया
गया।
ये
कानून
हिंदू,
बौद्ध,
जैन,
सिख
आदि
पर
समान
रूप
से
लागू
होते
हैं।
मोदी
सरकार
का
गलत
स्टैंड
अदालतें
बार
बार
केंद्र
और
राज्य
सरकारों
को
समान
नागरिक
संहिता
की
याद
दिलाती
रही
हैं,
लेकिन
मोदी
सरकार
2019
के
अपने
चुनावी
वायदे
के
बावजूद
फूंक
फूंक
कर
कदम
रख
रही
है।
हालांकि
मोदी
सरकार
अगर
इसी
महीने
सुप्रीमकोर्ट
को
नसीहत
न
देती,
कोर्ट
के
सामने
संविधान
का
संकल्प
ही
दोहराती
और
सुप्रीमकोर्ट
के
फैसले
का
इन्तजार
करती
तो
समान
नागरिक
संहिता
लागू
करने
का
उसका
रास्ता
ही
साफ़
होता।
देश में जब भी कभी समान नागरिक संहिता की बात उठती है, तथाकथित सेकुलर राजनीतिक दल विरोध शुरू कर देते हैं। विरोध करने वालों का कहना है कि यह सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है, अगर सबके लिए समान कानून लागू कर दिया गया तो उनके अधिकारों का हनन होगा।
फिलहाल मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक मुसलमानों को चार शादियां करने का अधिकार है, जो समान नागरिक संहिता के बाद नहीं रहेगा। उन्हें अपनी बीवी को तलाक देने के लिए कानून के जरिये जाना होगा। वे अपनी शरीयत के हिसाब से जायदाद का बंटवारा नहीं कर सकेंगे, बल्कि उन्हें कॉमन कानून का पालन करना होगा।
कोर्ट
का
बार
बार
आग्रह
लेकिन
सुप्रीम
कोर्ट
और
अनेक
हाईकोर्टों
ने
देश
में
समान
नागरिक
संहिता
की
आवश्यकता
पर
हमेशा
बल
दिया
है।
मुस्लिम
महिला
शाह
बानो
के
तलाक
के
बाद
भरण-पोषण
के
खर्च
के
लिए
दायर
याचिका
पर
फैसले
में
सुप्रीम
कोर्ट
ने
कहा
था,
"दुख
की
बात
है
कि
हमारे
संविधान
का
अनुच्छेद
44
एक
मृत
दस्तावेज
बना
हुआ
है।
एक
समान
नागरिक
संहिता
परस्पर
विरोधी
कानूनों
के
प्रति
असमानता
वाली
निष्ठा
को
हटाकर
राष्ट्रीय
एकीकरण
के
उद्देश्य
को
पूरा
करने
में
मदद
करेगी।"
द्विविवाह संबंधी प्रसिद्ध केस सरला मुद्गल के फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता नहीं लाने के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार के रवैये पर निराशा व्यक्त की थी।
जुलाई 2021 मे दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने हिन्दू मैरिज ऐक्ट 1955 से जुड़ी सुनवाई के दौरान देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत पर बल देते हुए केंद्र सरकार से इसके विषय में आवश्यक कदम उठाने के लिए कहा था। कोर्ट ने कहा था कि समान नागरिक संहिता से समाज में झगड़ों और विरोधाभासों में कमी आएगी, जो अलग-अलग पर्सनल लॉ के कारण उत्पन्न होते हैं।
मायरा उर्फ वैष्णवी विलास शिरशिकर और दूसरे धर्म में शादी से जुड़ी 16 अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 19 नवंबर 2021 को सरकार से समान नागरिक संहिता के लिए एक पैनल का गठन करने को कहा था।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था समान नागरिक संहिता काफी समय से लंबित है और इसे स्वैच्छिक नहीं बनाया जा सकता है। कोर्ट ने कहा था "इस मामले पर अनावश्यक रियायतें देकर कोई भी समुदाय बिल्ली के गले की घंटी को बांधने की हिम्मत नहीं करेगा। यह देश की जरूरत है और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करे।"
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)